मन मस्त मगन चल खुले गगन में पतंग उड़ाएं, आओ वसंत पंचमी मनाएं
वसंत पंचमी मेरठ में इस अवसर पर खूब पतंगें उड़ाई जाती हैं। बच्चों से लेकर बड़े तक सब पतंगबाजी के दीवाने हैं और सब तैयारी कर रहे हैं।
मेरठ, [प्रदीप द्विवेदी]। मुड्डा दे, ढील दे, रुक-रुक, थोड़ा टीप दे, घात लगा, चल अब खींचकर काट, काट अरे काट जल्दी। ...और कट गई पतंग। एक पतंगबाज दूसरे की पतंग काटकर इतना तेजी से उछलता है मानो वल्र्ड कप जीत लिया हो। कुछ ऐसा ही है पतंगबाजी का रोमांच। मैदानों, छतों या गलियों में ये रोमांच भरे शब्द जब गूंजते हैं, तब पतंगबाज का हौसला बढ़ जाता है और पतंग लूटने वालों की तो पूछिए ही मत..। दीवार दिखाई देती है न सड़क। औरों को लगता है कि इन्हें क्या मिलता है, मगर उन्हें जो आनंद और सुकून मिलता है वह किसी खेल उत्सव की ही तरह होता है। हमारा शहर मेरठ भी हर साल की तरह वसंत पंचमी को पेंच लड़ाने के लिए तैयार है। आइए जानते हैं वसंत पंचमी पर पतंगबाजी को परंपराओं, प्रतियोगिता के पुराने आयोजकों, दुकानदारों और पतंगबाजों की नजर से। पेश है रिपोर्ट...
मांझा बरेली वाला, वह भी कारीगर के नाम से
मेरठ ही नहीं, देश के अधिकांश शहरों में जो मांझा मंगाया जाता है वह बरेली में बना होता है। सद्दी भी बरेली से आता है। सद्दी को रंगने के बाद उस पर कांच चिपकाया जाता है, जिससे वह मांझा बनता है। ये सारा काम हाथ से होता है। हालांकि जब से एनजीटी के नियम भारी पड़े हैं तब से बरेली के मांङो में कांच की मात्र बेहद कम कर दी गई है। खास यह कि बरेली के मांङो वहां के कारीगरों के नाम से मांगे जाते हैं। मांझा व्यापारी सुब्हान खान ने बताया कि मांझा और सद्दी दोनों की रील 900 मीटर की होती है। सद्दी में छह तार होते हैं जबकि मांङो में छह, नौ व 12 तार होते हैं। सद्दी कॉटन का बना होता है। रील की कीमत 550 से 950 रुपये तक है।
वसंत पंचमी पर पतंगबाजी की वजह
वसंत पंचमी का धार्मिक महत्व तो हर किसी को पता है पर इस दिन पतंग उड़ाने का इससे कोई सीधा संबंध नहीं है। वसंत पंचमी नव उत्साह लेकर आती है और हर तरफ वासंती छटा बिखर जाती है, इसलिए आसमान में भी रंगीन पतंग उड़ाने का चलन बढ़ा। वसंत पंचमी पर पतंग पंजाब में उड़ाई जाती है और उसी को देखते हुए अब काफी शहरों में आयोजन होने लगा। वैसे मकर संक्रांति व अन्य त्योहारों पर भी पतंगबाजी होती रहती है।
बरेली के कागज वाली मैदान से, रामपुर के कागज वाली छत से
पतंग में कागज की मजबूती और उसकी फिनिशिंग बहुत मायने रखती है। खैरनगर में हौजवाली मस्जिद के नीचे पुरानी बरेली की दुकान के फैजाद बताते हैं कि रामपुर के कागज से बनी पतंग सिर्फ छत से उड़ाने के काम में आती है। यह 16 इंच व 18 इंच में होती है जबकि बरेली के कागज से बनी पतंग मैदान में या प्रतियोगिताओं में उड़ाने के लिए ले जाई जाती है। यह पतंग 22 इंच की होती है। वैसे जयपुर व कलकत्ता के कागज से भी पतंग बनती है।
