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अनूठी है मेरठ के बिजौली गांव की होली, जहां बरसता है सद्भाव का रंग, जानिए क्‍या है 500 वर्ष पुरानी अनूठी परंपरा

Holi 2021 मेरठ के बिजौली गांव की होली भी खास होती है। होली पर्व पर यहां करीब 500 वर्ष पुरानी अनूठी परंपरा का निर्वाह होता है। चारों दिशाओं से निकलते हैं तख्त शरीर बिंधवाते हैं युवक मुस्लिम परिवार बनाता है औजार।

By Taruna TayalEdited By: Published: Sun, 28 Mar 2021 05:52 PM (IST)Updated: Mon, 29 Mar 2021 11:21 AM (IST)
अनूठी है मेरठ के बिजौली गांव की होली, जहां बरसता है सद्भाव का रंग, जानिए क्‍या है 500 वर्ष पुरानी अनूठी परंपरा
बिजौली में तख्त निकालते युवा और तख्त पर खड़े बिंदने वाले युवक।

मेरठ, जेएनएन। बरसाने की लठमार होली तो विश्वविख्यात है ही, जिले के बिजौली गांव की होली भी खास होती है। होली पर्व पर यहां करीब 500 वर्ष पुरानी अनूठी परंपरा का निर्वाह होता है। यहां सद्भाव का रंग बरसता है। दुल्हैंडी के दिन रंग खेले जाने के बाद दोपहर को गांव में चारों दिशाओं से आधा दर्जन तख्त निकलते हैं। जिन पर नुकीले औजारों से शरीर बेंध कर युवा हाथ में लाठी लिए खड़े रहते हैं। ग्रामीणों की भीड़ इन तख्त को हाथों से उठाए होती हैं। सभी तख्त जुलूस के रूप में मोहल्ला गंगापुरी में साधु की समाधि पर जाकर समाप्त हो जाते हैं। इस दिन के लिए तैयारियां काफी समय पहले शुरू हो जाती हैं। तख्त का जगह-जगह स्वागत होता है। महिलाएं प्रसाद के रूप में गुड़ और आटा समर्पित करती हैं। जुलूस के आगे युवा लाठी व तलवार से पटाबाजी के करतब दिखाकर चलते हैं। क्षेत्रवासियों में मान्यता है कि इस परंपरा से गांव आपदा से बचता है और धन-धान्य में वृद्धि होती है। मोहल्ला पछाला, खेड़ावाला, गुईली वाला, धनौटिया आदि से तख्त निकाले जाते हैं।

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यह है मान्यता

कहा जाता है कि गंगापुरी नाम के साधु करीब 500 वर्ष पूर्व बिजौली आए थे। गांव के बाहर एक प्राचीन शिव मंदिर व कुएं के पास आकर उन्होंने धूनी रमा ली। इस बीच पशु बीमार होने लगे और लोगों में भी अज्ञात बीमारी फैलने लगी और मौतें होने लगीं। गांव के बुजुर्ग ब्रहमदत्त फौजी, बालिस्टर फौजी, परमात्माशरण व प्रदीप त्यागी आदि बताते हैं कि बीमारी ने महामारी का रूप ले लिया था। घरों व खेतों में भी आग लगने लगी थी। गांव के लोग तप कर रहे साधु गंगापुरी के पास पहुंचे। तब उनके सुझावनुसार तख्त निकालने की परंपरा शुरू हुई। नुकीले औजार छुरी, सुई आदि को युवक अपने शरीर में घुसवाते हैं। जिसके बाद वह तख्त पर सवार होते हैं। बुजुर्ग कहते हैं कि एक वर्ष तख्त नहीं निकाले गए तो फिर आपदा आने लगी।

नुकीले औजार से खून की एक बूंद नहीं निकलती

नुकीले औजारों से शरीर बिंदने पर युवाओं में खून की एक बूंद नहीं निकलती। यह औजार मुस्लिम लुहार बनाते हैं और हिंदुओं के साथ युवकों के शरीर में प्रविष्ट भी कराते हैं। बिंदने से पूर्व सिर्फ होलिका की राख शरीर पर लगाई जाती है। पूर्व प्रधान बलराज त्यागी, ऋषि त्यागी, अज्जू त्यागी व विनय त्यागी कहते हैं कि तख्त की रस्म पूरी होने के बाद बिंधे युवा साधु की समाधि पर जाकर शीश नमन करते हैं। जख्म सुखाने के लिए होलिका की राख ही काफी है। इसी से जख्म सही हो जाते हैं। बिंदने वाला युवक एक सप्ताह तक तख्त या नीचे जमीन पर ही लेटते हैं। बिंदने के लिए युवाओं में होड़ लगती है।

औजार और वेशभूषा तैयार करने में लगा मुस्लिम परिवार

बिजौली की होली एकता की मिसाल है। लोगों का कहना है कि आरंभ में मुस्लिम बुंदू खां ने औजार तैयार कर युवकों को बींधने का काम किया था। आज भी उस परंपरा को बुंदु खां के परिवार से बाबू और उनका बेटा सलीम निभा रहे हैं।


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