Move to Jagran APP

विश्वविद्यालय की कशिश जैसे मां की मोहब्बत

मनीष शुक्ल अगर मेरी जिदगी में लखनऊ विश्वविद्यालय और खासकर गोल्डन जुबिली हॉस्टल नहीं आता त

By JagranEdited By: Published: Wed, 18 Nov 2020 01:05 AM (IST)Updated: Wed, 18 Nov 2020 01:05 AM (IST)
विश्वविद्यालय की कशिश जैसे मां की मोहब्बत
विश्वविद्यालय की कशिश जैसे मां की मोहब्बत

मनीष शुक्ल अगर मेरी जिदगी में लखनऊ विश्वविद्यालय और खासकर गोल्डन जुबिली हॉस्टल नहीं आता तो शायद मैं अधूरा रहता। मेरी शख्सियत बनाने में दोनों का अहम योगदान रहा। लखनऊ विश्वविद्यालय से मेरी पहली मुलाकात 1986 में हुई। मैं तब सहारनपुर में हाई स्कूल में था। बड़े भाई डॉ. उत्कर्ष शुक्ला विश्वविद्यालय में सीपीएमटी की परीक्षा देने आए थे। मैं और पिताजी भी उनके साथ थे। तब सहारनपुर से लखनऊ बहुत दूर लगता था। हमारे एक जानने वाले डॉक्टर साहब के बेटे भी विश्वविद्यालय में पढ़ते थे, तो पिताजी ने कहा, आए हैं तो उनसे भी मिलते चलें। हम विश्वविद्यालय के अंदर चलते चले जा रहे थे। विश्वविद्यालय की भव्यता को देख मैं हतप्रभ था। विश्वविद्यालय की कशिश में मैं उसी तरह बंधता चला गया, जैसे कोई मां की मोहब्बत में गिरफ्तार हो जाता है। विश्वविद्यालय से रूबरू होने का ये पहला मौका था। उसके बाद कुछ ऐसा हुआ कि मैं मेडिकल से सिविल सर्विसेस की तरफ मुड़ा। पहले मैंने लखनऊ क्रिश्चियन कॉलेज में बीएससी में दाखिला लिया। चूंकि लखनऊ विश्वविद्यालय में भी दाखिले के लिए आवेदन किया था, वहां भी मेरिट लिस्ट में नाम आ गया। मैंने आगे की पढ़ाई के लिए विश्वविद्यालय को ही चुना और 17 साल कुछ महीने की उम्र में यहां आ गया। मैं दाखिले की आखिरी तारीख पर विश्वविद्यालय पहुंचा था। अगर उस दिन फीस जमा न होती तो दाखिले में मुश्किल होती। उस दिन डॉ. नीरज जैन के छोटे भाई अनुज जैन, जिनसे मैं पहली दफा मिला था, ने मेरी फीस जमा करके मेरी मदद की थी । बाद में मेरे पिताजी डॉ. नीरज जैन से मिले और उनको यहां एक तरह से मेरा अभिभावक मान लिया। वो मुझे डांटा-फटकारा करते और मैं अदब से सब सुनता। हबीबुल्लाह हॉस्टल मिला, कमरा नंबर तीन में एक साल रहना हुआ। फिर कुछ ऐसा घटा कि विश्वविद्यालय में हॉस्टल खाली करा लिए गए। मैं भी इधर-उधर भटक रहा था। उसके बाद गोल्डन जुबिली हॉस्टल का कमरा नंबर 18 अलॉट हुआ। उस दौर में हम लोग हॉस्टल के सीनियर्स का बेहद अदब करते थे और विश्वविद्यालय के बहुत से शिक्षकों से इतना डरते थे कि उनको आते देख के रास्ता बदल लिया करते थे। उन्नाव का होने के नाते भी लखनऊ ने मुझे हमेशा खींचा। मैं यहां पढ़ने लगा तो मेरी खुशी का ठिकाना नहीं था। कक्षा 11 से मैंने शेर कहना शुरू कर दिया था। हॉस्टल में शेरो-शायरी की महफिल जमती। शेरो-शायरी के साथ पढ़ाई का एक शानदार सफर शुरू हो चुका था। एक से बढ़कर एक गुणी शिक्षक मिले। डॉ. गोपाल सरन सर शानदार शख्सियत के मालिक थे। डॉ. इंदु सहाय, घोष सर, मुट्टू सर, जुत्शी सर, कान्त सर, बलबीर सिंह सर, शुक्ला सर, एपी सिंह साहब..किस-किस का नाम लें, कोई न कोई छूट ही जाएगा। विश्वविद्यालय का कोना-कोना किसी न किसी याद से जुड़ा है। मिल्क बार हमारा अड्डा हुआ करता था। जब शराफत से चाय समोसा खाना होता तो साइंस कैंटीन जाते। विश्वविद्यालय से जुड़े किस्सों की किताब लिखी जा सकती है, फिर भी बहुत कुछ कहने को रह जाएगा। बस इतना कहूंगा.. मेरे जैसा लोहा आखिर सोने में तब्दील हुआ

loksabha election banner

तुझ में शायद वो सब कुछ है जो पारस में होता है..।। (लेखक प्लानिग डिपार्टमेंट में फाइनेंस कंट्रोलर हैं।)


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.