शांतिप्रिय के बचपन का गवाह है बूढ़ा वटवृक्ष
घोसी (मऊ) समय च्रक चलता रहा। गांव के पश्चिम दक्षिण किनारे पर मिट्टी के भवन में संचालित प्राथमिक विद्यालय आज आलीशान भवन में बदल गया है पर वह बरगद का पेड़ भले बूढ़ा हो गया पर हर साख और हर पत्ता प्रख्यात आधुनिक हिदी साहित्य के बहुमुखी प्रतिभा के धनी विशाल व्यक्तित्व वाले शांतिप्रिय द्विवेदी के बचपन का गवाह है। उसकी छांव में धूल-मिट्टी पर बिछे टाट पर बैठकर संवेदना और भावनाओं का ककहरा सीखने वाले इस साहित्यकार के कई आगमन के ²श्य को आंखों में कैद करने वाले ग्रामीण अब भले न रहे पर यह बरगद आज भी अपनी शान-ओ-शौकत से खड़ा है।
जागरण संवाददाता, घोसी (मऊ) : समय चक्र चलता रहा। गांव के पश्चिम दक्षिण किनारे पर मिट्टी के भवन में संचालित प्राथमिक विद्यालय आज आलीशान भवन में बदल गया है पर वह बरगद का पेड़ भले बूढ़ा हो गया पर हर साख और हर पत्ता प्रख्यात आधुनिक हिदी साहित्य के बहुमुखी प्रतिभा के धनी विशाल व्यक्तित्व वाले शांतिप्रिय द्विवेदी के बचपन का गवाह है। उसकी छांव में धूल-मिट्टी पर बिछे टाट पर बैठकर संवेदना और भावनाओं का ककहरा सीखने वाले इस साहित्यकार के कई आगमन के ²श्य को आंखों में कैद करने वाले ग्रामीण अब भले न रहे पर यह बरगद आज भी अपनी शान-ओ-शौकत से खड़ा है।
आजमगढ़ जिले के लाटघाट क्षेत्र के ब्रह्मपुर में 1906 में पैदा हुए शांतिप्रिय द्विवेदी के पिता आर्थिक संकट से जूझ रहे थे। बचपन से ही कुशाग्र इस बालक ने पढ़ाई की ठानी तो अमिला के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी अपने रिश्तेदार बद्री तिवारी के यहां आ गए। यहां पर प्राथमिक शिक्षा प्रारंभ हुई। अमिला गांव के पश्चिम दक्षिण डीह स्थान के पास प्राथमिक पाठशाला थी। पाठशला के कुछ कक्ष मिट्टी तो कुछ लाहौरी ईंट के बने थे। पाठशाला के परिसर में ही एक विशाल बरगद का वृक्ष था। गरमी के दिनों में सभी बच्चे पूरे दिन इस वृक्ष की छांव में जमीन पर बैठकर पढ़ाई करते थे। उन दिनों के प्रचलन के अनुसार शाम को छुट्टी के पूर्व सभी बच्चे गोलाकार खड़े होकर गिनती एवं पहाड़ा आदि सस्वर याद करते थे। अवकाश के बाद शांति प्रिय द्विवेदी अपने मित्रों रामलक्षन राय आदि के संग इसी बरगद के नीचे चिकई एवं कबड्डी आदि खेलते थे। इस बरगद की छांव में बचपन गुजारने वाले शांतिप्रिय द्विवेदी अमिला से मीडिल पास करने के बाद काशी चले गए। काशी में उन्होंने लेखन प्रारंभ किया। उन्हें बरगद की विशालता से सरल व्यक्तित्व की सीख ग्रहण किया तो गरीबी ने उनको संवदेनशील बना दिया था। उन्होंने कुल 27 पुस्तकों का लेखन किया। उनकी प्रसिद्ध रचनाओं जीवन यात्रा, परिव्राजक की प्रजा, वृत्त और विकास, हिमानी, नीरव, परिचय, परिक्रमा और साहित्य सामयिकी में जिस काल, जीवन और गंवई सभ्यता का वर्णन है, वह अमिला में कमोबेश आज भी अंतिम अवस्था में विद्यमान है। इस गांव के सत्यव्रत राय शास्त्री बताते हैं कि अपने जीवन के अंतिम समय 1967 तक वह वर्ष में एक बार अपने रिश्तेदार एवं चेयरमैन रहे बद्री तिवारी के घर आते और निश्चित रूप से अमिला के इस वट वृक्ष के नीचे कुछ समय व्यतीत करते।