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चाक पर तेज हुए हुनरमंद हाथ

दीप पर्व निकट आते जगमग ज्योति विकसित कर दीपमालिके के स्वागत के लिए कुम्हारों ने चाक पर हाथ तेज कर दिए हैं। दिन रात लगकर वे दीया बनाने का कार्य कर रहे है। कोसा, भरूका, खिलौने व मूर्तियों के निर्माण कार्य तेजी पर हैं। प्लास्टिक के गिलासों के चलन ने जहां कुम्हारों के कुल्हड़ के कारोबार को बुरी तरह प्रभावित किया है। अब प्रतिबंध से उम्मीद बढ़ी है।

By JagranEdited By: Published: Tue, 30 Oct 2018 11:36 PM (IST)Updated: Tue, 30 Oct 2018 11:36 PM (IST)
चाक पर तेज हुए हुनरमंद हाथ
चाक पर तेज हुए हुनरमंद हाथ

संतकबीर नगर:दीप पर्व निकट आते जगमग ज्योति विकसित कर दीपमालिके के स्वागत के लिए कुम्हारों ने चाक पर हाथ तेज कर दिए हैं। दिन रात लगकर वे दीया बनाने का कार्य कर रहे है। कोसा, भरूका, खिलौने व मूर्तियों के निर्माण कार्य तेजी पर हैं। प्लास्टिक के गिलासों के चलन ने जहां कुम्हारों के कुल्हड़ के कारोबार को बुरी तरह प्रभावित किया है। अब प्रतिबंध से उम्मीद बढ़ी है।

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दीपावली तो दीपों का ही पर्व है। भारतीय संस्कृति में ज्योति के पावन पर्व दीपमालिके के स्वागत में प्राचीन समय से ही दीप जलाने का कार्य किया जा रहा है। इस परंपरा का निर्वहन अनादि काल से चला आ रहा हैं। पूर्व में कुम्हार दीप बनाने के लिए दीपावली पर्व आने के तीन माह पहले से ही पूरी लगन व निष्ठा लगाकर कार्य करते थे और दीयों को एकत्र करके दीपावली के लिए रखते थे। लेकिन बाजार के जानकारों का कहना है कि वर्तमान में बढ़ते मोमबत्ती के चलने इस कारोबार को कुछ हद तक प्रभावित किया था। पिछले दो दशक से विद्युत बल्बों की साज-सज्जा ने इस पर असर डालना शुरू किया। लेकिन वर्तमान में चीन के विद्युत झालरों को टक्कर देने को रंग बिरंगे दीये बनाएं जा रहे हैं। कुछ वर्षों में दीयों की खरीदारी केवल शुभ कार्यो पर ही किए जाते हैं। इससे कलशा व दीया बनाने वाले चाक के कारीगरों के समक्ष आर्थिक संकट मंडराने लगा। कारीगरों की कमर पहले से ही प्लास्टिक के गिलास व प्लेटों के बढ़ते प्रचलन ने तोड़ कर रख दी है। अब तो बच्चों के खिलौने, गाड़ी, भोपा भी लोग नही खरीदते। पुरवा बट्टा कलश-सुराही अब प्रचलन से बाहर हो गया है। त्योहारों की बिक्री भी मारी जा रही है। सब कुछ के बाद इस बार पर्व पर कुम्हार इस बार पूरी ताकत से जुटे हुए हैं।

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सुनाई पीड़ा

दीपावली पर दीये के स्थान पर मोमबत्ती व रंग-बिरंगे बिजली के छोटे-छोटे बल्बों ने ले ली लोग इन्हें ही जलाकर काम चला रहे हैं। विनोद कुमार, सुधीर ने बताया कि विगत दस पीढि़यों से इस व्यवसाय से जुड़ा हुआ हूं। पहले तो रोटी-दाल की व्यवस्था हो जा रही थी, लेकिन वर्तमान में हालात यह हैं कि हाड़तोड़ मेहनत के बाद भी इतना नही मिलता की भरण पोषण हो सके। बच्चों की फीस,कापी व परिवार की जरूरतों को पूरा करने के लिए मजदूरी करने की मजबूरी बन गई है। रामनरेश का कहना है कि मिट्टी के वर्तन से उनके परिवार का गुजर-बसर पीढि़यों से चलता चला आ रहा था। वर्तमान समय में अब मिट्टी के बर्तनों की मांग घट गई पहले यह हर समय में बिकते थे। शादी-विवाह में मांग घटी ही अब तो त्योहारों पर होने वाली बिक्री भी समाप्त होती जा रही है।


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