हाईकोर्ट बेंच : इंसाफ दूर बैठा है, कोई नजदीक लाएगा क्या
मेरठ को हाईकोर्ट बेंच की दरकार है। प्रदेश का सबसे अहम हिस्सालगभग सात करोड़ की आबादी वाला यह क्षेत्र खंडपीठ की मांग पिछले चार दशक से करता आ रहा है।
By Ashu SinghEdited By: Published: Tue, 02 Apr 2019 03:36 PM (IST)Updated: Tue, 02 Apr 2019 03:36 PM (IST)
मेरठ, [रवि प्रकाश तिवारी] । न्याय सुलभ हो,समय से मिले और न्याय को हासिल करने में अर्थ की कमी आड़े न आए। यही न्याय की अवधारणा भी है,लेकिन पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लोगों के लिए यह महज कहावत बनकर रह गई है। इंसाफ के लिए न सिर्फ लंबी दूरी तय करनी पड़ती है बल्कि वक्त और अनावश्यक रूप से धन की बर्बादी होती है। प्रदेश का सबसे अहम हिस्सा,लगभग सात करोड़ की आबादी वाला यह क्षेत्र खंडपीठ की मांग पिछले चार दशक से करता आ रहा है लेकिन पूरब की लॉबी के आगे सरकारें मौन हो जाती हैं।
राजनीतिक इच्छाशक्ति जरूरी
पश्चिमी उप्र में राजनीतिक रसूख वाला कोई है नहीं,जो पूरब के दबाव को कम कर सके या यहां की जनता की मांगों का दबाव लखनऊ से दिल्ली तक के बीच बना सके। इलाहाबाद हाईकोर्ट में लगभग 52 फीसद मुकदमे पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लंबित हैं। इसके बावजूद यहां की मांग पर कोई सुनवाई नहीं। हाईकोर्ट को लेकर भाजपा कभी केंद्र में न होने तो कभी प्रदेश में न होने का बहाना बनाकर जनता को बहलाती रही लेकिन पिछले दो वर्ष से प्रदेश-केंद्र दोनों में भाजपा सत्तासीन रही। मेरठ मुजफ्फरनगर के चार सांसदों ने संसद में मुद्दा भी उठाया, लेकिन हाथ अब भी खाली ही हैं। एक बार फिर चुनावी बिसात पर हाईकोर्ट को मोहरा बनाकर विपक्ष जहां भाजपा को घेरने में जुटा है, वहीं भाजपा इस बार बेंच की मांग को पूरा कराने का भरोसा दिला रही है।
सुलभ और सस्ते न्याय की दरकार
जनता के लिए सस्ता एवं सुलभ न्याय भारतीय संविधान की आत्मा है। यह सूत्रवाक्य महत्वपूर्ण है, लेकिन इसका अमल उत्तर प्रदेश में हो रहा है, यह नहीं कहा जा सकता। पश्चिमी उप्र की जनता के लिए न्याय न सस्ता रह गया है, न ही सुलभ। इसके समाधान की खातिर पश्चिम ने अपनी मांग सड़क से संसद तक पहुंचाई, लेकिन हमें सिर्फ आश्वासनों का झुनझुना ही थमाया गया। यह सच है कि हाईकोर्ट बेंच स्थापित करने का हर तर्क पश्चिमी उप्र की जनता के पक्ष में है। चाहे क्षेत्रफल और आबादी का आंकड़ा हो या फिर जिला मुख्यालयों से हाईकोर्ट की दूरी। पश्चिमी उप्र के वकीलों के दावों के मुताबिक इलाहाबाद हाईकोर्ट में 24 लाख से अधिक मसले अकेले पश्चिमी उप्र के हैं।
अन्य राज्यों में बेंच की स्थिति
22 करोड़ से ज्यादा आबादी वाले देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश के लिए एक हाईकोर्ट इलाहाबाद में और खंडपीठ केवल लखनऊ में है, जबकि कई अन्य राज्यों में कम जनसंख्या व क्षेत्रफल के बावजूद हाईकोर्ट की अधिक बेंच हैं। उदाहरण के तौर पर मध्यप्रदेश, बिहार और महाराष्ट्र को ही लें तो यहां आबादी लगभग 12 करोड़ के आसपास है, फिर भी वहां दो-दो खंडपीठ स्थापित हैं। महाराष्ट्र को तो कोल्हापुर के रूप में तीसरी खंडपीठ भी पिछले वर्ष मिल गई है। पश्चिम बंगाल में भी अब तीसरी बेंच जलपाईगुड़ी में दे दी गई है। इसी तरह लगभग साढ़े पांच करोड़ की जनसंख्या वाले राजस्थान में भी खंडपीठ है। ऐसे कई उदाहरण हैं, जो पश्चिमी उप्र के हक में गवाही देते हैं। मेरठ से इलाहाबाद हाईकोर्ट की दूरी तो पड़ोसी देश पाकिस्तान के लाहौर हाईकोर्ट से भी ज्यादा बैठती है।
