.. कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी
हमारी भारतीय संस्कृति चिर पुरातन होते हुए भी नित नूतन एवं नवीन है।
- संस्कारशाला :
हमारी भारतीय संस्कृति चिर पुरातन होते हुए भी नित नूतन एवं नवीन है। भारतीय संस्कृति की संरक्षा एवं सुरक्षा के लिए अनेक प्रयत्न होने के साथ विभिन्न झंझावातों से भी जूझने के भी उदाहरण है। यवनों, शकों, हूणों के द्वारा हमारी संस्कृति एवं मान ¨बदुओं पर प्रकार किए गए, ¨कतु वे इसे समाप्त नहीं कर पाए।
मोहम्मद इकबाल ने लिखा-
यूनान, मिस्त्र, रोम, सब मिट गए जहां से, क्या बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी
'मैं नहीं हम' को समझना भारतीयों के लिए अत्यंत सरल है, क्योंकि हमने मैं में नहीं हम में ही विश्वास किया है। भारतीय संस्कृति मैं का तात्पर्य अहं अर्थात अहंकार, गर्व एवं घमंड से है। जहां अहंकार है वहां विनाश भी है। महाभारत काल में अहं का पालनहार युवराज दुर्योधन बलशाली होते हुए भी सौ भाइयों के साथ महासमर में मृत्यु को प्राप्त होता है। वहीं, महाराज युधिष्ठिर वयं पंचाधिकंशतं अर्थात हम का पालन करने के कारण धर्मराज बनते हैं और विमान पर आरुद्ध होकर स्वर्ग जाते हैं।
रामायण काल में परम विद्वान पराक्रमी रावण का इसी अहं के कारण परिवारीजनों के समझाने के बाद भी मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के द्वारा वध कर दिया जाता है। कहा जाता है-एक लाख पूत सवा लाख नाती, तेहि रावण घर दिया न बाती। कारण मात्र अहंकार। वहीं दशरथ नंदन राम सामाजिक मर्यादा कुल की रीति का पालन करते हुए वानर, भालुओं को एकत्र कर संगठन अर्थात 'हम' की स्थापना करते हुए मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम बन जाते हैं।
कारण केवल 'मैं' नहीं 'हम' ही होता है। केवल 'मैं' ही बुद्धि और विवेक को समाप्त कर पतनोन्मुख बना देता है। कहा गया है कि-विनाश काले विपरीत बुद्धि: अर्थात विनाश के समय बुद्धि विपरीत परिणामकारी हो जाती है।
आध्यात्मिक ²ष्टि से यदि विचार करें तो संत कबीर ने कहा कि-जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि है मैं नाहि अर्थात जब हमारे अंत:करण में 'मैं' रूपी अज्ञात था, तब ईश्वर की प्राप्ति नहीं हो पायी अर्थात हमारे अंत:करण में ईश्वर तक प्रवेश नहीं कर पाया और मैं अज्ञानी बना रहा। परंतु अब ईश्वर का प्रवेश हुआ तो अहं (मैं) रूपी अज्ञान स्वत: ही समाप्त हो गया।
'मैं नहीं हम' का तात्पर्य व्यष्टि और समष्टि से भी है। मैं अर्थात व्यक्ति अर्थात व्यष्टि: हम अर्थात समाज अर्थात समष्टि। व्यष्टि अर्थात सूक्ष्म (जीव) समष्टि अर्थात व्यापक (परमात्मा) 'हरि व्यापक सर्वत्र समाना' इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है।
'मैं' अर्थात व्यक्ति के अंत:करण में वड् रिपु अर्थात छह शत्रु विद्यमान रहते हैं, जिनके कारण मैं का विलोपन संभव नहीं हो पाता है। अहं निरंतर बढ़ता चला जाता है। व्यक्ति के छह शत्रु काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर है, जो व्यक्ति को हम की ओर जाने से रोकते हैं। व्यक्ति अधमता की ओर शीघ्रता से बढ़ता है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी मानस में लिखा है-लोभी, लंपत, लोलुप, चारा, जे ताकहि परधन पर हारा।
ये दुर्गण सदैव अहं (मैं) से परिपूर्ण व्यक्ति में ही व्याप्त होते हैं। व्यक्ति अपनी इंद्रियों को वश में करके परम तत्व को प्राप्त कर सकता है। सदाचारी बनकर ईश्वर की प्राप्ति की जा सकती अर्थात समष्टि पूरक हो सकता है।
'हम' अर्थात समष्टि अर्थात समाज ही दुष्प्रवृत्तियों को दूर करने में सहायक है। सामाजिक संबंध, सामाजिक बंधन सामाजिक नियंत्रण, सामाजिक व्यवस्था ही दुर्गुणों को समाप्त कर सदगुणों की स्थापना करा सकती है। रामराज्य की परिकल्पना ही 'हम' का साकार स्वरूप है। गोस्वामी जी ने रामचरित मानस में लिखा कि रामराज्य में-
सब नर कर¨ह परस्पर प्रीती।
चलहि स्वधर्म निरत श्रुति नीती।।
यह परस्पर स्नेह 'मैं' (व्यष्टि) से 'हम' (समष्टि) बदलने का परम साधन है। धर्म परायणना ही विकास का मार्ग है। हमने कभी 'मैं' को नहीं अपितु 'हम' को ही स्थान दिया है। हमने सदैव मैं की संकीर्णता से दूर रहने का प्रयत्न किया है। हमने सदैव 'हम' का ही पोषण किया है-
अयं निज: परोवेति गणना, लघु चेतसाम
उदार चरितानांतु वसुधैव कुटुम्बकम।। यह 'मैं नहीं हम' का पोषक है।
आज के परिप्रेक्ष्य में जो जहर समाज में ऊंच नीच को घोला जा रहा है। यह शास्वत सत्य नहीं है। यह एकात्मता का भाव जाग्रत करने वाला नहीं है। समाज में विद्वेष फैलाने वाला है। यह 'हम' तत्व का पोषक न होकर स्वत्व अर्थात अहं (मैं) का पोषक है। स्वार्थपरता का सम्वाहक है। समाज को उसी मार्ग पर आना होगा, जहां मैं नहीं हम का भाव हो। प्रगति पथ तभी प्रशस्त होगा जब हम मैं नहीं हम के पूरक बनेंगे। यह देश तभी पुन: प्रतिष्ठा प्राप्त कर सकेगा। जब हम सर्वे भवंतु सुखिन: सर्वे संतु निरामया। सर्वे भद्राणि पश्यंतु मा कश्चित दु:ख भाग्भवेत।।
भारतीय संस्कृति की विशेषता का पालन करेंगे।
-उपासना शर्मा,
प्रधानाचार्य
अंगूरी देवी सरस्वती बालिका विद्या मंदिर इंटर कालेज, पीलीभीत।
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