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ऐसे भूख मिटाई आंसू पीए और चोट खाई, आपातकाल की कहानी-लखनऊ के लोकतंत्र सेनानियों की जुबानी

25 जून 1975 से 21 मार्च 1977 तक 21 महीने की अवधि में भारत में आपातकाल घोषित था। सरकार के विरुद्ध षडयंत्र रचने के आरोपों में कई लोगों को जेल भेज दिया गया। शुक्रवार को आपातकाल की बरसी है। उस दौरान जेल गए लखनऊ के लोकतंत्र सेनानियों ने आपबीती बताई।

By Vikas MishraEdited By: Published: Fri, 25 Jun 2021 10:56 AM (IST)Updated: Fri, 25 Jun 2021 10:56 AM (IST)
25 जून 1975 से 21 मार्च 1977 तक 21 महीने की अवधि में भारत में आपातकाल घोषित हुआ था।

लखनऊ, (जितेंद्र उपाध्याय)। 25 जून 1975 से 21 मार्च 1977 तक 21 महीने की अवधि में भारत में आपातकाल घोषित हुआ था। इस दौरान सरकार के विरुद्ध षडयंत्र रचने के आरोपों में कई लोगों को जेल भेज दिया गया। शुक्रवार को आपातकाल की बरसी है। उस दौरान जेल गए लखनऊ के लोकतंत्र सेनानियों ने आपबीती बताई, जहां लोगों के लिए खाने-पीने तक की व्यवस्था नहीं थी। कुछ कहने पर मारा-पीटा जाता था।

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पेटभर खाने के लिए करना पड़ता था आंदोलनः 25 जून 1975 की रात में इमरजेंसी की घोषणा हुई। सरकार की ओर से गिरफ्तारी के लिए बसों और ट्रकों को भेजने की जिम्मेदारी आरटीओ को दी गई थी। दिवंगत भगवती ङ्क्षसह के साथ लाटूश रोड स्थित आरटीओ कार्यालय गया। भगवती जी का कुछ काम था। कुर्सी पर इज्जत के साथ बिठाया और फिर कुछ लोग फोन करने लगा। जैसे ही फोन उठाया मैंने फोन उठाकर फेंक दिया। पूर्व एमएलसी रामसागर मिश्रा ने मुझे बताया कि तुम्हारी गिरफ्तारी हो जाएगी। वहां से साइकिल से भागा और फिर पुलिस के हाथ नहीं लगा। एक सप्ताह बाद हरियाणा के रोहतक के लिए रवाना हो गया। चौधरी चरण ङ्क्षसह ने नौ अगस्त को क्रांति दिवस की घोषणा की और सभी को जिलों में गिरफ्तारी देने का आदेश दिया। मैं पांच अगस्त को राजधानी आ गया। छह अगस्त को रिफ्यूजी मार्केट के पास मैं पान खा रहा था कि पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। 18 महीने जेल में रहा। मेरे ताऊ जी राम नारायण शुक्ला भी स्वतंत्रता सेनानी थे। ऊपर से सख्त आदेश की वजह से जेल में प्रताडऩा होती थी। पेटभर खाना भी नहीं मिलता था, जिसके लिए आंदोलन करना पड़ता था। बैरक मेें बंद मैं और कई लोग इसका विरोध कर देते थे। डेढ़ साल बाद जेल से रिहा हुआ तो सोशलिस्ट की विचारधारा को जीवन में उतार कर आगे बढ़ते रहे। -शारदा प्रताप शुक्ला, पूर्व मंत्री 

मैं जेल में और मेरे पैजामे के साथ हुआ गौना 

आलमबाग में भीड़ को बुलाकर सभा करने और सरकार के खिलाफ लोगों को भड़काने के आरोप में सात सितंबर 1975 को गिरफ्तार कर लिया गया। पहले कृष्णानगर के केशवनगर में रहता था। कृष्णानगर पुलिस ने गिरफ्तार किया, लेकिन कृष्णानगर में हवालात नहीं थी, वहां से आलमबाग थाने लाया गया। हवालात में एक चोर और एक पागल पहले से बंद थे। पागल रातभर बाथरूम करता और फिर उसे पी जाता। उसकी स्थिति देखकर रात कटना मुश्किल था। नौ जनवरी 1977 तक जेल में बंद रहा। मेरी शादी हो चुकी थी, लेकिन गौना नहीं आया था। गौने की तारीख आ गई तो पिता दल बहादुर त्रिपाठी आए और जेल से मेरा पैजामा लेकर गए। मेरी पत्नी सुनीता तिवारी मेरे घर आ गर्ईं। मेरे साथ बंद हुए राम सागर मिश्रा का नैनी जेल में स्थानांतरण होने लगा। तभी मंैने विरोध करना शुरू कर दिया। जिला प्रशासन के एडीएम टीएन मिश्रा समझाने आए तभी राम सागर मिश्रा ने एडीएम को थप्पड़ जड़ दिया। इसी बीच राम सागर मिश्रा जी का जेल मेें ही निधन हो गया। उन्हीं के नाम पर रामसागर मिश्र नगर बसाया गया जो वर्तमान में इंदिरानगर है। -रमाशंकर त्रिपाठी, एलडीए कॉलोनी, कानपुर रोड 

