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मुकद्दस रमजान: यहां खामोशी से मांगी हर दुआ होती है कुबूल

करीब छह सौ साल पहले जब इरान में अस्थिरता का माहौल था तो बड़ी संख्या में शिया समुदाय ने वहां से पलायन किया था। इरान के जैदान इलाके से लोग भारत आए उन्हीं के नाम से जाहिदियान मोहल्ला।

By Taruna TayalEdited By: Published: Sun, 19 May 2019 01:15 PM (IST)Updated: Sun, 19 May 2019 01:15 PM (IST)
मुकद्दस रमजान: यहां खामोशी से मांगी हर दुआ होती है कुबूल
मेरठ, जेएनएन। सुभाष बाजार के निकट स्थित जाहिदियान मस्जिद की स्थापत्य कला न सिर्फ अन्य मस्जिदों से अलग है बल्कि शिया समुदाय के लोगों की इससे गहरी आस्था जुड़ी है। बताया जाता है कि करीब छह सौ साल पहले जब इरान में अस्थिरता का माहौल था तो बड़ी संख्या में शिया समुदाय ने वहां से पलायन किया था। इरान के जैदान इलाके से लोग भारत आए और उन्हीं में से कुछ लोग मेरठ पहुंचे थे। उन्हीं के नाम से जाहिदियान मोहल्ला बसाया गया है। मस्जिद की तामीर भी उन्हीं लोगों ने की थी। अपने को उन्हीं का वंशज बताते हुए राहत जैदी कहते हैं। शिया सैय्यदों की यह पहली मस्जिद थी। घंटाघर की शाही मस्जिद से पहले शियाओं की जामा मस्जिद यही थी।
खामोशी से मांगी दुआ कबूल
आम मस्जिदों की तरह इस मस्जिद में न तो गुंबद हैं और न ही मीनारें हैं। मस्जिद का हाल डाट का बना है। इसे थामे रखने के लिए बीच में कोई खंभा नहीं है। हाल में 40 से 50 लोग बैठ जाते हैं। मस्जिद की दीवारें इतनी मोटी हैं कि दो आदमी आमने सामने आराम से बैठ इबादत कर सकते हैं। यहां स्थित इमली का पेड़ भी छह सौ साल पुराना बताया जाता है। इतने सालों में मेरठ ने बड़े उतार चढ़ाव देखे हैं, लेकिन मस्जिद की इमारत और उसके पास स्थित विशाल इमली का पेड़ मजबूती और शांति से अविचल भाव से खड़े हैं मानो समय को चुनौती दे रहे हों। मस्जिद के परिसर में ही दादा सैय्यद शाह ताजुद्दीन की मजार भी है। ताजुद्दीन साहब, शाह विलायत साहब सैय्यद फखरुद्दीन शाह जिनका मकबरा मोहनपुरी में है, के उस्ताद थे। मस्जिद के पास ही इमामबाड़ा है यह भी यह भी उतना पुराना है। आसपास के लोग मस्जिद को अपने पुरखों की निशानी के रूप में देखते हैं। कहा जाता है यहां पर खामोशी से मांगी गई हर दुआ पूरी होती है।
अल्‍लाह का कर अदा कर
दुनिया की सरकारें टैक्स पहले खुद लेती है, फिर योजनाओं के जरिए पैसा हकदारों तक पहुंचाया जाता है। इसमें भ्रष्टाचार की तमाम गुंजाइश रहती हैं। नतीजा यह होता है कि अमीर का माल अमीर के पेट में रह जाता है, लेकिन इस्लाम मजहब में इबादत के तौर पर साहिबे निसाब पर जकात फर्ज किया है। मसलन, इंसान खुद तहकीक करने के बाद अपने माल से अल्लाह के टैक्स के तौर पर ढाई फीसदी गरीब का हिस्सा यानी जकात निकाले। साथ ही गरीब पर अहसान जताने के बजाए खुदा का शुक्र अदा करे कि दुनिया के खालिक ने मुङो इस लायक बनाया। तीस रोजों की शक्ल में दीनी इम्तिहान देने के बाद अल्लाह ने रोजदारों को सनद के तौर पर ईद का तोहफा दिया है। इस सनद को हासिल करने के लिए कुछ उसूल और जाब्ते भी मुकर्रर किए हैं। जकात व सदका ए फितर इस उसूल की रीढ़ हैं। जो शख्स साढ़े बावन तौला चांदी या उसके बराबर कीमत का मालिक हो और उस पर चांद की तारीख के मुताबिक साल गुजर गया हो, उस पर कुल माल का ढाई फीसदी जकात की शक्ल में देना वाजिब है। इस्लामी विद्वानों के मुताबिक, फितरे के लिए साल गुजरना जरूरी नहीं है।
खुदा की मोहर है फितरा
रमजान की सनद है ईद, लेकिन फितरा सनद पर खुदा की मोहर की मानिंद है। ताकि गरीब भी फितरा के जरिए ईद की खुशियों में बराबर का हिस्सेदार हो सके।
- अमीर आजम खान, कर अधिवक्ता

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