मदद करने वालों को ढूंढ़ रहीं मजबूरों की नजरें
जेएनएन मथुरा प्रवासी मजदूर आए तो मजबूरी में हैं लेकिन यहां बेबसी उन्हें फिर से परदेश भेजने पर तुली है। प्रवासी मजदूरों के सामने रोटी का जुगाड़ नहीं हो पा रहा। बरसाना और नंदगांव क्षेत्र के पांच ऐसे प्रवासी मजदूर हैं जिनकी जिदगी लॉकडाउन में मुश्किल में कट रही है। कुछ को राशन कार्ड के जरिए सरकारी राशन मिला लेकिन जेब में अब ज्यादा पैसे नहीं हैं। लेकिन कुछ को राशन कार्ड न होने पर सरकारी राशन भी नहीं मिला तो कर्ज लेना पड़ा। अब उनकी निगाहें मदद करने वाले फरिश्तों को ढूंढ़ रही हैं।
जेएनएन, मथुरा : प्रवासी मजदूर आए तो मजबूरी में हैं, लेकिन यहां बेबसी उन्हें फिर से परदेश भेजने पर तुली है। प्रवासी मजदूरों के सामने रोटी का जुगाड़ नहीं हो पा रहा। बरसाना और नंदगांव क्षेत्र के पांच ऐसे प्रवासी मजदूर हैं, जिनकी जिदगी लॉकडाउन में मुश्किल में कट रही है। कुछ को राशन कार्ड के जरिए सरकारी राशन मिला, लेकिन जेब में अब ज्यादा पैसे नहीं हैं। लेकिन कुछ को राशन कार्ड न होने पर सरकारी राशन भी नहीं मिला, तो कर्ज लेना पड़ा। अब उनकी निगाहें मदद करने वाले फरिश्तों को ढूंढ़ रही हैं। कोरोना नहीं, गरीबी से जंग
बरसाना के मानपुर के हरी सिंह कोरोना से नहीं, गरीबी से जंग लड़ रहे हैं। पहले पैसे कमाने के लिए गांव छोड़ फरीदाबाद गए। अब कोरोना की दहशत में फिर फरीदाबाद से गांव लौटना पड़ा। कुछ राशन ग्राम प्रधान ने दिया तो परिवार का कुछ दिन पोषण हुआ। एक कमरे में सात सदस्यों का परिवार रहता है। गुरुवार शाम दाल-चावल से पेट भरा तो शुक्रवार सुबह चटनी से रोटी खाई। मददगारों की ओर परिवार की निगाहें लगी हैं। इससे तो परदेश ही ठीक
कमई से पांच साल पहले गुरुग्राम गए धर्मवीर की हालत आज भी वही है, जहां से पहले परदेश का सफर शुरू किया था। परदेश में खुद का मकान नहीं था, लेकिन दो वक्त की रोटी के लिए दूसरों की राह नहीं ताकनी पड़ती थी। लॉकडाउन में कमई लौटे परिवार के सामने संकट आ गया है। गुरुवार शाम धर्मवीर और परिवार ने हरी मिर्च, अचार से रोटी खाई, तो शुक्रवार सुबह पत्नी उज्जा पड़ोस से एक कटोरी सब्जी मांग लाई। अचार और आलू की सब्जी से रोटी खाई। घर में जो पैसे बचे हैं, वह कब खत्म हो जाएं पता नहीं। ऐसे में मुश्किल में फंसे हैं। टूट गए सपने
कमई के रहने वाले राजेंद्र के बड़े सपने भी अब जमीं पर हैं। पैरों से दिव्यांग राजेंद्र और उनके परिवार के सामने दो वक्त की रोटी कमाने का संकट है। छह साल पहले मानसेर गए राजेंद्र मजदूरी करके बच्चों का पेट भरते थे। वहां झुग्गी में सुकून से जिदगी कट रही थी। लॉकडाउन में घर लौटे, तो फिर दिक्कत होने लगी। इंचभर खेती नहीं है। शहर से जो कमाकर लाए थे, वह भी खर्च हो गए। अब गांव के लोगों से उधार रुपये लेकर खर्च कर रहे हैं। गुरुवार शाम राजेंद्र और उनके परिवार ने आचार से रोटी खाई, तो शुक्रवार सुबह चटनी और रोटी बनी। बस, किसी तरह चल रही गाड़ी
नंदगांव के लखन और उनके भाई जितेंद्र अब दानवीरों की राह देख रहे हैं। ब्याज पर लिया पैसा भी चुकाना है और जिदगी की गाड़ी भी खींचनी है। कुछ रुपये बचे हैं और सरकारी दुकान से मिला राशन है, तो उससे काम चल रहा है, लेकिन चिता रोजगार की खाए जा रही है। शुक्रवार सुबह दाल रोटी का इंतजाम हो गया तो शाम को चटनी और रोटी की व्यवस्था। मदद मिले तो बने काम
नंदगांव के नाहर सिंह थोक मुहल्ले नानकचंद के घर में भी अब कुछ ही दिन का राशन है। नानकचंद बताते हैं कि उन्होंने कर्ज लिया था। उसी से परिवार पाल रहे हैं। जो कर्ज लिया, उसमें भी आधे खर्च हो गए। शुक्रवार सुबह घर में बच्चों ने रोटी और सब्जी खाई तो शाम को खिचड़ी का इंतजाम हुआ।