BOOK REVIEW : सामाजिक और नैतिक मूल्यों का आभास कराती है स्पंदन Moradabad News
पुस्तक में प्रेषित कविताओं की विषय-वस्तु एक व्यक्ति विशेष के हृदय की कुंठा पर आधारित न होकर भारत वर्ष के प्रत्येक नागरिक की मनोदशा को दर्शाती है।
मुरादाबाद, जेएनएन। कल्पनाओं के चमकीले आसमान से इतर वास्तविकता के पथरीले धरातल पर गढ़ी गई वरिष्ठ साहित्यकार अशोक विश्नोई जी की कृति स्पंदन जीवन के सामाजिक व नैतिक मूल्यों का उसी प्रकार आभास कराती है जिस प्रकार गर्भ में निहित शिशु रह रहकर अपने अस्तित्व का संदेश देता है।
विश्नोई जी की उत्कृष्ट लेखनी से निकली प्रत्येक मुक्त छंद रचना व्यंगात्मक रूप लेकर आधुनिक समाज को आइना दिखाते हुए, पाठकों को एक प्रश्न चिह्न के साथ छोड़ देती है और आत्मचिंतन के लिए विवश कर देती है। तभी तो पुस्तक पढ़ते हुए मेरा मन अनायास ही कह उठा
ऐसे ये मन के उद्गारों का मंथन करता है। जैसे गर्भित शिशु कोई स्पंदन करता है
होता है जब ये मन सद्भावों से सुरभित
तब तब महका जीवन का ये चंदन करता है
पुस्तक में प्रेषित कविताओं की विषय-वस्तु एक व्यक्ति विशेष के हृदय की कुंठा पर आधारित न होकर भारत वर्ष के प्रत्येक नागरिक की मनोदशा को दर्शाती है।
कवि मूलत: हास्य-व्यंग्य का कवि है तथा उनकी हर रचना किसी न किसी रूप में समाज पर केंद्रित है। व्यंग्य के माध्यम से कवि ने समाज के आंखों पर चढ़ीं भ्रम की काली पट्टी उतार कर दूध से धवल सत्य को दिखाने का पूर्ण प्रयास किया है।
एक बानगी देखिए...
हे,
माटी के चिकने घड़े
तुझ पर इस सियायती
मानव का प्रभाव
दिनप्रति दिन क्यों
बढ़ रहा है?
कहीं तेरा
अस्तित्व तो
नहीं घट रहा....
अपनी कविताओं के माध्यम से कवि ने राजनैतिक दायित्वों के साथ साथ सामाजिक व नैतिक दायित्वों को भी बड़े ही रोचक ढंग से पूर्ण किया है।
कवि की एक कविता मन-मस्तिष्क को झंझोड़ देती है। जिसमे कवि राजनेताओं पर तंज कसते हुए कहता है कि...
शब्दों के तीर
मारते समय
उसके विशाल हृदय की गहराई
नापने में गलती हो गई
मुझे
बाद में पता चला
कि,
हजारों पत्थर पडऩे के बाद भी
उसकी मुस्कुराहट में
कोई अंतर न था
क्योंकि
चुनाव नजदीक था..
कवि ने अपनी कई रचनाओं में इन अव्यवस्थाओं का दोषी विकृत राजनीति को माना तो है, परंतु कहीं भी केवल राजनीति के सिर पर छींका फोड़कर अपने दायित्वों से पल्ला नहीं झाड़ा। उसने अपने को एक जिम्मेदार नागरिक मानते हुए अव्यवस्थाओं में सुधार की अपेक्षित संभावनाएं प्रेषित की हैं।
कविता की इन पंक्तियों को ही लीजिए...
आज
सत्ताधारी गांधारी की
आंखों पर पट्टी बंधी
हुई है, और
वह वादों की बैसाखियों
के सहारे लडख़ड़ाते हुए चल रही है
वह वादों की आड़ में
राजनीति की चौसर
खेलने में व्यस्त है
जनता उसकी मोहरें
बन चुकी है
कवि ने बड़ी ही चतुराई से जहां एक ओर इतिहास को वर्तमान से जोड़ा है, वहीं दूसरी ओर उतने ही चातुर्य के साथ इतिहास से सबक लेते हुए, समाज को उज्जवल भविष्य के लिए प्रेरित भी किया है। साथ ही कवि ने अपनी कई रचनाओं में -अस्तित्व खोती हुई सभ्यता, संवेदना-विहीन होती मानवता, गिरती हुई नैतिकता तथा कुपोषित अर्थव्यवस्था जैसे आसुरिक रूप लेने वाले कई विषयों पर व्यंग के माध्यम से करारा प्रहार किया है। पुस्तक की भाषा बहुत ही सहज एवं सरल है। प्रत्येक रचना आरंभ से अंत तक, एक झरने की भांति अपने प्रवाह में तीव्र वेग लिए है। अत: कविता के उबाऊ होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता, बल्कि इसके विपरीत जिज्ञासा वश मन कविता का विस्तार करने पर आतुर हो जाता है।
यद्यपि, ये कहना सही है कि कविताओं पर शीर्षक का न होना कहीं कहीं अखरता है तथापि यह भी समझना पड़ेगा कि कवि ने अपनी कृति में जिस प्रकार जन साधारण के मन को परिभाषित किया है ऐसे में हृदय में समाहित विशाल वेदना के सागर को किसी उन्वान में बांधना कवि के लिए असहज रहा होगा।
पुस्तक की भाषा व विषय व्यवाहरिक होने के कारण पाठक को एकाग्रता से बांधे रखते हैं, संभावित हल खोजने के साथ साथ पूर्ण मनोरंजन भी करते हैं।
अत : यह कहना सर्वथा उचित होगा कि अशोक विश्नोई जी की यह कृति स्पंदन न केवल हिंदी साहित्य जगत में व्यंग्य विधा की रिक्तता को पूर्ण करेगी अपितु एक सुव्यवस्थित ,सुदृढ़ समाज के निर्माण में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगी।
समीक्ष्य कृति स्पंदन(कविता संग्रह)
कवि अशोक विश्नोई
प्रकाशक विश्व पुस्तक प्रकाशन, दिल्ली
प्रकाशन वर्ष 2018
मूल्य 150
समीक्षक मोनिका शर्मा मासूम