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व्यक्ति को समाज से दूर करती है स्वार्थ की भावना

मनुष्य इच्छाओं का पुतला है। व्यावहारिक जीवन में अनेक आकांक्षाएं रहती है। स्वास्थ्य धन परिवार और यश की कामनाएं प्रत्येक मनुष्य में होती हैं। माता-पिता गुरु और मित्र का सहयोग प्राप्त कर व्यक्ति समाज में योग्यता हासिल करता है। स्वार्थ की भावना व्यक्ति को समाज और संगठन से दूर कर देती है। पद रुपया और प्रतिष्ठा की लालसा व्यक्ति के विकास में सबसे बड़ी बाधा बनकर उसे आगे नहीं बढ़ने देती है। अच्छे राष्ट्र के निर्माण के लिए शिक्षकों की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। समाज संगठन और राष्ट्र को मजबूती प्रदान करने के लिए निष्ठावान और कर्तव्यनिष्ठ लोगों की आवश्यकता होती है।

By JagranEdited By: Published: Thu, 22 Oct 2020 12:30 AM (IST)Updated: Thu, 22 Oct 2020 05:03 AM (IST)
व्यक्ति को समाज से दूर करती है स्वार्थ की भावना

पीलीभीत,जेएनएन : मनुष्य इच्छाओं का पुतला है। व्यावहारिक जीवन में अनेक आकांक्षाएं रहती है। स्वास्थ्य, धन, परिवार और यश की कामनाएं प्रत्येक मनुष्य में होती हैं। माता-पिता, गुरु और मित्र का सहयोग प्राप्त कर व्यक्ति समाज में योग्यता हासिल करता है। स्वार्थ की भावना व्यक्ति को समाज और संगठन से दूर कर देती है। पद, रुपया और प्रतिष्ठा की लालसा व्यक्ति के विकास में सबसे बड़ी बाधा बनकर उसे आगे नहीं बढ़ने देती है। अच्छे राष्ट्र के निर्माण के लिए शिक्षकों की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। समाज, संगठन और राष्ट्र को मजबूती प्रदान करने के लिए निष्ठावान और कर्तव्यनिष्ठ लोगों की आवश्यकता होती है।

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हर इंसान को निहित स्वार्थ से मुक्त होना चाहिए। महात्मा गौतम बुद्ध कहते हैं कि स्वार्थ, शक, छल, नफरत, जोश ये पांच चीजें है, जो हमेशा आपके दरवाजे पर खड़ी रहती है। तनिक सी लापरवाही की गई तो वह मनुष्य के अंदर प्रवेश कर जाती है और उसे खोखला कर देती है। स्वार्थ शब्द बना है-स्व अर्थात स्वयं से, यदि आपके स्वार्थ में केवल आप है तो आप वाकई स्वार्थी है, और आपके स्वार्थ में आपका परिवार है तो आप परिवार्थी है। अगर आपके स्वार्थ में लोग शामिल है तो आप परोकार्थी है। संपूर्ण संसार आपके स्वार्थ में निहित है तो आप परमार्थी है। तो हमें अपने स्वार्थ से दूर नहीं जाकर उसका विस्तार करना चाहिए।

दूसरों के प्रति नि:स्वार्थ सेवा का भाव रखना ही जीवन में कामयाबी का मूलमंत्र है। नि:स्वार्थ भाव से की गई सेवा से किसी का भी हृदय परिवर्तन किया जा सकता है। हमें अपने आचरण में सदैव सेवा का भाव निहित रखना चाहिए , जिससे अन्य लोग भी प्रेरित होते हुए कामयाबी के मार्ग पर अग्रसर हो सकें। सेवारत व्यक्ति सर्वप्रथम अपने, फिर अपने सहकर्मियों व अपने सेवायोजक के प्रति ईमानदार हो। इन स्तरों पर सेवाभाव में आई कमी मनुष्य को धीरे-धीरे पतन की ओर ले जाती है। सेवाभाव ही मनुष्य की पहचान बनाती है और उसकी मेहनत चमकती है। सेवाभाव हमारे लिए आत्मसंतोष का वाहक ही नहीं बनता बल्कि संपर्क में आने वाले लोगों के बीच भी अच्छाई के संदेश को स्वतरू उजागर करते हुए समाज को नई दिशा व दशा देने का काम करता है। जैसे गुलाब को उपदेश देने की जरूरत नहीं होती। वह तो केवल अपनी खुशबू बिखेरता है, उसकी खुशबू ही उसका संदेश है। ठीक इसी तरह खूबसूरत लोग हमेशा दयावान नहीं होते, लेकिन दयावान लोग हमेशा खूबसूरत होते हैं, यह सर्वविदित है। सामाजिक, आर्थिक सभी रूपों में सेवा भाव की अलग-अलग महत्ता है। बिना सेवाभाव के किसी भी पुनीत कार्य को अंजाम तक नहीं पहुंचाया जा सकता। सेवाभाव के जरिए समाज में व्याप्त कुरीतियों को जड़ से समाप्त करने के साथ ही आम लोगों को भी उनके सामाजिक दायित्वों के प्रति जागरूक किया जा सकता है। असल में सेवाभाव आपसी सद्भाव का वाहक बनता है। जब हम एक-दूसरे के प्रति सेवा भाव रखते हैं तब आपसी द्वेष की भावना स्वतरू समाप्त हो जाती है। हम सभी मिलकर कामयाबी के पथ पर अग्रसर होते हैं। सेवा से बड़ा कोई परोपकार इस विश्व में नहीं है। इसे मानव सहजता से अपने जीवन में अंगीकार कर सकता है। प्रारंभिक शिक्षा से लेकर हमारे अंतिम सेवा काल तक सेवा ही एक मात्र ऐसा आभूषण है, जो हमारे जीवन को सार्थक सिद्ध करने में अहम भूमिका निभाता है। बिना सेवा भाव विकसित किए मनुष्य जीवन को सफल नहीं बना सकता। स्वार्थी व्यक्ति लक्ष्य और सत्य से दूर हो जाता है। सफलता क्या है? इसका सीधा-सा जवाब है, अपने लक्ष्य को प्राप्त करना। प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन को दिशा देने के लिए कई लक्ष्यों का चुनाव करता है, जिसे प्राप्त कर लेने को सफलता माना जाता है। लक्ष्य प्राप्ति के लिए कुछ बातों का ध्यान रखना चाहिए, तभी आप अपने लक्ष्यों को पूरा कर सकते हैं।

कर्म से ऊपर कोई नहीं

इंसान को कभी अपने कर्तव्यों से मुंह नहीं मोड़ना चाहिए , उसका जीवन उसके कर्मों के आधार पर ही फल देगा, इसलिए कर्म करने में कभी हिचकना नहीं चाहिए। यह जीवन में स्थायित्व प्रदान करता है।

दूसरों की बातें नहीं, आत्मा है व्यक्ति की पहचान

गीता के एक श्लोक में भगवान कृष्ण ने मानव शरीर को मात्र एक कपड़े का टुकड़ा कहा है। ऐसा कपड़ा जिसे आत्मा हर जन्म में बदलती है। अर्थात मानव शरीर आत्मा का अस्थायी वस्त्र है, जिसे हर जन्म में बदला जाता है। इसका तात्पर्य यह है कि हमें शरीर से नहीं उसकी आत्मा से व्यक्ति की पहचान करनी चाहिए।

-बृजेश भट्ट, प्रधानाचार्य एसके पब्लिक इंटर कॉलेज मझोला पीलीभीत


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