मेरठ में खींचकर और दिल्ली-गुजरात में ढील देकर काटते हैं पतंग
पतंग काटने का रोमांच तो मेरठ या उन शहरों में ही ज्यादा होता है जहां डोरी खींचकर पतंग काटी जाती है। यहां प्रतियोगिता हो या फिर लोग शौकिया उड़ा रहे हों, बस यही जुगत लगाई जाती है कि कैसे भी पतंग काटी जाए। गुजरात और दिल्ली में प्रतियोगिता में डोरी खींचकर पतंग काटने की मनाही होती है। ऐसा करने पर प्रतियोगिता से बाहर कर दिया जाता है। इन शहरों में खींचकर नहीं, बल्कि डोरी पास में लाकर कैंची बनने पर दांव चलाया जाता है और सावधानी से दूसरी डोरी पर रगड़ मारी जाती है और डोर कट जाती है। वहां एक ही डोर में कई पतंग बांधकर भी उड़ाई जाती हैं, यहां ऐसा नहीं होता।
पतंगों के डिजाइन
गुड्डा, सरदारा, लंगोरिया, गिलासिया, चौमुखा, अधरंगा और तिरंगा।
खतरनाक चाइनीज मांझा टूटता नहीं, घाव देता है
चाइनीज मांझा नायलॉन के धागे से तैयार होता है और उस पर कांच या लोहे के बुरादे की मोटी परत चढ़ाई जाती है। इससे पतंग उड़ाते समय डोर जल्दी टूटती नहीं है और दूसरे की डोर जल्द काट देती है इसीलिए इसकी बाजार में मांग ज्यादा रहती है। बरेली वाले मांङो पर जब कांच की परत बारीक करके न के बराबर कर दी गई तो चाइनीज मांङो ने भी परत बारीक कर दी। पर चाइनीज मांझा अभी भी नायलॉन के धागे पर तैयार होता है। इसलिए यह जब किसी से रगड़ खाता है घाव हो जाता है। गलियों में अक्सर लोग मांङो से उलझकर गिर जाते हैं। तमाम पक्षी जो घरों के आसपास रहते हैं वे इसकी चपेट में आकर घायल होते रहते हैं। हालांकि दुकानदार कहते हैं कि बाजार में अब चाइनीज मांझा उपलब्ध नहीं है फिर भी चोरी-छिपे इसका व्यापार हो रहा है।
लंगड़ी डिश है पतंगबाजों की चालाकी
पतंग उड़ाने वाले लोग यह बताते हैं कि पतंगबाज हमेशा दूसरे को लंगड़ी डिश के मामले में चालाकी दिखाता है। इसमें ऐसा होता है कि डोरी बांधने के छेदों में दूरी कम कर दी जाती है तो पतंग जब उड़ती है तब प्रतियोगी को डोरी के बारे में ठीक अंदाजा नहीं लग पाता। जो ज्यादा ऊंचाई पर जाकर पतंग नीचे लाकर काटते हैं वे डोरी बांधने वाले छेदों में ज्यादा दूरी रखते हैं।
चुटकी की कलाबाजी जिताती है पतंगबाजी
पतंग उड़ाने में जो चुटकी में माहिर होगा वह पतंगबाजी का बादशाह बन जाता है। हालांकि ऐसा करने वालों की अंगूठे और तर्जनी अंगुली वाली जगह पर डोरी के खूब निशान पड़ जाते हैं। पतंग घुमाकर डोरी छोड़ने या नीचे उतारने में अंगुलियां चुटकी का आकार ले लेती हैं, इसलिए इसे चुटकी कहा जाता है। हालांकि इसमें टीप देना, मुड्डा देना और चिराव की समझ बहुत जरूरी है। पतंग को हवा में खड़ी कर देना या कुछ देर के लिए रोककर रखने को टीप कहा जाता है। सामने वाली की पतंग के नीचे से या ऊपर से पतंग लाकर पेंच लड़ाने को मुड्डा देना कहा जाता है। वहीं चिराव शब्द का प्रयोग प्रतियोगिता में होता है। दो प्रतियोगियों के बीच की दूरी को चिराव कहा जाता है। शहर में पतंग प्रतियोगिता के संयोजक रहे दिनेश सक्सेना का कहना है कि सामान्यत: 100 गज की दूरी दोनों के बीच होती है। यहां सिक्का उछालने पर हेड एवं टेल कहने के बजाय शेर व बकरी बोला जाता है।
