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कर्ज नहीं चुनी मेहनत, ताकि ड्योढ़ी पर परदा रहे सलामत

कोरोना संक्रमण काल में शहरों से गाव की ओर डग नापते प्रवासियों में किरदार हैं कहानिया हैं। वे कभी खुद से तो कभी हालात से जूझते नजर आ रहे मगर एक जिद के साथ।

By JagranEdited By: Published: Tue, 26 May 2020 12:00 AM (IST)Updated: Tue, 26 May 2020 06:01 AM (IST)
कर्ज नहीं चुनी मेहनत, ताकि ड्योढ़ी पर परदा रहे सलामत

अंबुज मिश्र, शाहजहापुर : कोरोना संक्रमण काल में शहरों से गाव की ओर डग नापते प्रवासियों में किरदार हैं, कहानिया हैं। वे कभी खुद से तो कभी हालात से जूझते नजर आ रहे मगर एक जिद के साथ। जिद, स्वाभिमान को जिंदा रखने की। ऐसे ही एक किरदार से मिलवाने के लिए शाहजहापुर से 15 किमी दूर बसे जहानपुर गाव चलते हैं। जिसके मुहाने तक पक्की सड़क है। स्कूल जाने वाला इंटरलॉकिंग रास्ता खत्म हुआ तो कच्ची गलियों से वास्ता हो गया। इसके कुछ ही दूरी पर अरुण व गीता रहते हैं। परदा कहानी के चौधरी पीरबख्श तो याद होंगे न आपको..। वो नहीं मिलेंगे मगर उनके जैसा किरदार यहा है। अरुण, यही नाम है उनका और हालात भी कुछ पीरबख्श की तरह।

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दोपहर के 12 बज रहे थे। अपनी पाच बेटियों व दो बेटों के साथ गीता घर पर थी। पति अरुण गाव में ही काम की तलाश में निकल चुके थे। चूंकि, हमें पहले ही जानकारी थी कि उनका परिवार कुछ दिन पहले ही शहर से काम धंधा छोड़कर आया है इसलिए मौजूदा हाल जानने के बात करनी शुरू की। 30 बरस पहले ब्याह कर आई थी तो कच्ची कोठरी में दाखिल हुई। कुछ वर्ष पहले सरकारी आवास स्वीकृत हुआ तो यही कोठरी पक्की हो सकी, लेकिन आठ बच्चों (एक बेटी की शादी हो चुकी है) की इसमें गुजर नहीं हो सकती थी। जमीन है नहीं जोकि खेती करें, इसलिए दूसरों के यहा मजदूरी कर परिवार पालते थे। काम मिलना बंद हो गया तो पाच साल पहले पूरा परिवार दिल्ली चला गया। वहा अरुण ने दिल्ली के नागलोई स्थित जूता फैक्ट्री में काम शुरू कर दिया। नौ हजार रुपये पगार कम थी, इसीलिए तीन बेटिया भी साथ में दिहाड़ी पर काम करने लगीं। स्थिति सुधरी तो बड़ी बेटी सुलोचना का काट में ब्याह कर दिया। बहुत अच्छा नहीं, लेकिन जीवन कट रहा था।

लॉकडाउन हुआ तो सभी को गाव का रुख करना पड़ा। पास न जमीन थी और न कोई काम। अरुण न चाहते हुए भी लौटकर आ गए। बरसों पहले बने कमरे में पूरे परिवार का गुजारा संभव नहीं इसलिए कमरे के सामने खाली जमीन जगह पर भी सोने का ठिकाना बना लिया। सामने से गली की चहल-पहल रहती है, जिससे आड़ के लिए चौखट पर पर्दा टाग दिया। इसी कमरे व इस परदे के बीच छोटी सी खाली जगह में खुले आसमान के नीचे मिट्टी का चूल्हा है जो दिन में दो बार जलता है। परदे के पीछे के हालात गाव वालों से छिपे नहीं हैं, लेकिन अरुण भी पीरबख्श की तरह खुद्दार है। राशन कार्ड नहीं बन सका। सुविधाएं मिलने में देरी है इसके बावजूद उन्होंने गाव में किसी से मदद नहीं मागी। सुबह खेत पर निकल जाते हैं। दिहाड़ी से जो पैदा होता है, उसी से राशन का इंतजाम कर पूरे परिवार का खाना बनता है। शिक्षामित्र मिथिलेश व गाव के रामदेव बताते हैं कि कठिन वक्त में हम सब मिलकर अरुण की मदद करना चाहते थे मगर जितनी बार भी उनसे पूछा, हर बार उन्होंने मना कर दिया। यह कहते हुए कि जूझेंगे, तभी जीतेंगे। फिर भी, बच्चों को किसी बहाने बुलाकर खाना खिला देते हैं। वापस नहीं जाना

गीता कहती हैं कि पति ने क्या सेाचा है, यह नहीं पता। मगर, मेरा तय है कि अब वापस नहीं जाना। गाव में ही रहकर कमाई करते होते तो आज कुछ जमा पूंजी भी होती। ड्योढ़ी से दरवाजे का पर्दा शायद हट गया होता। अरुण कर्ज लेकर कोई रोजगार क्यों नहीं करते, सवाल पर गीता कहती हैं सरकारी कर्ज लेने की स्थिति नहीं है। घर की इच्जत और ड्योढ़ी पर टंगा परदा सलामत रहे, इसलिए सूदखोर के बारे में सोचते भी नहीं।


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