जनता के साथ अन्याय
इन तथ्यों के बावजूद लगभग सात करोड़ की आबादी पार करने वाले वेस्ट यूपी को खंडपीठ का न मिल पाना क्षेत्र की जनता के साथ अन्याय ही तो है। क्षेत्रफल के नजरिए से देखें तो पश्चिमी उत्तर प्रदेश का क्षेत्रफल 98 हजार 933 वर्ग किमी है, जो पूरे प्रदेश का 33.61 फीसद है। वेस्ट यूपी का अधिक क्षेत्रफल होने के बाद भी मध्य क्षेत्र को लखनऊ खंडपीठ महज 62 हजार 363 वर्ग किमी पर ही दे दी गई है। मेरठ की अगुवाई में 22 जिलों के वकील 1980 से लगातार आंदोलनरत हैं। रेल रोकने, मेरठ बंद, संसद मार्च, धरना-प्रदर्शन के साथ शनिवार को लंबे समय से कचहरी बंद करने जैसे कई कदम भी उठाए गए लेकिन सफलता अब तक न मिल सकी।
मेरठ में बेंच बनने से ही बनेगी बात
खंडपीठ को लेकर एक और सवाल उठता है। मेरठ सहित 22 जिलों के वकील मेरठ में बेंच को लेकर सहमत हैं, लेकिन आगरा और उसके आसपास के जिलों के वकील अपना अलग राग छेड़े हुए हैं। इस विवाद के बीच अगर पश्चिमी उप्र के जिलों से मेरठ और आगरा के बीच की दूरी को परखें तो सात-आठ जिलों को छोड़ शेष सभी के लिए मेरठ ही मुफीद है। खंडपीठ की स्थापना के पीछे का मकसद भी यही है कि न्याय की खातिर अदालत की दूरी कम की जाए और यह तभी संभव है जब मेरठ में बेंच बने। आंकड़े इसकी गवाही दे रहे हैं।
बेंच देने के लिए केंद्र सरकार ही सक्षम
पश्चिमी उप्र में हाईकोर्ट बेंच की स्थापना के लिए केवल केंद्र सरकार ही सक्षम है। वह संसद में प्रस्ताव लाकर हाईकोर्ट बेंच की घोषणा कर सकती है। पश्चिमी उप्र में हाईकोर्ट बेंच की स्थापना के लिए प्रदेश सरकार के किसी प्रस्ताव की आवश्कता नहीं है और न ही हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की संस्तुति की आवश्यकता है। इस बारे में केंद्र सरकार अटार्नी जनरल की विधिक राय पूर्व में प्राप्त कर चुकी है। देश के तीन राज्यों उत्तर प्रदेश, बिहार तथा जम्मू एंड कश्मीर में केवल केंद्र सरकार ही सीधे बेंच दे सकती है। स्टेट री-आर्गेनाइजेशन एमलगमेशन एक्ट 1956 सेक्शन 51 के तहत सरकार संसद में प्रस्ताव लाकर हाईकोर्ट बेंच की स्थापना की घोषणा कर सकती है। केंद्र सरकार को किसी के प्रस्ताव अथवा संस्तुति की आवश्यकता नहीं है। माननीय उच्चतम न्यायालय की संपूर्ण पीठ ने भी ‘नसीरुद्दीन बनाम स्टेट ट्रांसपोर्ट अपीलेट टिब्यूनल’ रिपोर्टिड इन 1997 एआइआर (सुप्रीम कोर्ट) पेज संख्या 331 में यूनाईटिड प्रोविन्स हाईकोर्ट्स (एमलगमेशन) आर्डर 1948 पैरा सात एवं 14 में भी बेंच बनाने की विस्तृत व्याख्या की है।
बेंच की स्थापना हो,डॉक्टर संपूर्णानंद भी सहमत थे
