महिला दिवस पर विशेष : ऊषा-सा तेज और जीत की आशा
आशीष धामा नोएडा ममता एक ऐसा शब्द है जिसमें मां का समर्पण और प्यार दिखाई सुनाई और महसूस होता है। किसी भी मां के लिए उसके बच्चे से अधिक कुछ नहीं होता। वहीं सेक्टर-30 स्थित जिला अस्पताल में कार्यरत दो बहनें ऊषा और आशा ने अपने फर्ज को ममता से भी ऊपर रखा।
आशीष धामा, नोएडा : ममता एक ऐसा शब्द है, जिसमें मां का समर्पण और प्यार दिखाई, सुनाई और महसूस होता है। किसी भी मां के लिए उसके बच्चे से अधिक कुछ नहीं होता। वहीं सेक्टर-30 स्थित जिला अस्पताल में कार्यरत दो बहनें ऊषा और आशा ने अपने फर्ज को ममता से भी ऊपर रखा। कोरोना संक्रमितों के बेहतर उपचार के लिए दोनों बहनों ने अपने सभी बच्चों को मायके भेज दिया। रोज नौ किलोमीटर पैदल चलकर घर से अस्पताल के बीच का सफर तय किया। करीब 12 घंटे की ड्यूटी, न कोई छुट्टी, न कोई थकान, सिर्फ एक ही धुन सवार थी कि महामारी के इस दौर में धरती के भगवान का कार्य अधूरा न रह जाए। ऊषा ने अपने बेटे और बेटी को करीब आठ माह स्वयं से दूर रखा, तो आशा एक साल बाद भी आज तक अपने इकलौते बेटे से दूर है। वजह कोरोना संक्रमितों के इलाज में कहीं कोई कमी न रह जाए। बेटे की तड़प में 120 किमी का सफर भी किया तय
अगस्त व सितंबर में एक ओर जहां कोरोना लोगों पर कहर बरपा रहा था, उस वक्त ऊषा के मन में सात वर्ष के बेटे से मिलने की तड़प उसे रुकने नहीं दे रही थी। दायित्व और मातृत्व के बीच फंसी ऊषा को जब कोई सहारा नजर नहीं आया, तो उन्होंने जिला अस्पताल से 60 किलोमीटर दूर बागपत के सांकरौद गांव में अपने बेटे से मिलने का मन बना लिया। जज्बे व हिम्मत की मिसाल पेश कर ऊषा ने एक माह तक स्कूटी पर नोएडा से बागपत का सफर तय किया। वह सुबह 6 बजे बागपत से नोएडा जिला अस्पताल के रवाना होती थी और रात को 10 बजे घर पहुंचकर अपने जिगर के टुकड़े (सात वर्षीय बेटे) के चेहरे की मुस्कान बनती थी। हालांकि कोरोना के डर से उसे छूने से भी डरती थी। ऊषा जिला अस्पताल के वैक्सीनेशन डिपार्टमेंट में बेसिक हेल्थ वर्कर (बीएचडब्ल्यू) है। फिलहाल वह कोरोना टीकाकरण में अहम भूमिका निभा रही हैं।
दोनों बहनें बनीं एक-दूजे का सहारा
आशा बड़ी, तो ऊषा छोटी बहन है। दोनों 13 वर्षों से जिला अस्पताल में कार्यरत हैं। आशा ने बताया कि लाकडाउन के दौरान उन्होंने सुबह व शाम दोनों शिफ्ट में काम किया। पति व बच्चों को बागपत भेज दिया और दोनों बहन अकेले ही नोएडा में रहीं। दोनों सुबह घर से निकल जाती थीं और रात में लौटती थीं। कई बार थकावट होने पर दोनों कदम-कदम पर एक-दूजे का साथ निभाती थीं। बच्चों को फोन वीडियो काल पर रोता देखती, तो उनकी आंखों में आंसूओं की बाढ़ आ जाती। बावजूद दोनों बहनों ने ममता से ऊपर फर्ज को समझा और दायित्व को पूरा करने का निर्णय लिया।
संकटकाल से मिली सीख
दोनों बहनों का कहना है कि उन्हें संकटकाल से बड़ी सीख मिली है। जिदगी को समझने का मौका मिला, तो वार्ड में संक्रमितों का दर्द समझा। अब भले ही जीवन में कितनी भी बड़ी चुनौती क्यों न हो, वह कदम पीछे नहीं हटाएंगी।