दोधारी तलवार है नागरिकता संशोधन विधेयक, झेलने पड़ सकते हैं नुकसान
जागरण विचार गोष्ठी में नागरिकता संशोधन विधेयक का विरोध कितना सही विषय पर अभिषेक शर्मा की राय।
By Taruna TayalEdited By: Published: Tue, 29 Jan 2019 03:02 PM (IST)Updated: Tue, 29 Jan 2019 03:02 PM (IST)
मेरठ, [दुर्गेश तिवारी]। हमारा संविधान उन्हें भी कुछ मौलिक अधिकार देता है, जो हमारे नागरिक नहीं हैं। संविधान का भाग दो संसद को नागरिकता के बारे में नियम बनाने की अनुमति देता है। इसी के तहत 1955 का अधिनियम बनाया गया। इस कानून के तहत ही हमारी नागरिकता के मामले देखे जाते हैं। इसके मुताबिक नागरिकता देने के दो जाने-माने सिद्धांत हैं। जस सोलिस यानी जन्म स्थान के आधार पर और जस सैंगुनस यानि रक्त-संबंध के आधार पर। नागरिकता को लेकर समय समय पर संशोधन भी होता रहा है। जिस दिन लोकसभा में आर्थिक आधार पर 10 फीसद आरक्षण का बिल लोकसभा से पास हुआ, उसी दिन मौजूदा केंद्र सरकार ने भी बड़ी चतुराई से नागरिकता संशोधन विधेयक को भी पारित करा लिया।
राज्यसभा में लंबित है बिल
यह विधेयक अभी राज्यसभा में लंबित है, बावजूद इसका विरोध शुरू हो गया है। खासकर पूवरेत्तर के राज्यों में। यहां तक कि असम के मुख्यमंत्री भी विरोध कर रहे हैं। अब सवाल यह उठता है कि नागरिकता संशोधन विधेयक को विरोध कितना सही है? दैनिक जागरण की इस सोमवार की अकादमिक गोष्ठी में इसी विषय पर विमर्श हुआ। वक्ता थे सिविल एकेडमी के निदेशक अभिषेक शर्मा। तो आइए समझते हैं कि यह विधेयक क्या है? इसका विरोध क्यों हो रहा है?
क्या है नया संशोधन
2019 के विधेयक के मुताबिक, पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से छह समुदायों हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई धर्मो के लोग अगर भारत आए, तो उन्हें भारतीय नागरिक माना जाएगा। इसने नागरिकता के लिए जरूरी 11 साल के निवास को घटाकर भी सिर्फ छह साल कर दिया है।
विरोध की वजह
नागरिकता अधिनियम में अधिकांश संशोधन भारत-बांग्लादेश को लेकर थे, क्योंकि पूर्वी क्षेत्र से भारत में बड़े पैमाने पर पलायन जारी था। इस घुसपैठ के खिलाफ असमिया आंदोलन के परिणामस्वरूप 15 अगस्त 1985 को ऐतिहासिक असम समझौता हुआ। इस समझौते के जरिए सरकार ने असमिया लोगों को आश्वासन दिया कि उनकी सांस्कृतिक, सामाजिक और भाषाई पहचान की सुरक्षा और संरक्षण अवश्य करेगी। इसके बाद 1986 के नागरिकता संशोधन विधेयक के तहत यह तय किया गया कि 1966 के पहले तक जो भी लोग असम के निवासी थे, उन्हें भारतीय नागरिक माना जाएगा। 1966 से लेकर 1971 तक जो लोग पलायन करके आए हैं, उन्हें दस साल तक विदेशी नागरिक के रूप में अपनी पहचान रखने के बाद पंजीकरण का अधिकार प्राप्त होगा। 1971 के बाद आने वाले प्रवासियों को उनके देश में निर्वासित किया जाएगा।
पहचान मिटने का भय