उप्र की सरकार भी हमेशा पश्चिमी उप्र में बेंच की स्थापना की मांग से सहमत रही है। आजादी के बाद राज्य पुनर्गठन के समय उप्र के विभाजन की मांग को नकारते हुए तत्कालीन मुख्यमंत्री ने आश्वासन दिया था कि पश्चिमी उप्र में हाईकोर्ट की बेंच स्थापित की जाएगी। इसके बाद डा. सम्पूर्णानंद के मुख्यमंत्रीत्व काल में उप्र में बेंच की स्थापना के लिए नियमानुसार प्रस्ताव पारित कर केंद्र सरकार को भेजा गया। वर्ष 1976 में पूर्व मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी ने दुबारा बेंच की स्थापना का प्रस्ताव पारित किया। जनता शासन में राम नरेश यादव की सरकार ने भी इस मांग पर मुहर लगाई। पारित यह प्रस्ताव को केंद्र सरकार को भेजा। इसके बाद बनारसी दास सरकार एवं पूर्व मुख्यमंत्री मायावती के कार्यकाल में भी एक प्रस्ताव पारित कर हाईकोर्ट बेंच की स्थापना की मांग को संस्तुति प्रदान की गई तथा प्रस्ताव केंद्र सरकार को भेजा। केवल सपा सरकार बेंच के पक्ष में नहीं रही है।
इनका कहना है
हम हाईकोर्ट बेंच की मांग सड़क से संसद तक उठा चुके हैं। शांतिप्रिय ढंग से बात रखनी हो या फिर आंदोलन, सभी तरीके अपना लिए गए। समय भी चार दशक बीत चुका है। हमें हाईकोर्ट बेंच न मिल पाने में हमारे जनप्रतिनिधियों की राजनीतिक इच्छाशक्ति का कम होना मुख्य वजह है। लेकिन वकील पीछे नहीं हटेंगे। जनता की इस मांग को जनांदोलन फिर से बनाएंगे, हाईकोर्ट बेंच हासिल करके रहेंगे।
-राजेंद्र सिंह जानी, अध्यक्ष, मेरठ बार एसोसिएशन एवं केंद्रीय संघर्ष समिति के चेयरमैन
यह पश्चिम के वकीलों व जनता की बहुत पुरानी मांग है। कई दशक मांग करते-करते बीत गए तथा कई सरकारें बदल चुकी हैं। सभी पार्टियां केंद्र व प्रदेश में रह चुकी हैं लेकिन वकीलों की बेंच की स्थापना की मांग को अनदेखा किया जाता रहा है। बेंच की मांग जारी रहेगी और आंदोलन सख्ती से चलाया जाता रहेगा।
-देवकी नंदन शर्मा, महामंत्री, मेरठ बार एसोसिएशन एवं केंद्रीय संघर्ष समिति के संयोजक
बेंच को लेकर हमने संसद में काफी प्रयास किया। हमारी सरकार भी इसे लेकर संवेदनशील रही है। सस्ता और सुलभ न्याय की खातिर उप्र में एक नहीं तीन बेंच की जरूरत है। मुझे विश्वास है कि हाईकोर्ट बेंच का मुद्दा जो पिछले कार्यकाल में पूरा नहीं हो सका, उसे इस बार मोदीजी की सरकार पूरा कर पश्चिमी उप्र को रिटर्न गिफ्ट देगी।
-राजेंद्र अग्रवाल, सांसद
राजनीतिक इच्छाशक्ति जरूरी
पश्चिमी उप्र में राजनीतिक रसूख वाला कोई है नहीं,जो पूरब के दबाव को कम कर सके या यहां की जनता की मांगों का दबाव लखनऊ से दिल्ली तक के बीच बना सके। इलाहाबाद हाईकोर्ट में लगभग 52 फीसद मुकदमे पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लंबित हैं। इसके बावजूद यहां की मांग पर कोई सुनवाई नहीं। हाईकोर्ट को लेकर भाजपा कभी केंद्र में न होने तो कभी प्रदेश में न होने का बहाना बनाकर जनता को बहलाती रही लेकिन पिछले दो वर्ष से प्रदेश-केंद्र दोनों में भाजपा सत्तासीन रही। मेरठ मुजफ्फरनगर के चार सांसदों ने संसद में मुद्दा भी उठाया, लेकिन हाथ अब भी खाली ही हैं। एक बार फिर चुनावी बिसात पर हाईकोर्ट को मोहरा बनाकर विपक्ष जहां भाजपा को घेरने में जुटा है, वहीं भाजपा इस बार बेंच की मांग को पूरा कराने का भरोसा दिला रही है।
सुलभ और सस्ते न्याय की दरकार