मेरठ में जहां ज्यादा उड़ती हैं पतंगें
जैननगर, देवपुरी, आनंदपुरी, लाला का बाजार, ब्रहमपुरी, सराफा बाजार, ठठेरवाड़ा, गुदड़ी बाजार, तहसील, साकेत, शास्त्रीनगर, थापरनगर, सदर, फूटा कुआं, स्वामीपाड़ा, खैरनगर, जत्तीवाड़ा, शीश महल।
सद्दी का प्रयोग ज्यादा, मांङो का कम करें
बरेली वाले कॉटन के धागे से बना मांझा ही लें। मांझे का प्रयोग कम करें और सद्दी का ज्यादा। जहां भी मांझा लें पहले तोड़कर देख लें। यदि थोड़ा दबाव डालने पर मांझा टूट जाता है तो उसे ही लें। चाइनीज मांङो बिलकुल न खरीदें।
पतंग और मांङो दोनों का व्यापार गिरा
खैरनगर व गोला कुआं में दुकान चलाने वाले मुस्तकीम व शब्बीर का कहना है कि अब पतंग बेचना किसी का मूल व्यवसाय नहीं रह गया है। पुराने समय से जुड़े हैं इसलिए इसका मौसम आने पर पतंग मंगाकर दुकान सजा लेते हैं। उनका कहना है कि अब ये समङिाए की काम खत्म हो गया। चाइनीज मांङो ने बाजार ज्यादा खराब कर दिया। इसकी वजह से अब बच्चों को भी परिजन पतंग उड़ाने से मना करते हैं।
बड़ी प्रतियोगिताएं बंद हैं, जहां हो भी रहीं तो चोरी-छिपे
मेरठ में कई बार पतंग महोत्सव आयोजित किया गया। जिमखाना मैदान में प्रतियोगिताएं होती थीं, लेकिन धीरे-धीरे उसका क्रेज कम हो गया। मेरा शहर मेरी पहल की ओर से पतंग प्रतियोगिता करा चुके अमित अग्रवाल व दिनेश सक्सेना का कहना है कि जब पतंग प्रतियोगिता हुई थी तब डीएम व कमिश्नर ने भी पेंच लड़ाए थे। अब प्रशासन की अनुमति नहीं मिल पाती, इसलिए प्रतियोगिता का आयोजन नहीं होता। चाइनीज मांङो के प्रयोग का डर रहता है। बहरहाल, अभी भी प्रतियोगिताएं होती हैं लेकिन वे प्रशासन या पुलिस की चोरी-छिपे होती हैं। फिर भी सरस्वती लोक के पास मैदान, फाजलपुर व पीवीएस मॉल के पीछे प्रतियोगिताएं होती हैं।
उम्र ढल रही, पतंगबाजी चल रही
जत्तीवाड़ा में बचपन से ही पतंग उड़ाते रहे प्रदीप सेठ 62 साल के हो चुके हैं, लेकिन अभी भी जब तक पेंच न लड़ाएं तब तक चैन नहीं मिलता। अब गंगानगर में रहते हैं। कभी-कभी बच्चों को समझाने के बहाने पतंग थाम लेते हैं। वहीं, ईश्वरपुरी निवासी गोपाल मिस्त्री पुराने पतंगबाज हैं। बताते हैं कि उन्होंने कई इनामी प्रतियोगिताओं में भाग लिया। खुद भी मांझा तैयार करते थे। सरस्वती लोक निवासी अजीत कुमार जैन कहते हैं कि चाइनीज मांङो ने पतंगबाजी का उत्साह कम कर दिया। पहले वाला क्रेज भी अब नहीं रहा। रेलवे रोड निवासी इस्लाम भी पेंच लड़ाने में माहिर रहे हैं। 60 साल बाद भी उत्साह कम नहीं है। कहीं पतंगबाजी होती है तो वहीं रुक जाते हैं।