आटा गूथते हाथों में पड़ जाते थे छाले

लखनऊ विवि के छात्रावास में रहता था। जनसंघ से जुड़ाव होने के कारण मैं नाना जी देशमुख का आदर करता था। नाना जी ने एक कार्यकर्ता को बचाने के लिए पुलिस की लाठी को अपने हाथ पर रोक लिया था, जिससे उनका हाथ टूट गया। बिहार में हुई इस घटना के बाद मैं नानाजी के सिद्धांतों के और करीब आ गया। विद्यार्थी परिषद का सह महामंत्री होने के कारण मैं छात्र राजनीति में भी सक्रिय था। जनसंघ की ओर से मुझे राजधानी आए नानाजी देशमुख को चिी देने के लिए कहा गया। मैं खुश था कि इसी बहाने उनसे मुलाकात भी हो जाएगी। पत्र लेकर निकला तो किसी मुखबिर ने कैसरबाग पुलिस को सूचना दे दी। कैसरबाग पुलिस ने मेरी तलाश शुरू कर दी। मैंने भी ठान लिया था कि मैं चिट्ठी पहुंचाकर ही रहूंगा। उस समय कैसरबाग जाते समय ओडियन के पास नाला हुआ करता था। पुलिस ने नाकेबंदी कर मुझे पकडऩा चाहा तो मैंने पहले नानाजी देशमुख की गुप्त चिी को चबा लिया। कागज के दूसरे बंडल को मैंने नाले में फेंक दिया। फिर क्या था। पुलिस का कहर टूटा और मेरी खूब पिटाई हुई, लेकिन मैंने नानाजी देशमुख का ठिकाने का पता नहीं बताया। 30 जून 1975 को मुझे गिरफ्तार कर जेल भेज दिया। जेलर नाराज होता था तो भंडारे में भेज देता था। भंडारे में आटा गूथते हुए हाथों में छाले पड़ जाते थे, जब खाना खाने बैठता था तो आगे से थाली खींच लेते थे। -राजेंद्र तिवारी, इंदिरानगर

आओ बताते हैं कि हवाई जहाज कैसे बनाता है 

तख्ता पलट की साजिश रचने और सत्याग्रह करने के आरोप में मुझे 25 नवंबर 1975 मेें गिरफ्तार कर लिया। मेरी उम्र 15 साल थी। हाईस्कूल की परीक्षा दे चुका था। हसनगंज पुलिस ने लखनऊ विवि के पास से मुझे इसलिए गिरफ्तार कर लिया कि मैं अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से जुड़ा था। गिरफ्तारी के बाद छह दिन तक मुझे हसनगंज कोतवाली मेें रखा गया। तत्कालीन दारोगा ने मुझे पंखे से लटका दिया और बोला, आओ अब तुम्हे बताते हैं कि हवाई जहाज कैसे बनता है। दारोगा ने पैरों पर डंडा बरसाना शुरू कर दिया। मेरे पिता मुंशीराम शर्मा रेलवे में नौकरी करते थे। उनसे भी दारोगा ने नहीं मिलने दिया। छह दिन बाद सूरज त्रिवेदी, गणेश राय, सुरेश व बसंत के साथ मुझे जिला कारागार में रख दिया गया। सुविधाएं तो दूर, खाना तक सही नहीं मिलता था। एक दिन सभी ने मिलकर हंगामा करना शुरू कर दिया। पीएसी बुलाकर जेल में जमकर लाठीचार्ज हुआ। मेरी मां विद्या शर्मा मुझे देखने के लिए परेशान थीं। पिता जी तो कई बार मुझसे मिलने आए, लेकिन माता जी को साथ लाने में संकोच करते थे। उनको दिलासा देते रहे। इसके बाद मुझे फतेहगढ़ जेल भेज दिया गया। करीब सवा साल मैं जेल से रहा। जेल में पढऩे की सुविधा थी तो जेल से ही इंटर किया और बीएएमएस पहले वर्ष की पढ़ाई भी जेल से की।- डा. अजय शर्मा, इंदिरानगर


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