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होली के हुड़दंग में प्रेम की पुकार, युद्ध के हथियार

बरसाना की होली के प्रतीकों में है लड़ाई की झलक होली के बहाने नारायण भट्ट ने कराई थी इसकी शुरूआत

By JagranEdited By: Published: Sat, 16 Mar 2019 12:02 AM (IST)Updated: Sat, 16 Mar 2019 12:02 AM (IST)
होली के हुड़दंग में प्रेम की पुकार, युद्ध के हथियार
होली के हुड़दंग में प्रेम की पुकार, युद्ध के हथियार

मथुरा, योगेश जादौन: यह भाव ही तो है जो शब्द के मर्म बदल देता है। नगाड़ा युद्ध का उद्घोष, लठ्ठ लड़ाई का हथियार। मगर, बात बरसाना की हो तो ये आयुध प्रेम की पुकार बन जाते हैं। बरसाना का यही रंग है। यहां सब कुछ रसभरा है। होली की हुंकार में ऐसा गायन जो मस्ती से भर दे। यह लाड़िली की नगरी है यहां सब लाड़ भरा।

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नगाड़ा, ढाल, लठ्ठ, पाग बरसाना की होली के यह प्रमुख साधन हैं। यह सब वही माध्यम हैं जो कभी लड़ाइयों में इस्तेमाल किए जाते थे। बरसाना में यही साधन अपना अर्थ बदल देते हैं। यहां की लठामार होली की शुरूआत नगाड़ा की चौपाई से होती है। यादव मोहल्ला, ठाकुर मोहल्ला, कामर, मनचारी से नगाड़ों की टीम इकट्ठा होती है। ठीक दो बजे सारे नगाड़े प्रियाकुंड पहुंचते हैं। यहां आए नंदगांव के हुरियारों को नगाड़ा की चौपाई से होली की ललकार दी जाती है। यह ललकार विरोधी को उकसाती है और फिर दोनों ओर से शब्दों के तीर से जोश भरा जाता है। नंदगांव से आए हुरियारे सिरों पर पाग बांधते हैं। बांधने का यह ढंग लड़ाई के लिए तैयार होते किसी योद्धा सरीखा होता है। बगलबंदी के नीचे धोती का बंध किसी राजपूती योद्धा की ही तरह। हाथ में ढाल लिए यह हुरियारे जब मस्ती से लाड़िली भवन की तरफ कूच करते हैं तो लगता है किसी जंग की तैयारी है। हुरियारे बरसाना की गलियों में आवाज लगाते गोपियों को ललकारते हैं। यह जंग नहीं वह ढंग है जो कुछ देर बाद उन्हें होली के रंग और गोपियों की लठ की मार में भिगो देगी। मस्ती का यह रंग केवल हुरियारों पर ही नहीं चढ़ता बल्कि दूर दराज से आए श्रद्धालुओं को भिगो देता है। युद्ध के इन हथियारों के बीच एक हथियार और है, वर्दी पर टंगी बंदूक। यह डराती है और कभी झुंझलाहट से भर देती है। मगर, क्या किया जाए यह व्यवस्था का हिस्सा है। व्यवस्था जिसने मस्ती से भरी रंगीली गली को वीआइपी समारोह में बदल दिया है। व्यवस्था के नाम पर रसियों से भरी अनुशासित भीड़ के बीच से जब कोई वीआइपी वाहन गुजरता है तो किलोमीटर पहले से बैरियरों को पार कर आ रहे किसी रसिक के मुंह से बरबस ही आह निकलती है। यह आह तब भी सुनाई देती है जब फोर्स से भरी रंगीली गली में दूर से उमंग के लिए आया कोई परिवार घुस नहीं पाता। मगर यह बरसाना है यहां टेढो-टेढो ग्वाला चले टेढी ही चले बृषभान की छोरी।

बरसाना की होली असल में गोपियों को संभावित खतरों से बचने के लिए लट्ठ चलाने का एक प्रशिक्षण ही था। ब्रज उद्धारक नारायण भट्ट ने इसी सोच के साथ इसकी शुरूआत की थी। ढाल से बचाव और हुरियारों की पोशाक के प्रतीक किसी योद्धा की तरह ही हैं। होली का यह रंग प्रेम का एक दंगल सा ही है। बस, यह रस भरा है और इसका मिजाज अलहदा।

योगेंद्र सिंह छौंकर, बरसाना के इतिहास के जानकार


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