अवैध नागरिकों को निर्वासित करने में तमाम जटिलताएं हैं। बांग्लादेश कह चुका है कि उसका कोई भी नागरिक अवैध रूप से भारत में नहीं रह रहा है। कोई पलायन भी नहीं हो रहा है। लेकिन, अगर आंकड़े देखें तो पूवरेत्तर में जनसंख्या विस्फोट लगातार बढ़ रहा है। असम में सैकड़ों संगठन अब इस बिल के खिलाफ आवाज उठा रहे हैं, क्योंकि इससे अवैध बांग्लादेशी हिंदू प्रवासी नागरिक बन जाएंगे। असमिया लोगों को डर है कि अपने ही घर में अल्पसंख्यक बनकर रह जाएंगे। उनका विरोध बांग्लादेशी हिंदुओं के साथ-साथ बांग्लादेशी मुसलमानों के प्रति भी है। उनका मानना है कि भारत सरकार को अल्पसंख्यकों की चिंता तो है लेकिन, हमारे अल्पसंख्यक बन जाने की नहीं है। हालांकि केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने यह आश्वासन दिया है कि जो भी प्रवासियों का बोझ बढ़ेगा उसे पूरे देश में बांटा जाएगा। नागरिकता भी उन्हें ही दी जाएगी जिनकी स्थानीय प्रशासन संस्तुति करेगा।
आसान नहीं इसे लागू कर पाना
यह विधेयक भले ही संसद से पास हो जाए लेकिन, इसको लागू कराना सरकार के लिए आसान नहीं होगा। क्योंकि अदालती प्रक्रिया में इसके टिक पाने की अधिक संभावना नहीं नजर आ रही है। क्योंकि भारत का संविधान धर्म के आधार पर भेदभाव की अनुमति नहीं देता। अगर यह मामला अदालत में गया तो सरकार पर निर्भर करेगा कि वह किस तरह से बचाव करती है। सरकार का विशेषाधिकार भी होता है कि वह किसे नागरिकता देती है, किसे नहीं। यह सोच यह भी हो सकती है कि भारत उपमहाद्वीप का सबसे बड़ा राष्ट्र है। अगर उसके पड़ोस में कहीं किसी का शोषण हो रहा है, तो क्या भारत को उनका ख्याल नहीं रखना चाहिए? तो फिर सवाल यह भी उठेगा कि वह रो¨हग्या शरणार्थियों को वापस भेजने पर क्यों तुली हुई है। एक तर्क यह भी आ रहा है कि सताए गए लोगों को ही भारत की सुरक्षा की जरूरत है, तो अहमदिया और शिया भी पाकिस्तान और बांग्लादेश में समान रूप से प्रताड़ित हैं। भारत सरकार उन्हें क्यों छोड़ रही है? कुल मिलाकर सरकार के लिए यह दोधारी तलवार की तरह है। वह सियासी रूप से इसे भुना पाई तो ठीक, नहीं तो इसके नुकसान भी ङोलने पड़ सकते हैं।
भावनात्मक मुद्दा भी है
माना जा रहा है कि भाजपा ने पूवरेत्तर के राज्यों प्रवासियों को निर्वासित करने के नाम पर जीत दर्ज की थी। कहा जा सकता है कि एनआरसी इसी दिशा में किया गया एक प्रयास था। लेकिन, नया नागरिकता संशोधन विधेयक तो ठीक इसके उल्टा हो रहा है। क्योंकि इसके तहत गैर मुस्लिम उन सभी प्रवासियों को नागरिकता मिल जाएगी, जो अवैध रूप से रह रहे हैं। दरअसल यह एक भावनात्मक मुद्दा भी है। सरकार यह तर्क दे सकती है कि ऐसे कई देश हैं जो दूसरे धर्म को मानते हैं और वह अपने धर्म के मानने वाले नागरिकों को अपने यहां आश्रय भी दे सकते हैं। लेकिन, जो लोग भारत की संस्कृति से जुड़े हुए हैं, वह कहां जाएंगे? हालांकि सरकार को ठोक-पीट के कदम उठाना चाहिए। ताकि मूल भारतीय के हितों की अनदेखी ने हो।
राज्यसभा में लंबित है बिल
यह विधेयक अभी राज्यसभा में लंबित है, बावजूद इसका विरोध शुरू हो गया है। खासकर पूवरेत्तर के राज्यों में। यहां तक कि असम के मुख्यमंत्री भी विरोध कर रहे हैं। अब सवाल यह उठता है कि नागरिकता संशोधन विधेयक को विरोध कितना सही है? दैनिक जागरण की इस सोमवार की अकादमिक गोष्ठी में इसी विषय पर विमर्श हुआ। वक्ता थे सिविल एकेडमी के निदेशक अभिषेक शर्मा। तो आइए समझते हैं कि यह विधेयक क्या है? इसका विरोध क्यों हो रहा है?