जनता के लिए सस्ता एवं सुलभ न्याय भारतीय संविधान की आत्मा है। यह सूत्रवाक्य महत्वपूर्ण है, लेकिन इसका अमल उत्तर प्रदेश में हो रहा है, यह नहीं कहा जा सकता। पश्चिमी उप्र की जनता के लिए न्याय न सस्ता रह गया है, न ही सुलभ। इसके समाधान की खातिर पश्चिम ने अपनी मांग सड़क से संसद तक पहुंचाई, लेकिन हमें सिर्फ आश्वासनों का झुनझुना ही थमाया गया। यह सच है कि हाईकोर्ट बेंच स्थापित करने का हर तर्क पश्चिमी उप्र की जनता के पक्ष में है। चाहे क्षेत्रफल और आबादी का आंकड़ा हो या फिर जिला मुख्यालयों से हाईकोर्ट की दूरी। पश्चिमी उप्र के वकीलों के दावों के मुताबिक इलाहाबाद हाईकोर्ट में 24 लाख से अधिक मसले अकेले पश्चिमी उप्र के हैं।
अन्य राज्यों में बेंच की स्थिति
22 करोड़ से ज्यादा आबादी वाले देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश के लिए एक हाईकोर्ट इलाहाबाद में और खंडपीठ केवल लखनऊ में है, जबकि कई अन्य राज्यों में कम जनसंख्या व क्षेत्रफल के बावजूद हाईकोर्ट की अधिक बेंच हैं। उदाहरण के तौर पर मध्यप्रदेश, बिहार और महाराष्ट्र को ही लें तो यहां आबादी लगभग 12 करोड़ के आसपास है, फिर भी वहां दो-दो खंडपीठ स्थापित हैं। महाराष्ट्र को तो कोल्हापुर के रूप में तीसरी खंडपीठ भी पिछले वर्ष मिल गई है। पश्चिम बंगाल में भी अब तीसरी बेंच जलपाईगुड़ी में दे दी गई है। इसी तरह लगभग साढ़े पांच करोड़ की जनसंख्या वाले राजस्थान में भी खंडपीठ है। ऐसे कई उदाहरण हैं, जो पश्चिमी उप्र के हक में गवाही देते हैं। मेरठ से इलाहाबाद हाईकोर्ट की दूरी तो पड़ोसी देश पाकिस्तान के लाहौर हाईकोर्ट से भी ज्यादा बैठती है।
जनता के साथ अन्याय
इन तथ्यों के बावजूद लगभग सात करोड़ की आबादी पार करने वाले वेस्ट यूपी को खंडपीठ का न मिल पाना क्षेत्र की जनता के साथ अन्याय ही तो है। क्षेत्रफल के नजरिए से देखें तो पश्चिमी उत्तर प्रदेश का क्षेत्रफल 98 हजार 933 वर्ग किमी है, जो पूरे प्रदेश का 33.61 फीसद है। वेस्ट यूपी का अधिक क्षेत्रफल होने के बाद भी मध्य क्षेत्र को लखनऊ खंडपीठ महज 62 हजार 363 वर्ग किमी पर ही दे दी गई है। मेरठ की अगुवाई में 22 जिलों के वकील 1980 से लगातार आंदोलनरत हैं। रेल रोकने, मेरठ बंद, संसद मार्च, धरना-प्रदर्शन के साथ शनिवार को लंबे समय से कचहरी बंद करने जैसे कई कदम भी उठाए गए लेकिन सफलता अब तक न मिल सकी।
मेरठ में बेंच बनने से ही बनेगी बात
खंडपीठ को लेकर एक और सवाल उठता है। मेरठ सहित 22 जिलों के वकील मेरठ में बेंच को लेकर सहमत हैं, लेकिन आगरा और उसके आसपास के जिलों के वकील अपना अलग राग छेड़े हुए हैं। इस विवाद के बीच अगर पश्चिमी उप्र के जिलों से मेरठ और आगरा के बीच की दूरी को परखें तो सात-आठ जिलों को छोड़ शेष सभी के लिए मेरठ ही मुफीद है। खंडपीठ की स्थापना के पीछे का मकसद भी यही है कि न्याय की खातिर अदालत की दूरी कम की जाए और यह तभी संभव है जब मेरठ में बेंच बने। आंकड़े इसकी गवाही दे रहे हैं।
बेंच देने के लिए केंद्र सरकार ही सक्षम
