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550वां प्रकाश पर्व पर विशेष : शीशे वाला गुरुद्वारा देखते ही याद आ जाती है 71 की जीत Meerut News

मेरठ कैंट में स्‍थित शीशे वाले गुरुद्वारे की अपनी एक अलग पहचान है। पाकिस्तान पर जीत की निशानी के तौर पर पहचाने जाने वाला यह गुरुद्वारा बाबा दीप सिंहजी शहीद का स्थान भी है।

By Prem BhattEdited By: Published: Fri, 08 Nov 2019 01:45 PM (IST)Updated: Fri, 08 Nov 2019 01:45 PM (IST)
550वां प्रकाश पर्व पर विशेष : शीशे वाला गुरुद्वारा देखते ही याद आ जाती है 71 की जीत Meerut News

मेरठ, [जागरण स्‍पेशल]। 550th prakash parv मेरठ छावनी स्थित शीशे वाले गुरुद्वारा की अपनी गौरवशाली पहचान और धार्मिक पहचान है। पाकिस्तान पर जीत की निशानी के तौर पर पहचाने जाने वाला यह गुरुद्वारा बाबा दीप सिंहजी शहीद का स्थान भी है। मेरठ छावनी में शीशे वाला गुरुद्वारा का सीधा संबंध पंजाब रेजीमेंट से है। अपने पराक्रम से न सिर्फ देश बल्कि विश्वपटल पर भी गौरव गाथा रचने वाली पंजाब रेजीमेंट 1929 से 1976 तक मेरठ में ही रही।

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जनरल अरोड़ा पहुंचे थे मेरठ

रामगढ़ जाने से पहले पंजाब रेजीमेंटल सेंटर ने यहीं शीशे वाला गुरुद्वारा बनवाया। 1971 में भारत-पाक युद्ध में मिली जीत के बाद 1972 में यहां शीशे वाले गुरुद्वारा की स्थापना की गई थी। आधारशिला रखने ले. जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा स्वयं मेरठ पहुंचे थे। जनरल अरोड़ा वही सैन्य अफसर हैं, जिनके समक्ष 1971 में पाकिस्तान के जनरल नियाजी ने बांग्लादेश की धरती पर 90 हजार से अधिक सैनिकों के साथ आत्मसमर्पण किया था। यह आत्मसमर्पण विश्व के इतिहास में अब तक का सबसे बड़ा आत्मसमर्पण है। ऐसे में इस गुरुद्वारा को जब भी हम देखते हैं, 1971 की जंग के हमारे जांबाज सैनिकों की गौरवगाथा आंखों के आगे तैरने लगती है।

बाबा दीप सिंहजी शहीद का स्थान

सिख समाज में बाबा दीप सिंहजी का अपना अहम स्थान है। बाबा दीप सिंह के बारे में सिख समाज के जानकार बताते हैं कि जब मुगलों का आतंक बढ़ गया और उन्होंने दरबार साहिब और पवित्र सरोवर को नुकसान पहुंचाया तो दमदमा साहिब में रह रहे बाबा दीप सिंह का खून खौल उठा और वे 18 सेर का खंडा उठाकर मुगलों की सेना से भिड़ने चल पड़े। युद्ध के दौरान कई आततायियों को रौंदते हुए वे बढ़ रहे थे कि दोहरे वार से उनका सिर धड़ से अलग कर दिया। बाबा दीप सिंह रुके नहीं, बायें हाथ में अपना सिर रखकर दाहिने हाथ के खंडे से वे वार करते हुए तीन कोस बढ़ते चले गए। यह देख दुश्मनों के पांव उखड़ गए।

अपना शीश किया था भेंट

हरमंदिर साहिब की परिक्रमा करते हुए उन्होंने अपना शीश भेंट कर दिया और 11 नवंबर, 1760 को शहादत को चूम लिया। इन्हीं बाबा दीप सिंहजी शहीद के स्थान के तौर पर शीशे वाले गुरुद्वारा की पहचान है। गुरुद्वारा के अंदर बाबा की तस्वीर मिलती है। यहां उनके नाम की अखंड जोत जलती है। इतना ही नहीं, इस गुरुद्वारा में तीन निशान साहिब लगे हुए हैं। गुरुद्वारा में लगनी वाली ध्वज पताकाओं को ही निशान साहिब कहा जाता है।

पद्माकार बनावट हर तरफ शीशा

यह गुरुद्वारा शिल्पकारी की एक नई नजीर है। अन्य गुरुद्वारा की बनावट से अलग इस गुरुद्वारे के चारों ओर लगा शीशा गजब की कारीगरी को दर्शाता है। पद्माकार में बड़े भू-भाग में फैले इस गुरुद्वारा के अंदर प्रवेश करते ही शांति और भक्तिमय माहौल श्रद्धालुओं को अपनी ओर आकर्षित करता है। सिख समाज के साथ दूसरे धर्म के लोग भी बड़ी संख्या में यहां शीश झुकाने आते हैं। चूंकि इस गुरुद्वारे के रख-रखाव की जिम्मेदारी फौज के हाथ है, लिहाजा व्यवस्था हमेशा चुस्त-दुरुस्त रहती है। 


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