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बच्चे की रखवाली संग रोजी की जुगत में ई-रिक्शा से यारी, पढ़ें नोएडा के फाइटर गर्ल चंचल की कहानी

चंचल एक साल तीन माह के बच्चे की मां हैं। वह पति से अलग अपनी मां के साथ खोड़ा कालोनी में रहती हैं। मां भी सब्जी का ठेला लगाती हैं। वह बताती हैं कि अपना जीवन यापन करने के लिए कमाना जरूरी था।

By Ajay ChauhanEdited By: Prateek KumarPublished: Sun, 25 Sep 2022 05:16 PM (IST)Updated: Sun, 25 Sep 2022 05:16 PM (IST)
बच्चे की भी होती रहे देखभाल इसलिए शुरू किया ई-रिक्शा चलाना

नोएडा, जागरण संवाददाता। मेरी पूरी दुनिया मेरा बच्चा है। मैं सब कुछ उसी के लिए करती हूं। ई-रिक्शा चला रही हूं तो सिर्फ उसके लिए। अपने पेट तो पहले भी भर ही लेती थी, लेकिन अब उसकी देखभाल सबसे जरूरी है। मैं चाहती हूं कि वह हमेशा मेरी आंखों के सामने रहे। दूसरे काम के लिए पैसे नहीं है। इसलिए ई-रिक्शा चलाना शुरू किया। बच्चे को बेबी सीटर के सहारे गोद में बांध लेती हूं और फिर दोनों रोजी की तलाश में निकल जाते हैं। यह कहना है 27 वर्षीय ई-रिक्शा चालक चंचल शर्मा का।

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पति का नहीं मिला साथ तो खुद उठाई जिम्मेदारी

चंचल एक साल तीन माह के बच्चे की मां हैं। वह पति से अलग अपनी मां के साथ खोड़ा कालोनी में रहती हैं। मां भी सब्जी का ठेला लगाती हैं। वह बताती हैं कि अपना जीवन यापन करने के लिए कमाना जरूरी था। वह पहले भी एक निजी कंपनी में काम करती थीं, लेकिन बच्चा होने के बाद उनके सामने दोहरी चुनौती आ गई। बच्चे को कंपनी में नहीं ले जा सकती थी और एक जगह बैठने वाला अपना काम करने के लिए पैसे नहीं थे, तब उन्हें किराया पर ई-रिक्शा मिलने की जानकारी मिली।

बच्चे के लिए दूध-डायपर लेकर चलती हैं चंचल

एजेंसी वाले भी महिला चालक चाह रहे थे। इसलिए मात्र हजार रुपये की सिक्योरिटी मनी पर उनको तीन सौ रुपये प्रति दिन के दर से किराया पर ई-रिक्शा मिल गया। वहीं से बच्चे के लिए बेबी सीटर की जानकारी मिली। सेक्टर-62 लेबर चौक से एनआइबी चौकी वाले रूट पर सुबह करीब साढ़े सात से शाम आठ बचे तक चलती हैं। बच्चे के लिए दूध, डायपर, कपड़े, तौलिया आदि सामान साथ लेकर चलती हैं। मौसम ज्यादा खराब होता है तो उनको छुट्टी करनी पड़ती है। गर्मियों में वह बीच-बीच में बच्चे को लेकर पार्क में बैठ जाती हैं।

आधी कमाई किराए में हो जाती है खर्च

चंचल ई-रिक्शा के लिए प्रतिदिन तीन सौ रुपये किराया देती है। उनकी औसतन आमदनी छह से सात सौ रुपये होती है। आधी कमाई किराया में चली जाती है। उसके बाद जो पैसा बचता है वह इतना नहीं होता है कि कुछ बचत हो सके। ऐसे में अपना ई-रिक्शा खरीदने के लिए कोई व्यवस्था नहीं बना पा रही है। अब जब तक बच्चा कुछ बड़ा नहीं हो जाता तब तक मजबूरी भी है। कुछ लोगों ने ई-रिक्शा खरीदने में मदद की बात करते हैं, लेकिन अभी तक हो नहीं पाई है।

हर समय लगा रहता है डर

चंचल बताती है कि वैसे तो बच्चे को लेकर ई-रिक्शा चलाने की आदत हो गई है लेकिन डर हर समय लगा रहता है। सड़क पर कभी भी कुछ हो सकता है। ई-रिक्शा भी तीन पहिया होने से पलटने का भी डर रहता है। कोई विकल्प नहीं होने के कारण काम के साथ बच्चे को साथ चलना मजबूरी है। वह दूसरी महिलाओं की तरह काम नहीं छोड़ सकती है और किसी को देखभाल के लिए भी रखने की स्थिति में नहीं है।

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