आकर्षक होती है कटरा गुलाब सिंह की रामलीला
जासं प्रतापगढ़ जिले के कटरा गुलाब सिंह बाजार में रामलीला का मंचन बहुत ही आकर्षक होता
जासं, प्रतापगढ़ : जिले के कटरा गुलाब सिंह बाजार में रामलीला का मंचन बहुत ही आकर्षक होता है। 1940 में इसकी शुरुआत सेठ महारानीदीन ने की थी। उनके भाई मनोहर लाल, गया प्रसाद और किशोरी लाल भी साथ रहे। राम लीला मंचन के लिए समिति बनने पर क्षेत्र के लोग बहुत खुश हुए और आगे बढ़कर सहयोग करने लगे। तब से यह रामलीला इसी परिवार की देखरेख में मंचित की जा रही है। इसमें विष्णु पाल शास्त्री, सिद्ध नारायण तिवारी, भगवती शरण, कड़ेदीन, लल्लू लाल, राजाराम जैसे लोगों का भी योगदान भुलाया नहीं जा सकता। यहां सबसे पहले राम का अभिनय राजाराम ने किया था। अब उनके नाती अभय यह भूमिका निभाते हैं।
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इस बार का आकर्षण :
रामलीला का यह मंचन इस बार जल संरक्षण को समर्पित होगा। इसके लिए कलाकारों को विशेष रूप से प्रशिक्षित किया जा रहा है। यह कलाकार दर्शकों को यह बताएंगे कि पानी को व्यर्थ न बहाएं। जल को देवता का दर्जा मिला है। इस संदेश से यह रामलीला इस बार और आकर्षक ढंग से प्रस्तुत करने के लिए समिति जुटी हुई है।
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लक्ष्मण बनकर भिड़ेंगे परशुराम से :
मेरा अभिनय इस बार की रामलीला में लोग देखते ही रहेंगे। राम की तरह ही लक्ष्मण की भूमिका पूरे राम चरित मानस में बहुत मजबूत है। वह राम के भाई ही नहीं सेवक और सुरक्षा प्रहरी भी रहे। मेरा प्रयास होगा कि लक्ष्मण जी के विराट व्यक्तित्व को उभार सकूं। मैं खासकर परशुराम संवाद को लेकर और उत्साहित हूं। बोर्ड की परीक्षा की पढ़ाई का दबाव होने के बाद भी अभिनय का समय निकालकर खुश हूं।
-रामकृष्ण, कलाकार
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रामलीला कमेटी ने बहुत संघर्ष किया है। अभाव के बावजूद मंचन कमजोर नहीं पड़ने दिया गया। भीड़ भी बढ़ती जा रही है।
-विजय कुमार कौशल, व्यवस्थापक
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कटरा गुलाबसिंह की रामलीला आजादी के पहले से चल रही है। यह केवल अभिनय नहीं एक जुनून है। इसी से हम लोग सफल हैं।
-बदलूराम अग्रहरि, अध्यक्ष
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हर साल रामलीला का मंचन नया ही लगता है। बच्चों में संस्कार भरने वाला ऐसा सामाजिक कार्य भला पुराना कैसे हो सकता है।
-अमर चंद्र अग्रहरि, सदस्य
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मैने भी मंचन किया है। मंचन करने में आनंद आता है। इंसान होकर भगवान जैसा आचरण करना सौभाग्य की बात होती है।
-राजाराम अग्रहरि, संरक्षक
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नदी तैर कर जाते थे :
रामलीला देखने की लालसा शुरू से रही। रास्ते में नदी पड़ती थी। पुल नहीं था तो हम और हमारे कई साथी नदी को तैर कर रामलीला देखने जाते थे। भीड़ में बैठने के लिए जगह का इंतजाम करने का तरीका भी गजब का था। हम लोग मेढक लाते थे और उसे भीड़ में छोड़ देते थे। लोग मेढक से बचने के लिए भागते थे। हम लोग अपनी जगह बना लेते थे। इसके बाद आराम से रामलीला का आनंद लेते थे।
-जगदेव सिंह, पूर्व शिक्षक