महाकवि के फाग से ऋतुराज का अभिनंदन
वसंत ऋतु आते ही जिले के हरिहपुर के रंगपाल के फाग-ऋतुपति गयो आय हाय गुंजन लागे भौंरा की गूंज गांव-गांव सुनाई पड़ने लगते हैं। इनके फाग इतने लोकप्रिय हुए कि आज भी उनकी गूंज न केवल भारत देश वरन सूरीनाम व मारीशस आदि देशों में भी सुनाई पड़ती है। संगीत आचार्य के लिखे फाग पूरी तरह ताल - लय में निबद्ध हैं।
संतकबीर नगर : वसंत ऋतु आते ही जिले के हरिहपुर के रंगपाल के फाग-ऋतुपति गयो आय हाय गुंजन लागे भौंरा की गूंज गांव-गांव सुनाई पड़ने लगते हैं। इनके फाग इतने लोकप्रिय हुए कि आज भी उनकी गूंज न केवल भारत देश वरन सूरीनाम व मारीशस आदि देशों में भी सुनाई पड़ती है। संगीत आचार्य के लिखे फाग पूरी तरह ताल - लय में निबद्ध हैं। इनके फागों में कल्पना की उड़ान के साथ ही भाषा के सौंन्दर्य व रसात्मकता का अछ्वुत समन्वय मिलता है। रिवपरा, तिताला, दादरा, लवनी व ठुमरी से महाकवि के अधिकांश फाग नायक-नायिकाओं के संयोग व वियोग की क्रीड़ाओं से भरे पड़े हैं। इनके फागों में प्रेम उछ्वव और विकास के अनगिनत चित्र अपनी मौलिक तथा अनूठी भाव-भंगिमाओं के साथ बड़े आकर्षक व मर्मस्पर्शी बन पड़े हैं। कवि ने प्रेमी हृदय के सुख व दु:ख दोनो पहलुओं को स्वर दिया है।
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वसंत देश सरवार में,
श्रृंगार रस का उत्कृष्ट उदाहरण है रंगपाल का यह फाग- दोउ खेलत राधा श्याम, होरी रंग भरी। बजत मृदंग उपंग, चंग बिना सुर जोरी में संयोग रस के साथ ही वियोग रस का जो अछ्वुत वर्णन अविस्मरणीय है। फाग्र सम्राट महाकवि ने अपने पते -बसत देश सरवार में, रंगपाल शुभस्थान हरिहरपुर श्री अवध ते। से प्रस्तुत किया। बाबू भारतेंदु हरिश्चंद्र
के कवि सम्मेलन रंगपाल ने फाग के जरिये साहित्यिक प्रतिभा का अनोखा परिचय दिया था। लोक प्रिय कलाकार का आशीष व प्रेरणा से साहित्य व पद्य रचना को छोड़ पूरी तरह होली गीत (फाग) लिखने में अपने को रमाने के बाद फाग्र सम्राट बने। 20 जनवरी 1864 को जन्में रंगपाल को देहावसान 1937 में हुआ था।