यहां विग्रह का साकार रूप ले रहे हैं ग्रंथ
मंदिरों की नगरी कहे जाने वाले वृंदावन की हर बात निराली है। यहां देवालयों में दर्शनलाभ देने वाले विग्रहों और वर्तमान में मूर्ति बनाने वाले कारीगरों के साथ ही ग्रंथ विग्रहों की परंपरा भी अपनी कहानी अलग अंदाज में कहती है।
संवाद सहयोगी, वृंदावन : मंदिरों की नगरी कहे जाने वाले वृंदावन की हर बात निराली है। यहां देवालयों में दर्शनलाभ देने वाले विग्रहों और वर्तमान में मूर्ति बनाने वाले कारीगरों के साथ ही ग्रंथ विग्रहों की परंपरा भी अपनी कहानी अलग अंदाज में कहती है। वास्तव में ग्रंथ विग्रहों की भाव परंपरा वृंदावनी संस्कृति की अपनी विशेषता है। जिसे यहां के साधक आचार्यों ने पांच शताब्दियों में श्रद्धा के आधार पद पर गहरे से गोथा है। पुस्तकों के जगत में ग्रंथ के प्रति श्रीविग्रह का भाव यहां ज्ञान के प्रति श्रद्धा को बताता है।
ग्रंथ प्रभु के विग्रह हैं, इस ध्येय वाक्य के साथ वृंदावन शोध संस्थान ने पिछले पांच दशकों की शोधयात्रा में इस संस्कार को निष्ठापूर्वक जीवंत रखा है। पांडुलिपियों के शोध व प्रकाशन के साथ ही इसे शोध के लिए तैयार करने की विधि को उसी प्रकार समझ सकते हैं, जैसे मूर्तिकार द्वारा विग्रह तैयार करने के विविध चरणों के बाद यह प्राण-प्रतिष्ठा के साथ मंदिर में अपना स्थान प्राप्त करती है। उसी तरह संस्थान के ग्रंथ साधक दान स्वरूप प्राप्त अस्त-व्यस्त, अधूरे तथा कीट भक्षित पोथियों का निर्धारण करते हुए इसे प्राण प्रतिष्ठा अर्थात शोध की स्थिति में लाते हैं। इन ग्रंथों को अध्ययन के लिए लाल पोथियों में संरक्षित रखा जाता है। पांच दशक के अंतराल में संस्थान ने अपने संग्रह के करीब 35 हजार ग्रंथ विग्रह संस्कृति प्रेमी अध्येताओं की सुविधा के लिए ग्रंथ प्रभु के विग्रह हैं भाव के साथ सहेजे हैं। संस्थान निदेशक सतीशचंद्र दीक्षित ने बताया कि संस्थान में ये प्रक्रिया नियमित रूप से सुचारू है। समय-समय पर विशेषज्ञ विद्वानों को भी बुलाया जाता है।
-भविष्य के साधकों की भी चिता
संस्थान अपने इस सेवा संस्कार को आम लोगों तथा नई पीढ़ी के साथ साझा करना चाहता है। संस्थान ने हाल ही में पांडुलिपियों की क, ख, ग पुस्तक प्रकाशित कराई है। पुस्तक की लेखिका प्रगति शर्मा बताती हैं इस ग्रंथ में मुद्रण तकनीकी से पूर्व रची गई पुस्तकों को पढ़ने में आने वाली परेशानियों को प्रमुख रूप से रेखांकित किया गया है। संस्थान के ग्रंथागार प्रभारी डा. ब्रजभूषण चतुर्वेदी कहते हैं सृष्टि का प्रारंभ शब्द से ही होता है। इस परंपरा का उल्लेख छांदोग्यनिषद व कठोपनिषद दोनों में मिलता है।