प्रेमचंद जयंती : लमही अलबेला, सजाया अपने लाल के नाम का मेला
कलम के सिपाही मुंशी प्रेमचंद की कहानियां जिंदगी दिखाती, समझाती, सिखाती और आइना दिखाती हैं।
लखनऊ [ प्रमोद यादव]। मासिक वेतन पूर्णमासी का चांद है। वेतन मनुष्य देता है इसलिए उसमें बरकत नहीं होती। ऊपरी आय बहता हुआ श्रोत है उससे प्यास बुझती है। जैसी अनेकों उक्तियों को अपनी कलम से कहानी और उपन्यासों में पुरो देने वाले कलम के सिपाही मुंशी प्रेमचंद की कहानियां जिंदगी दिखाती, समझाती, सिखाती और आइना दिखाती हैं। वह अपनी कालजयी रचनाओं के साथ दुनिया भर में जाने जाते रहे हैं। कई भाषाओं पर मजबूत पकड़ रखने वाले प्रेमचंद का समाज के वंचित तबके से खासा जुड़ाव रहा जो उनकी रचनाओं में सदैव झलकता रहा। मुंशी जी के जन्मस्थान वाराणसी के लमही समेत पूरे उत्तर प्रदेश में साहित्य प्रेमियों ने उनके व्यकित्व और कृतित्व को याद किया।
लमही महोत्सव से दूर रही लमही
देश ही नहीं दुनिया भर में मुंशी प्रेमचंद ही शायद अकेले साहित्यकार होंगे जिनकी जयंती पर उनके गांव में मेला सजता है। संस्कार और सरोकार से जुड़ा यह अनूठा उत्सव किसी धरोहर से कम नहीं लेकिन, इसे सहेजने-सजाने की बजाय प्रशासनिक बेपरवाही ही नजर आई, जिसने चौड़ी कर दी गांव और शहर की खाई। दरअसल, क्षेत्रीय सांस्कृतिक केंद्र की ओर से प्रेमचंद जयंती उत्सव (लमही महोत्सव) का स्थान मुंशीजी का स्मारक जरूर रहा मगर असल लमही तो ग्राम सभा की ओर से रामलीला मैदान में आयोजित मेले में ही नजर आई। सरकारी आयोजन में हिंदी के भारी भरकम शब्द गांव वालों के पल्ले पडऩे वाले न रहे तो महंगे पंडाल में उनके लिए घुसने की जगह भी नहीं बची। ऐसे में गांव का कोई बच्चा इस ओर आया भी तो दुबकते हुए खुद को उल्टे पांव पाया।
मुंशी जी के जन्मोत्सव में रंग भरे
हालांकि दो साल पहले दोनों आयोजनों को एक करने के लिए संस्कृति विभाग की ओर से टेंट-माइक का खर्च उठाने का भरोसा देते हुए प्रयास जरूर किया गया लेकिन, जयंती बीतते-बीतते वह धोखा ही साबित हुआ। ऐसे में ग्रामसभा ने सरकारी आयोजन से दूर रहते हुए परंपरागत तरीके से रामलीला मैदान में मेला सजाया और अपने मुंशी जी के जन्मोत्सव में रंग भरे। वैसे गांव के परिदृश्य पर भी नजर डालें तो यह फर्क साफ नजर आता है। पुराना गांव अपने रूप में आबाद है। इसमें कुछ पक्के मकानों के बीच खपरैल, भड़भूजे की भट्ठी, चाक-कोल्हू दिखता है तो खेतों-बागों के स्थान पर नए मकानों के रूप में कालोनियां बस चुकी हैं।
बदलते गए प्रशासनिक सरोकार
प्रेमचंद की 125वीं जयंती पर वर्ष 2005 में लमही को सजाने के बड़े-बड़े दावे किए गए। केंद्र व प्रदेश की तत्कालीन सरकार ने लमही समेत मुंशी जी से जुड़े शहर भर के स्थलों को संवारने का बीड़ा उठाया। इस पर करोड़ों रुपये खर्च भी किए लेकिन, रखरखाव का इंतजाम न होने से सपने खाक हो चुके हैं। मकान को राष्ट्रीय स्मारक का दर्जा पाने का इंतजार है तो नालियां अपना अस्तित्व खो चुकी हैं और मुंशी को समर्पित सरोवर गांव-घर से निकले मलजल का निस्तारण केंद्र है।
पट्टा हो गया प्रेमचंद सरोवर तालाब
मुंशी प्रेमचंद सरोवर को साफ करने में दो साल पहले गांव वालों ने कड़ाके की ठंड में जी जान लगा दिया। इससे उसकी रंगत निखरी तो मत्स्य विभाग ने इसे मछली पालने के लिए पïट्टे पर दे दिया। स्थिति यह कि इसमें पानी भरने के लिए लगाए गए सबमर्सिबल में बिजली का खुला तार दौड़ाया गया है।गांव में मुंशी प्रेमचंद शोध अध्ययन केंद्र का ढाई करोड़ की लागत से निर्माण कराया गया। बीएचयू के अधीन केंद्र का दो साल पहले उद्घाटन भी हो गया लेकिन, सिर्फ ईंट-पत्थर की इमारत ही साबित हुआ।
फिल्मकार सतजित रे ने फिल्म भी बनाई
आज सीतापुर में हिंदी सभा अध्यक्ष आशीष मिश्रा ने मुंशी प्रेमचंद की 138वीं जयंती पर उनके जीवन पर विस्तार से प्रकाश डाला। इस अवसर पर रमाशंकर मिश्र ने कहा कि उनकी कहानियों 'सतद्रि' और 'शतरंज के खिलाड़ी' पर महान फिल्मकार सतजित रे ने फिल्म भी बनाई थी। हिंदी सभा महामंत्री रजनीश मिश्र ने कार्यक्रम का संचालन किया और कहा कि वक्त के साथ मुंशी प्रेमचंद के उपन्यास और कहानियों की धार कम नहीं हुई है, बल्कि वर्तमान हालात में सामाजिक, आर्थिक विषमताओं को देखते उसकी प्रासंगिता बढ़ गयी है। इस अवसर पर बड़ी संख्या में गण्यमान्य लोग मौजूद रहे।