पश्चिमी उप्र में हाईकोर्ट बेंच की स्थापना के लिए केवल केंद्र सरकार ही सक्षम है। वह संसद में प्रस्ताव लाकर हाईकोर्ट बेंच की घोषणा कर सकती है। पश्चिमी उप्र में हाईकोर्ट बेंच की स्थापना के लिए प्रदेश सरकार के किसी प्रस्ताव की आवश्कता नहीं है और न ही हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की संस्तुति की आवश्यकता है। इस बारे में केंद्र सरकार अटार्नी जनरल की विधिक राय पूर्व में प्राप्त कर चुकी है। देश के तीन राज्यों उत्तर प्रदेश, बिहार तथा जम्मू एंड कश्मीर में केवल केंद्र सरकार ही सीधे बेंच दे सकती है। स्टेट री-आर्गेनाइजेशन एमलगमेशन एक्ट 1956 सेक्शन 51 के तहत सरकार संसद में प्रस्ताव लाकर हाईकोर्ट बेंच की स्थापना की घोषणा कर सकती है। केंद्र सरकार को किसी के प्रस्ताव अथवा संस्तुति की आवश्यकता नहीं है। माननीय उच्चतम न्यायालय की संपूर्ण पीठ ने भी ‘नसीरुद्दीन बनाम स्टेट ट्रांसपोर्ट अपीलेट टिब्यूनल’ रिपोर्टिड इन 1997 एआइआर (सुप्रीम कोर्ट) पेज संख्या 331 में यूनाईटिड प्रोविन्स हाईकोर्ट्स (एमलगमेशन) आर्डर 1948 पैरा सात एवं 14 में भी बेंच बनाने की विस्तृत व्याख्या की है।
बेंच की स्थापना हो,डॉक्टर संपूर्णानंद भी सहमत थे
उप्र की सरकार भी हमेशा पश्चिमी उप्र में बेंच की स्थापना की मांग से सहमत रही है। आजादी के बाद राज्य पुनर्गठन के समय उप्र के विभाजन की मांग को नकारते हुए तत्कालीन मुख्यमंत्री ने आश्वासन दिया था कि पश्चिमी उप्र में हाईकोर्ट की बेंच स्थापित की जाएगी। इसके बाद डा. सम्पूर्णानंद के मुख्यमंत्रीत्व काल में उप्र में बेंच की स्थापना के लिए नियमानुसार प्रस्ताव पारित कर केंद्र सरकार को भेजा गया। वर्ष 1976 में पूर्व मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी ने दुबारा बेंच की स्थापना का प्रस्ताव पारित किया। जनता शासन में राम नरेश यादव की सरकार ने भी इस मांग पर मुहर लगाई। पारित यह प्रस्ताव को केंद्र सरकार को भेजा। इसके बाद बनारसी दास सरकार एवं पूर्व मुख्यमंत्री मायावती के कार्यकाल में भी एक प्रस्ताव पारित कर हाईकोर्ट बेंच की स्थापना की मांग को संस्तुति प्रदान की गई तथा प्रस्ताव केंद्र सरकार को भेजा। केवल सपा सरकार बेंच के पक्ष में नहीं रही है।
इनका कहना है
हम हाईकोर्ट बेंच की मांग सड़क से संसद तक उठा चुके हैं। शांतिप्रिय ढंग से बात रखनी हो या फिर आंदोलन, सभी तरीके अपना लिए गए। समय भी चार दशक बीत चुका है। हमें हाईकोर्ट बेंच न मिल पाने में हमारे जनप्रतिनिधियों की राजनीतिक इच्छाशक्ति का कम होना मुख्य वजह है। लेकिन वकील पीछे नहीं हटेंगे। जनता की इस मांग को जनांदोलन फिर से बनाएंगे, हाईकोर्ट बेंच हासिल करके रहेंगे।
-राजेंद्र सिंह जानी, अध्यक्ष, मेरठ बार एसोसिएशन एवं केंद्रीय संघर्ष समिति के चेयरमैन
यह पश्चिम के वकीलों व जनता की बहुत पुरानी मांग है। कई दशक मांग करते-करते बीत गए तथा कई सरकारें बदल चुकी हैं। सभी पार्टियां केंद्र व प्रदेश में रह चुकी हैं लेकिन वकीलों की बेंच की स्थापना की मांग को अनदेखा किया जाता रहा है। बेंच की मांग जारी रहेगी और आंदोलन सख्ती से चलाया जाता रहेगा।
-देवकी नंदन शर्मा, महामंत्री, मेरठ बार एसोसिएशन एवं केंद्रीय संघर्ष समिति के संयोजक
बेंच को लेकर हमने संसद में काफी प्रयास किया। हमारी सरकार भी इसे लेकर संवेदनशील रही है। सस्ता और सुलभ न्याय की खातिर उप्र में एक नहीं तीन बेंच की जरूरत है। मुझे विश्वास है कि हाईकोर्ट बेंच का मुद्दा जो पिछले कार्यकाल में पूरा नहीं हो सका, उसे इस बार मोदीजी की सरकार पूरा कर पश्चिमी उप्र को रिटर्न गिफ्ट देगी।
-राजेंद्र अग्रवाल, सांसद
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