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Acharya Ramchandra Shukla : सावित्री देवी के सामने मालवीय जी याचक बनकर बीएचयू में लाए थे आचार्य को

काशी की गलियों और आम बोलचाल के शब्दों को इकटठा कर आचार्य रामचंद्र शुक्ल हिंदी के लिए विशाल शब्दकोश (शब्द सागर) को अंतिम रूप देने में जुटे थे तब नवनिर्मित बीएचयू को हिंदी के प्रकांड विद्वान की जरूरत भी थी।

By Abhishek SharmaEdited By: Published: Sun, 04 Oct 2020 09:55 AM (IST)Updated: Sun, 04 Oct 2020 09:55 AM (IST)
संस्थापक मालवीय जी के आग्रह में वह तैयार हुए और बिना साक्षात्कार के 1919 में हिंदी के प्रोफेसर नियुक्त हुए।

वाराणसी [हिमांशु अस्थाना]

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जन्म- 4 अक्टूबर-1884 शरद पूर्णिमा (बस्ती)

देहांत- 2 फरवरी, 1941, बसंत पंचमी (बनारस)

काशी की गलियों और आम बोलचाल के शब्दों को इकठा कर आचार्य रामचंद्र शुक्ल विशाल शब्दकोश (शब्द सागर) को अंतिम रूप देने में जुटे थे। तब नवनिर्मित बीएचयू को हिंदी के प्रकांड विद्वान की जरूरत थी। संस्थापक मालवीय जी के विशेष आग्रह और आर्थिक दबाव में वह तैयार हुए और बिना साक्षात्कार के ही 1919 में हिंदी के प्रोफेसर नियुक्त हुए। यह बात बीएचयू के चंद विद्वानों को नागवार गुजरी, जिसके चलते बाबू श्यामसुंदर जी के बाद हिंदी प्रमुख बनाने के लिए समिति ने शुक्ल जी के ही एक शिष्य का नाम प्रस्तावित कर दिया। कारण दिया गया आचार्य शुक्ल के पास पीएचडी की उपाधि या कोई अन्य डिग्री नहीं थी। मालवीय जी ने एक लहजे में यह कहकर समिति के प्रस्ताव को खारिज कर दिया कि डॉ. पीतांबर (शिष्य) डॉक्टर हैं, मगर मिस्टर शुक्ल डॉक्टर मेकर, अब अध्यक्ष वही होंगे। मालवीय जी जानते थे कि आचार्य से पहले हिंदी महज मजदूरों और ग्रामीणों की ही प्रमुख भाषा समझी जाती थी, इसे उच्च वर्गों, साहित्य और एकेडमिक जगत में स्थान दिलाने वाले आचार्य शुक्ल ही थे। वर्ष 1937 के बाद वह आजीवन अध्यक्ष बने रहे और दो फरवरी, 1941 को दिल का दौरा पड़ने से वह देह त्याग दिए।

बीएचयू से हिंदी को विश्व पटल पर किया स्थापित

हिंदी के विद्वान और बीएचयू के पूर्व प्रोफेसर अवधेश प्रधान के अनुसार भारत में जब इलाहाबाद और कलकत्ता विश्वविद्यालय में हिंदी महज अंग्रेजों के सहयोग की भाषा बनी रही, उस दौर में आचार्य बीएचयू आकर व्यवस्थित पाठ्यक्रम और पाठ्य सामग्री तैयार किया, शब्द सागर और हिंदी साहित्य का इतिहास लिखकर हिंदी के गौरव को विश्व पटल पर स्थापित कर दिया। तब लोगों में हिंदी साहित्यकारों को जानने समझने में रुचि जगी। जहां से देश के कोने-कोने और एकेडमिक जगत में सर्वमान्य की भाषा को स्थान मिला।

शुक्लाइन जी, पहली बार सरस्वती की भीख मांग रहा हूं

आचार्य शुक्ल की प्रपौत्री डॉ. मुक्ता की लिखी जीवनी के अनुसार मालवीय जी के कई आग्रह पर जब वह नागरी प्रचारिणी सभा छोड़कर बीएचयू आने को तैयार नहीं हो रहे थे, तो पंडित मालवीय आचार्य की धर्मपत्नी सावित्री देवी से बोले कि शुक्लाइन जी, मैं याचक हूं। अब तक लक्ष्मी की भिक्षा मांगकर विश्वविद्यालय बनाया, मगर चलाने के लिए अब सरस्वती की भीख मांगने आया हूं।

तीन दिन में अलवर छोड़ वापस आये काशी

डॉ मुक्ता ने बताया कि वर्ष 1924 में अधिक वेतन पर अलवर राजा ने शुक्ल जी को आमंत्रित किया, तब आर्थिक बोझ के तले दबे परिवार को उठाने के लिए उन्हें काशी छोड़ना पड़ा। जाते वक्त मालवीय जी ने उनसे कहा कि आपको जाएं, मगर न तो तुम्हे अलवर पसंद आएगा और न ही अलवर को तुम। राजा एक बार 12 बजे रात में आचार्य शुक्ल को जगाकर खेहर शब्द का अर्थ पूछे, उन्होंने अर्थ बताया और अगले दिन वापस काशी आ गए। वह मुश्किल से अलवर में तीन दिन रह सके। जब राजा ने अपने सचिव को काशी भेजा उन्हें बुलाने, तो वह जवाब में एक पत्र उन्हें दिए, जिसमें लिखा था चिथड़े लपेटे चने चाबेंगे चौखट चढ़ि, चाकरी न करेंगे ऐसे चौपट चांडाल की।

बनारस के आचार्य शुक्ल शोध संस्थान से मिला आलोचना का पहला सम्मान

बनारस में रविंद्रपुरी स्थित आचार्य रामचंद्र शुक्ल के तत्कालीन घर के बगल में बने रामचंद्र शुक्ल शोध संस्थान काफी दिनों से बंद पड़ा है। बीच में बीएचयू ने अधिग्रहित कर विकसित करने की प्रक्रिया शुरू की थी, मगर अभी तक मामला जस का तस है। इस पर डॉ. मुक्ता के अनुसार कोरोना की वजह से यहां पर कार्य प्रभावित हुआ है, लेकिन आलोचना का पहला पुरस्कार गोकुल चंद्र पुरस्कार यहीं से आरंभ हुआ। डॉ रामविलास शर्मा, नामवर सिंह, मैनेजर पांडेय, विश्वनाथ त्रिपाठी आदि सम्मानित हुए। इसके अलावा मानदंड पत्रिका का भी काफी समय प्रकाशन होता रहा।


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