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बिस्मिल संग अशफाल उल्ला खां ने संभाला था मोर्चा

1917 से 1920 तक मैनपुरी को बनाया था अपना गढ़, कोसमा में अपनी बहन के घर से करते थे अगुवाई।

By JagranEdited By: Published: Sun, 05 Aug 2018 09:51 PM (IST)Updated: Sun, 05 Aug 2018 09:51 PM (IST)
बिस्मिल संग अशफाल उल्ला खां ने संभाला था मोर्चा
बिस्मिल संग अशफाल उल्ला खां ने संभाला था मोर्चा

मैनपुरी : 1857 की क्रांति के साथ मंगल पांडेय ने ब्रितानिया हुकूमत के खिलाफ बगावत का ऐलान किया तो पूरे देश में क्रांतिकारियों ने विद्रोह शुरू कर दिया। क्रांति की इस मशाल को मैनपुरी में जलाए रखने का जिम्मा रामप्रसाद बिस्मिल और अशफाक उल्ला खां को सौंपा गया। दोनों ने यहां युवाओं को संगठित कर अंग्रेजी हुकूमत की जडे़ं हिला दीं।

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कृषक प्रधान कही जाने वाली मैनपुरी का इतिहास क्रांतिकारी गतिविधियों से भरा है। बात 1917 से 1920 के बीच की है। इस दौर में अंग्रेजों के खिलाफ मैनपुरी में भी बगावत का बिगुल फुंक चुका था। क्रांतिकारी संगठन मातृवेदी से जुडे़ क्रांतिकारियों ने युवाओं की एक बड़ी फौज तैयार कर ली थी। शहर में इन क्रांतिकारियों का ठिकाना मिशन स्कूल, क्रिश्चियन कॉलेज और आर्य समाज मंदिर था। उस समय जिले में क्रांतिकारियों को संगठित करने की कमान रामप्रसाद बिस्मिल और अशफाक उल्ला खां के हाथों में थी। गोपनीय ढंग से सप्ताह भर तक यहां ठहरकर वे युवाओं को साथ जोड़ते रहे। गतिविधियों की सूचना अंग्रेजी फौजों को हुई तो घेराबंदी कर तलाश शुरू कर दी। फौज से बचने के लिए दोनों क्रांतिकारियों ने शहर छोड़ दिया और बिस्मिल घिरोर के कोसमा में रह रहीं अपनी बहन शास्त्री देवी के घर में पनाह ली थी। यहां जंगलों में रहकर उन्होंने संगठन को मजबूत बनाने के लिए मातृवेदी संगठन के सदस्यों क साथ बैठकें कर अंग्रेजों के साथ लड़ाई लड़ी। उनके प्रयास सफल हुए और कोसमा में ही लगभग 60 से ज्यादा क्रांतिकारियों ने जंग में अपनी शहादत दी।

आज भी बिस्मिल की याद दिलाती हैं स्कूल की दीवारें: दिसंबर 1927 को काकोरी कांड के तहत अशफाक उल्ला खां और रोशन ¨सह के साथ बिस्मिल को फांसी की सजा दी गई थी। उनकी याद में 1969 में उनकी बहन शास्त्री देवी ने गांव के बाहर शहीद रामप्रसाद बिस्मिल के नाम से एक जूनियर स्कूल की नींव डाली थी। 1971 में सरकार ने सरकार ने इस स्कूल को सहायता प्राप्त स्कूल की श्रेणी में शामिल कर सहायता द । 1987 में उनकी बहन शास्त्री देवी और उसके कुछ वर्षों बाद ही उनके पुत्र हरिश्चंद्र का भी निधन हो गया। परिवार के दूसरे सदस्य गांव में घर और जमीन बेचकर कहीं चले गए। स्कूल की जर्जर इमारत पर लिखा शहीद रामप्रसाद बिस्मिल का नाम आज भी शहीद की याद दिला रहा है।


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