क्या है नया संशोधन
2019 के विधेयक के मुताबिक, पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से छह समुदायों हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई धर्मो के लोग अगर भारत आए, तो उन्हें भारतीय नागरिक माना जाएगा। इसने नागरिकता के लिए जरूरी 11 साल के निवास को घटाकर भी सिर्फ छह साल कर दिया है।
विरोध की वजह
नागरिकता अधिनियम में अधिकांश संशोधन भारत-बांग्लादेश को लेकर थे, क्योंकि पूर्वी क्षेत्र से भारत में बड़े पैमाने पर पलायन जारी था। इस घुसपैठ के खिलाफ असमिया आंदोलन के परिणामस्वरूप 15 अगस्त 1985 को ऐतिहासिक असम समझौता हुआ। इस समझौते के जरिए सरकार ने असमिया लोगों को आश्वासन दिया कि उनकी सांस्कृतिक, सामाजिक और भाषाई पहचान की सुरक्षा और संरक्षण अवश्य करेगी। इसके बाद 1986 के नागरिकता संशोधन विधेयक के तहत यह तय किया गया कि 1966 के पहले तक जो भी लोग असम के निवासी थे, उन्हें भारतीय नागरिक माना जाएगा। 1966 से लेकर 1971 तक जो लोग पलायन करके आए हैं, उन्हें दस साल तक विदेशी नागरिक के रूप में अपनी पहचान रखने के बाद पंजीकरण का अधिकार प्राप्त होगा। 1971 के बाद आने वाले प्रवासियों को उनके देश में निर्वासित किया जाएगा।
पहचान मिटने का भय
अवैध नागरिकों को निर्वासित करने में तमाम जटिलताएं हैं। बांग्लादेश कह चुका है कि उसका कोई भी नागरिक अवैध रूप से भारत में नहीं रह रहा है। कोई पलायन भी नहीं हो रहा है। लेकिन, अगर आंकड़े देखें तो पूवरेत्तर में जनसंख्या विस्फोट लगातार बढ़ रहा है। असम में सैकड़ों संगठन अब इस बिल के खिलाफ आवाज उठा रहे हैं, क्योंकि इससे अवैध बांग्लादेशी हिंदू प्रवासी नागरिक बन जाएंगे। असमिया लोगों को डर है कि अपने ही घर में अल्पसंख्यक बनकर रह जाएंगे। उनका विरोध बांग्लादेशी हिंदुओं के साथ-साथ बांग्लादेशी मुसलमानों के प्रति भी है। उनका मानना है कि भारत सरकार को अल्पसंख्यकों की चिंता तो है लेकिन, हमारे अल्पसंख्यक बन जाने की नहीं है। हालांकि केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने यह आश्वासन दिया है कि जो भी प्रवासियों का बोझ बढ़ेगा उसे पूरे देश में बांटा जाएगा। नागरिकता भी उन्हें ही दी जाएगी जिनकी स्थानीय प्रशासन संस्तुति करेगा।
आसान नहीं इसे लागू कर पाना
यह विधेयक भले ही संसद से पास हो जाए लेकिन, इसको लागू कराना सरकार के लिए आसान नहीं होगा। क्योंकि अदालती प्रक्रिया में इसके टिक पाने की अधिक संभावना नहीं नजर आ रही है। क्योंकि भारत का संविधान धर्म के आधार पर भेदभाव की अनुमति नहीं देता। अगर यह मामला अदालत में गया तो सरकार पर निर्भर करेगा कि वह किस तरह से बचाव करती है। सरकार का विशेषाधिकार भी होता है कि वह किसे नागरिकता देती है, किसे नहीं। यह सोच यह भी हो सकती है कि भारत उपमहाद्वीप का सबसे बड़ा राष्ट्र है। अगर उसके पड़ोस में कहीं किसी का शोषण हो रहा है, तो क्या भारत को उनका ख्याल नहीं रखना चाहिए? तो फिर सवाल यह भी उठेगा कि वह रो¨हग्या शरणार्थियों को वापस भेजने पर क्यों तुली हुई है। एक तर्क यह भी आ रहा है कि सताए गए लोगों को ही भारत की सुरक्षा की जरूरत है, तो अहमदिया और शिया भी पाकिस्तान और बांग्लादेश में समान रूप से प्रताड़ित हैं। भारत सरकार उन्हें क्यों छोड़ रही है? कुल मिलाकर सरकार के लिए यह दोधारी तलवार की तरह है। वह सियासी रूप से इसे भुना पाई तो ठीक, नहीं तो इसके नुकसान भी ङोलने पड़ सकते हैं।
भावनात्मक मुद्दा भी है
माना जा रहा है कि भाजपा ने पूवरेत्तर के राज्यों प्रवासियों को निर्वासित करने के नाम पर जीत दर्ज की थी। कहा जा सकता है कि एनआरसी इसी दिशा में किया गया एक प्रयास था। लेकिन, नया नागरिकता संशोधन विधेयक तो ठीक इसके उल्टा हो रहा है। क्योंकि इसके तहत गैर मुस्लिम उन सभी प्रवासियों को नागरिकता मिल जाएगी, जो अवैध रूप से रह रहे हैं। दरअसल यह एक भावनात्मक मुद्दा भी है। सरकार यह तर्क दे सकती है कि ऐसे कई देश हैं जो दूसरे धर्म को मानते हैं और वह अपने धर्म के मानने वाले नागरिकों को अपने यहां आश्रय भी दे सकते हैं। लेकिन, जो लोग भारत की संस्कृति से जुड़े हुए हैं, वह कहां जाएंगे? हालांकि सरकार को ठोक-पीट के कदम उठाना चाहिए। ताकि मूल भारतीय के हितों की अनदेखी ने हो।
Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें