चंदन लगाइबो ई नांय, गाइबे कौ नाम
योगेश जादौन, मथुरा: केवल चंदन लगाइबौ ई नांय, ब्रज-वृन्दावन में याके गाइवे कौ नाम हैए अक्षय तृतीय
योगेश जादौन, मथुरा: केवल चंदन लगाइबौ ई नांय, ब्रज-वृन्दावन में याके गाइवे कौ नाम हैए अक्षय तृतीया। या दिनां ब्रज के मंदिरन में चंदन श्रृंगार अरु श्री विग्रह के चरण दरसन जितनौ आनंद दैमें हैं, वैसौ ही मनौहारी ²श्य यहां संझा कूं हैवे वारी समाज अरु कीर्तन ते उपजै है। जबई तो यहां चंदन दरसन नांय, जे मनोरथ चंदन यात्रा के नाम ने संज्ञित करौ, हमारे साधक आचार्यन नैं। या के काजै चंदन घिसवे की तैयारी कई दिना पहिले ते शुरू है जाय। नारद पुराण में लिखौ है, कि वैशाख शुक्ल पक्ष की तृतीया त्रेता युग की आदि तिथि है, याकू अक्षय तृतीया कहैं हैं । संस्कृति के सिर चढ़ बैठे बाजार के लिए भले ही अक्षय तृतीया का संदेश सोने की खरीद से जुड़ा हो, लेकिन ब्रज में यह दिन ठाकुरजी को चंदन से लेप और श्रृंगार करने का है। इसे यहां चंदन यात्रा कहा जाता है। वृन्दावन में हरिदासी संप्रदाय के सुप्रसिद्ध बांकेबिहारी मंदिर में इस दिन श्रीविग्रह के चरण दर्शन होते हैं। इस दिन ठाकुर जी को शीतल भोग लगाए जाते हैं. बिहारीजी के वर्ष में एक बार होने वाले चरण दर्शन भी इसी दिन होते हैं। अक्षय तृतीया के इस पवित्र मनोरथ पर वृन्दावन के गौड़ीय सप्त देवालयों में ठाकुर जी का चंदन श्रृंगार ब्रज संस्कृति की अपनी विशिष्टता है। यहां चंदन की घिसाई का क्रम कई दिनों पहले से शुरू हो जाता है। चंदन के गोला बना कर रखे जाते है ताकि तीज के दिन ठाकुर जी का श्रंगार किया जा सके।
गो-हित हरिवंश महाप्रभु, स्वामी श्री हरिदास अरु संत प्रवर हरिराम व्यास ने वृंदावन की रज में चंदन का भाव देखा। ब्रज की पोथियों में इस बात का उल्लेख है कि आज से 250-300 बरस पहिले स्थानीय मंदिरों में वृन्दावन की रमणरेती में मदनटेर के पास गोपीचंदन की खदान थी। यहां उपलब्ध रज को विहार चंदन भी कहा जाता। तत्कालीन समय में वृन्दावन के मंदिरों में इस चंदन का इस्तेमाल किया जाता था। संवत 1824 में रचित वृन्दावन प्रकाशमाला पाण्डुलिपि में इस बात का उल्लेख मिलता है। इसके रचनाकार राधावल्लभ सम्प्प्रदाय के गो-श्रीहित चन्द्रलाल जू हैं। राधाबल्लभ सम्प्प्रदाय में इस अवसर पर श्रीजू को शीतल भोग लगाया जाता है। शाम को समाज बैठती है और पदों का गायन किया जाता है। गोस्वामी कमलनयन जी के शिष्य अतिबल्लभ जी ने चंदन यात्रा का उल्लेख इस तरह किया है।
चैत सुदी एकादी, फूलडोल तिथि होय।
सुदद त्रितिया वैशाख कौं, चंदन यात्रा सोय।।
ब्रजभार साहित्य में चन्दन यात्रा की पदावली की समृद्ध परंपरा का जिक्र पुरानी पाण्डुलिपियों में मिलता है। ब्रज शोध संस्थान के डॉ. राजेश शर्मा बताते हैं कि इसमें विभिन्न वैष्णव सम्प्रदाय के साधकों का योगदान है। गोस्वामी कमलनयन, गोस्वामी रूपलाल, किशोरीलाल गोस्वामी, बिहारिनदास, नागरीदास, ध्रुवदास, मोहनदास, दामोदर स्वामी, कृष्णदासअलि मोहन, चतुर्भुजदास, हरिबल्लभ, सहचरि सुख, स्वामी हरिदास जी, पीताम्बरदेव, चाचा वृन्दावनदास, परमानन्द स्वामी, गोविन्द स्वामी, कुंभनदास, सूरदास एवं नंददास आदि वैष्णव साधकों ने चंदन यात्रा के पद लिखे और उनका गायन किया। मथुरा के द्वारिकाधीश मंदिर, श्रीजन्मस्थान के अलावा गोकुल, कामवन, राधाकुण्ड, दाऊजी, नंद गांव बरसाना सहित पूरे ब्रज के मंदिरों में यह मनोरथ ब्रज की अपनी विशेषता है। 18 वीं सदी के साधक चाचा हित वृन्दावन दास के शब्दन में-
चंदन कौ बाँगला चंदन जल छिरक्यौ
चंदन कौ लैप करैं दोऊ कर वर।
चंदन कौ बीजना सुघर अशल ढोरति,
चंदन-सुवास फैली, परम मुदित बैठे चंदन-विटप-तर।।
राजेश शर्मा कहते हैं कि वास्तव में चंदन केवल श्रृंगार की विषय वस्तु नहीं बल्कि ब्रज में इसकी सांस्कृतिक यात्रा देवालयों में लाड़-दुलार के धरातल पर है। ऋतु के अनुकूल ऐसी सेवा शायद ही कहीं देखने को मिले।