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आधी ही रह गई दलहन-तिलहन की खेती

प्रतापगढ़ : नीलगाय का जिले में इतना आतंक है कि दलहन और तिलहन की खेती आसान नहीं रह गई है। खड़ी फसल को

By JagranEdited By: Published: Thu, 23 Mar 2017 11:19 PM (IST)Updated: Thu, 23 Mar 2017 11:19 PM (IST)
आधी ही रह गई दलहन-तिलहन की खेती
आधी ही रह गई दलहन-तिलहन की खेती

प्रतापगढ़ : नीलगाय का जिले में इतना आतंक है कि दलहन और तिलहन की खेती आसान नहीं रह गई है। खड़ी फसल को नीलगाय काफी हद तक चर जाते हैं और बाकी बची तो रौंद डालते हैं। इससे किसान लागत भी नहीं निकाल पाते। इसके चलते दलहन व तिलहन की खेती अब आधी ही रह गई है।

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जिले के नदी, नाले के तराई वाले क्षेत्रों में दलहन और तिलहन के खेत कभी आबाद रहा करते थे। खेतों के बगल जंगली इलाकों से आकर नीलगायों द्वारा फसलों को बर्बाद कर देने से धीरे-धीरे किसान मायूस होते गए। इसके चलते दलहन और तिलहन की खेती आधे से भी कम रकबे में हो पा रही है। देखा जाय तो जिले में चना की खेती 6245 हेक्टेअर में हो रही है। मटर 5898 हेक्टेअर में पैदा की जाती है। अरहर 8530 हेक्टेअर में किसान पैदा करते हैं। इसके अलावा सरसो की खेती 2378 हेक्टेअर और थोड़ी बहुत मसूर की खेती 283 हेक्टेअर में होती है। दो दशक पहले यह रकबा इससे लगभग दूने पर होता था।

अरहर और चना मटर की खेती खासतौर जिले के सांगीपुर, संडवा चंडिका, बेलखर नाथ, मंगरौरा और सदर ब्लाक के गांवों के किसान करते है। यह क्षेत्र सई और बकुलाही नदी के किनारे होने से ड्राई माने जाते है। यानि यहां के खेतों में अनावश्यक नमी नहीं होती। इस वजह से दलहन और तिलहन की पैदावार ठीक होने की उम्मीद किसानों को होती है, लेकिन नीलगाय के आतंक यह उम्मीद टूटती रहती है।

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गाय नहीं घोड़ा है नीलगाय

प्रतापगढ़ : फसलों का दुश्मन नीलगाय वास्तव में गाय है ही नहीं। यह तेज दौड़ने वाला बड़ा और शक्तिशाली जानवर है। वरिष्ठ कृषि वैज्ञानिक मनोज त्रिपाठी के अनुसार कद में नर नीलगाय घोड़े जितना होता है, पर उसके शरीर की बनावट घोड़े की तरह संतुलित नहीं होती। वह बिना पानी पिए बहुत दिनों तक जीवित रह सकता है। मादा नील गाय भूरे रंग की होती हैं। नीलापन वयस्क नर के रंग में पाया जाता है। वह लोहे के समान सिलेटी रंग का या धूसर नीले रंग का जानवर होता है। उसके आगे के पैर पिछले पैर से अधिक लंबे और मजबूत होते हैं। नरों की गर्दन पर सफेद बालों का एक लंबा गुच्छा रहता है और उसके पैरों पर घुटनों के नीचे एक सफेद पट्टी होती है। नर के शरीर की लंबाई लगभग ढाई मीटर होती है। मादाएं कुछ छोटी होती हैं। केवल नरों में छोटे, नुकीले सींग होते हैं। 1992 में हुए अध्ययन के अनुसार डीएनए की जांच से पता चला कि बोसलाफिनी बकरी, भेड़ प्रजाति, बोविनी गौवंश और ट्रेजलाफिनी हिरण प्रजाति प्रजाति के जानवरों से मिलकर नीलगाय बना है। कहीं-कहीं इनको नील घोर यानी नीला घोड़ा कहा जाता है।

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केवल दिन में सक्रिय

प्रतापगढ़ : नीलगाय रात में नहीं निकलते। वैसे तो वह वह घास चरता है, पर फसलों पर भी धावा बोलते हैं। उसे बेर के फल खाना बहुत पसंद है। महुए के फूल भी बड़े चाव से खाए जाते हैं। यह घने जंगलों में नहीं रहते, क्योंकि वहां यह अपने शत्रु को देख नहीं पाते। ऊबड़-खाबड़ जमीन पर भी वह घोड़े की तरह तेजी से और बिना थके काफी दूर भागते हैं।

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हमले की वजह

प्रतापगढ़ : नीलगाय में नर और मादाएं अधिकांश समय अलग झुंडों में घूमते हैं। अकेले घूमते नर भी देखे जाते हैं। मादाओं के झुंड में बच्चे भी रहते हैं। इंसानों पर अक्सर नर नील गाय ही हमला करते हैं। खेतों में इंसानों को अपनी ओर आते देख वह समझते हैं कि यह उनको और उनकी मादा को मारने आ रहा है। बस इसी आशंका में वह हमलावर हो जाते हैं। अपने सींगों को झाड़ियों में अथवा जमीन पर ही दे मारते हैं और इस तरह वह गुस्से का इजहार करते हैं।

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इसलिए नहीं मारते लोग

प्रतापगढ़ : नीलगाय के नाम में गाय शब्द जुड़ा होने के कारण लोग इनको धार्मिक मान्यता देते हैं। इस वजह से इनको सुरक्षा प्राप्त है। गांवों में इनको लोग गाय की बहन भी कहते हैं। अक्सर नीलगाय खड़ी फसल को काफी नुकसान पहुंचाते हैं।


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