दीपा ने मजबूत इरादों से लिखी सफलता की कहानी
शामली : इतिहास इरादों से लिखे जाते हैं और इरादे मजबूत दिलों में ही जन्मते हैं। हौसलों से
शामली : इतिहास इरादों से लिखे जाते हैं और इरादे मजबूत दिलों में ही जन्मते हैं। हौसलों से उड़ानों तक और अंतत: शिखर पर विराजित कुछ विरले ही प्रेरणा पुंज बनते हैं और योद्धा कहलाते हैं। इनके सीने पर सजे तमगों की चमक ह•ारों ह•ार दिलों को कुछ ऊंचा और कुछ अभूतपूर्व करने की प्रेरणा भी देती है, जहां शारीरिक अल्पताएं भी इनके अटूट हौसलों के आगे दम तोड़ देतीं हैं। वहीं गरीबी जैसे अभिशाप भी उन्हें त्रस्त करने की जुर्रत नहीं कर पाते। गुदड़ी के लाल और कोयले की खान में हीरा जैसे मुहावरों को फीका करतीं ऐसी प्रतिभाएं भारत की चिर उर्वरा भूमि पर जन्म लेती रहती हैं। दीपा कर्माकर उन्हीं महान प्रतिभाओं में से एक हैं। नौ अगस्त 1993 में त्रिपुरा के एक साधारण परिवार में जन्मी इस लड़की की रियो ओलंपिक तक की यात्रा बाधाओं से लड़ते हुए सफलता के आकाश पर चमकने तक की एक ऐसी कहानी है जो देश के हर बालक और बालिका के लिए एक सच्चा और प्रमाणिक संदेश होनी चाहिए। छह वर्ष की नन्हीं आयु से एक सफल जिम्नास्ट बनने का स्वप्न देखने वाली इस लड़की के सामने उसके समतल तलुवे (स्पोर्ट्की भाषा में फ्लैट ़फीट) चुनौती से कम नहीं थे, लेकिन सतत अभ्यास और बिश्वेश्वर नंदी जैसे द्रोणाचार्य सरीखे कोच के निर्देशन ने दीपा को इस बाधा को न केवल पार करने का साहस दिया, वरन इस साहस को उपलब्धियों में परिवर्तित करने का एक कीमिया भी सुझा दिया। यहां यह समझना रोचक होगा कि समतल तलुवे एक जिम्नास्ट की दौड़ने और कूदने जैसी क्रियायों को बाधित करते हैं। साथ ही, भारत में जिम्नास्टिक जैसे खेलों को विश्वस्तरीय सुविधाएं भी उपलब्ध नहीं हैं। लेकिन 2016 के ओलंपिक खेल हों ,जकार्ता एशियन गेम्स हों, कॉमन वेल्थ गेम्स हों या इसी वर्ष जुलाई में मार्सिन तुर्की) में एमआई जी आर्टिस्टिक जिम्नास्टिक वर्ल्ड चैलेंज कप हो, दीपा ने हर जगह अपनी प्रतिभा के झंडे गाड़े हैं। निसंदेह आने वाले वर्षों में दीपा के नाम और कई बड़ी उपलब्धियां जुड़ेंगी। राजीव गांधी खेल रत्न पुरस्कार, पदमश्री, अर्जुन पुरस्कार और साथ ही उनके कोच बिश्वेश्वर नंदी को मिला द्रोणाचार्य पुरस्कार दीपा की प्रतिभा को दर्शाने के लिए काफी हैं। दीपा की कामयाबी के पीछे उनकी मेहनत और समर्पण है, जिसे उन्होंने आज तक बरकरार रखा है।
बता दें कि दीपा ने पिछले कई सालों से मिठाई को हाथ तक नहीं लगाया है और रोजाना 8 घंटे ट्रे¨नग करती हैं। दीपा अपनी डाइट और ट्रे¨नग पर भी पूरा ध्यान रखती है। यही कारण है कि भारत को अपनी इस बेटी से अगले ओलंपिक में एक पदक की आस जरूर होगी। हमारे देश में जब खेलों की बात आती है तो सिर्फ क्रिकेट पर ही ध्यान जाता है। भारत में क्रिकेट की आभा ऐसी है कि बाकी सारे खेल उसकी चमक में कहीं खो से जाते हैं। हालांकि अब कॉरपोरेट कल्चर के आने के बाद से भारत में फुटबॉल, बैड¨मटन, टेनिस और कुश्ती जैसे पारंपरिक खेलों को भी दर्शक मिलने लगे हैं, लेकिन जिमनास्टिक की बात करें तो आज भी भारत में बड़ी आबादी इस खेल से अंजान है। ऐसे हालात में भी भारतीय जिमनास्ट दीपा करमाकर ने अपनी मेहनत और लगन के बूते रियो ओलंपिक में पूरी दुनिया को चौंका दिया था। बता दें कि सरकार द्वारा कोई खास मदद और ट्रे¨नग की बेहतर सुविधाएं ना होने के बावजूद दीपा मामूली अंतर से रियो ओलंपिक में पदक जीतने से चूक गई थी और चौथे स्थान पर रही थी। ओलंपिक जैसे बड़े टूर्नामेंट में खेलने का लक्ष्य हासिल करने के लिए केवल नैसर्गिक प्रतिभा नहीं बल्कि सच्ची लगन की जरूरत होती है। रियो ओलम्पिक के लिए क्वालीफाई करने वाली पहली भारतीय महिला जिमनास्ट बनने वाली दीपा कर्माकर इम्फाल के भारतीय खेल प्राधिकरण (साई) केंद्र में भारोत्तोलन कोच दुलाल कर्माकर की बेटी हैं। दीपा 2011 में त्रिपुरा का प्रतिनिधित्व कर राष्ट्रीय खेलों में पांच पदक जीत कर सुर्खियां बटोरी। दिल्ली में 2010 में आयोजित राष्ट्रमंडल खेलों में वह भारतीय जिमनास्टिक टीम का हिस्सा भी थीं, जहां उन्होंने आशीष कुमार को जिमनास्टिक में भारत का पहला पदक जीतकर इतिहास रचते देखा। आशीष को अपनी प्रेरणा मानने वाली दीपा ने 2014 में आयोजित राष्ट्रमंडल खेलों में महिला वॉल्ट वर्ग के फाइनल में कांस्य पदक जीता। एशियाई कांस्य पदक विजेता दीपा ने आर्टिस्टिक जिमनास्टिक में ओलंपिक का टिकट हासिल किया है। दीपा की यह गौरव यात्रा हमारे प्रत्येक बालक और बालक के लिए मात्र एक परी कथा न होकर एक प्रेरणा होनी चाहिए। साथ ही यह यात्रा राष्ट्र निर्माता के रूप में कार्यरत उस प्रत्येक शिक्षक प्रशिक्षक, अभिभाभवक के लिए भी एक सकारात्मक उदाहरण के रूप में अवश्य जानी चाहिए। नन्हीं आयु के इरादों को समझिये और उन्हें पंख दीजिये आकाश वो खुद ढूंढ लेंगे। हां उनकी उड़ानों पर न•ार जरूर रखिएगा। प्रतिभाओं को तराशने में अपने समग्र अनुभव का उपयोग करिए। बालकों को बाधाओं को हथियार बनाना सिखाइए। प्रतिभाओं का सम्मान करना सीखिए, क्योंकि उनके द्वारा अर्जित गौरव आने वाली पीढ़ीयों के लिए सर्वश्रेष्ठ पूंजी हो सकती है।
- विनोद शर्मा, ¨प्रसिपल
संस्कृति इंटरनेशनल स्कूल, शामली।