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चंद्रशेखर पर सबसे पहले पड़ी आचार्य नरेंद्र देव की नजर, विद्यापीठ में लाई आजाद की अस्थियां

बंबई के कौतूहल से विरक्त होकर ज्ञान की खोज में चंद्रशेखर तिवारी (जन्म 23 जुलाई 1906 - भावरा झाबुआ मध्यप्रदेश निधन 27 फरवरी 1931 अल्फ्रेड पार्क प्रयागराज) या आजाद बनारस आए तो उन पर सबसे पहला हाथ महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ के शिक्षक आचार्य नरेंद्र देव का पड़ा।

By Saurabh ChakravartyEdited By: Published: Fri, 23 Jul 2021 07:10 AM (IST)Updated: Fri, 23 Jul 2021 07:10 AM (IST)
चंद्रशेखर पर सबसे पहले पड़ी आचार्य नरेंद्र देव की नजर, विद्यापीठ में लाई आजाद की अस्थियां
आचार्य नरेंद्र देव ने आजाद को बुलवाया और काशी विद्यापीठ में एडमिशन करा दिया।

वाराणसी [हिमांशु अस्थाना]। जब बंबई के कौतूहल से विरक्त होकर ज्ञान की खोज में चंद्रशेखर तिवारी (जन्म : 23 जुलाई 1906, - भावरा, झाबुआ, मध्यप्रदेश, निधन : 27 फरवरी, 1931, अल्फ्रेड पार्क प्रयागराज) या आजाद बनारस आए तो उन पर सबसे पहला हाथ महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ के शिक्षक आचार्य नरेंद्र देव का पड़ा। वहीं जिस दिन आजाद शहीद हुए उस दिन भी आचार्य नरेंद्र देव स्वयं इलाहाबाद से आजाद की अस्थियों का एक हिस्सा बनारस लेकर आए और काशी विद्यापीठ में उसे स्थापित कराकर एक स्मारक बनवा दी।

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चंद्रशेखर आजाद के करीबी मित्र रहे नंदकिशाेर निगम ने उनकी जीवनी 'बलिदान' में बताया है कि 15 वर्ष की आयु में चंद्रशेखर आजाद जब बनारस आए तो यहां के अखाड़ाें को देख उन्हें यहां पर पहलवानी का शौक हो गया। कुछ ही माह में उनकी शरीर काफी बलिष्ठ हो गई थी। एक बार सड़क पर महिलाओं को फब्तियां कसने वाले कुछ असामाजिक तत्वों से उनकी भिड़ंत हो गई। एक को उन्होंने धरती पर ऐसा चित किया कि बाकियों की हिम्मत ही नहीं हुई आगे आने की। इसके बाद शहर भर में आजाद के साहस और बल की चर्चा फैल गई। आचार्य नरेंद्र देव ने जब ऐसा सुना तो तत्काल आजाद को बुलवाया और काशी विद्यापीठ में एडमिशन करा दिया। उस समय वहां के मुख्य अध्यापक संपूर्णानंद थे।

वह विद्यापीठ में हिंदी और संस्कृत की पढ़ाई में पारंगत हो ही रहे थे कि बीच में आजाद को क्रांतिकारी आंदोलनों में भाग लेने की इच्छा बलवती हुई और वे महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन से जुड़ गए। विद्यापीठ के कई छात्र आजादी के आंदोलन में भाग लेना शुरू कर दिए। जयनायक चंद्रशेखर विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति प्रो. योगेंद्र सिंह ने बताया कि काशी विद्यापीठ के आचार्य बीरबल के घर में ही छिपते थे। वह काशी विद्यापीठ के कुमार विद्यालय में संस्कृत के होनहार छात्र बन गए थे। मगर उस दौर में विवि महान क्रांतिकारियों और नेताओं का सबसे बड़ा मंच था जिसकी छाप आजाद पर स्पष्ट तौर पर पड़ी।

बनारस में सबसे पहले मिले मन्मथ नाथ

विश्वनाथ वैशंपायन की पुस्तक अमीर शहीद चंद्रशेखर आजाद के अनुसार बनारस में उन्हें सबसे पहला क्रांतिकारी साथ मन्मथनाथ गुप्ता का मिला, इसके बाद आजाद ने सशस्त्र क्रांति के माध्यम से संघर्ष करने वालों का एक दल बना लिया। यहीं पर उन्हें सचींद्र नाथ सान्याल, बटुकेश्वर दत्त, भगतसिंह, सुखदेव, राजगुरु, बिस्मिल, अशफाक, जयदेव, शिव प्रसाद गुप्त, दामोदर स्वरूप, आचार्य धरमवीर का भी सहयोग मिला और काकोरी राजनीतिक लूट कांड को सफलता मिली।

सेंट्रल जेल में पड़ी बेंत की मार

आजाद जब आंदोलन के दौरान हिरासत में लिए गए तो ज्वॉइंट मजिस्ट्रेट ने उनका नाम पूछा। जवाब आया 'आजाद', पिता का नाम स्वाधीनता और घर का पता जेल। यह सुन मजिस्ट्रेट तिलमिलिया और बेंत से पिटाई करने की सजा सुना दी। बनारस के सेंट्रल जेल में कसूरी बेतों की हर मार पर गांधी जी, भारत माता की जय और वंदेमातरम करते रहे। जेलर गंडा सिंह ने उन्हें तीन आने दिए, आजाद ने उसे जेलर के मुंह पर ही फेंक दिया और खुद को घसीटते हुए वह आगे निकल गए। अगले दिन ज्ञानवापी पर काशी वासियों ने उनका अभिनंदन किया और चरखे के साथ तस्वीर भी ली गई। इसी दिन के बाद से ही चंद्रशेखर तिवारी आजाद उपनाम से विख्यात हुए।


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