स्वतंत्र होकर आजीवन विद्यार्थी बने रहना संगीत में ही संभव है : शुभा मुद् गल
प्रख्यात गायिका शुभा मुद् गल के साथ लेखक यतींद्र मिश्रा के सवाल-जवाब का सिलसिला शुरू हुआ तो बात ठुमरी के साथ आगे बढ़ी। इस दौरान गायिकी के विविध आयामों पर चर्चा हुई।
लखनऊ, (दुर्गा शर्मा)। संवाद के साथ सुरों ने संगत की। मुस्कराहट के प्रश्न के साथ प्रख्यात गायिका शुभा मुद् गल से लेखक यतींद्र मिश्रा के सवाल-जवाब का सिलसिला शुरू हुआ। ठुमरी के साथ बात आगे बढ़ी। गायिकी के विविध आयामों को छूते हुए बेगम अख्तर और अमृत लाल नागर के जिक्र संग समापन हुआ। कर्टेन रेजर की ओर से रेनेसां होटल में संगत कार्यक्रम का आयोजन किया गया था।
यतींद्र मिश्र ने पूछा, संगीत में वह क्या चीज है जो किसी को मुस्कराने की वजह देता है? शुभा मुद्गल का जवाब था, नौकरी या अन्य कोई काम करती तो दबाव में रहती। स्वतंत्र होकर आजीवन विद्यार्थी बने रहना संगीत में ही संभव है, यही मुस्कराहट की वजह भी। ठुमरी और लखनऊ के संबंध पर कहा कि वाजिद अली शाह ने भी ठुमरी गाई थी। हमने बंदिश की ठुमरी के रूप में इसे सीखा। लखनऊ में इसका परिपक्व रूप बंदिश की ठुमरी है। बनारस में लोक संगीत का अंश ठुमरी में आया। ललन पिया ठुमरी के सम्राट थे। संगीत नाटक अकादमी ने 'ललन पिया की ठुमरियां' किताब छापी थी। उस संग्रह में अधर बंद ठुमरी है, जो दुर्लभ है।
शुभा जी ने 'सखी सैय्या की सूरतिया जियरा हरे' सुनाया और बात उनकी गायिकी के आगाज पर आ टिकी। बोलीं, माता-पिता अंग्रेजी साहित्य पढ़ाते थे पर संगीत प्रेमी थे। दोनों स्कूटर में बैठकर शाम को बनारस चले जाते। सांगीतिक कार्यक्रम का आनंद लेते और सुबह वापस आ जाते। वे हमेशा पढऩे के साथ कला और संगीत से जुडऩे को कहते थे। इलाहाबाद में सेंट मेरीज कान्वेंट में पढ़ती थी। इंटर में सिस्टर यूजिनिया ने पिता से मुझे संगीत प्रशिक्षण का आग्रह किया। तय हुआ कि कमला बोस जी की संगीत कक्षा में मैं जाऊंगी। उसके बाद इलाहाबाद विवि के एक कार्यक्रम में गुरु रामाश्रय जी के सामने अधूरी तैयारी के साथ मीरा बाई का भजन गाया। जाने उन्हें मेरी गायिकी में क्या नजर आया कि उन्होंने कुछ दिन बाद मुझे प्रशिक्षण देने के लिए बुला लिया।
फैज अहमद फैज ने नाम की शायरी
फैज अहमद फैज का इलाहाबाद आना हुआ था। गुरु रामाश्रय जी मोपेड में बैठाकर हिंदुस्तानी एकेडमी के हॉल ले जा रहे थे। रास्ते में बोला कि जिस लड़की को सिखाया उसका गला खराब हो गया है। मुझे गाने को कहा तो देवनागरी में पन्ने में 'शामे फिराक अब न पूछ' लिखा और सुना दिया। प्रस्तुति के बाद फैज जी ने उस पन्ने पर हस्ताक्षर कर कहा- ये गजल तुम्हारे नाम करता हूं। रवींद्र कालिया की किताब में इस प्रसंग का जिक्र भी है।
ऐसा बना बन्ना-बन्नी...
म्यूजिक टूडे ने विवाह गीतों पर प्रोजेक्ट शुरू किया। नैना देवी जी को काम सौंपा गया। सितंबर में उनका देहांत हो गया। उसके बाद यह जिम्मेदारी मुझे सौंपी गई। फिल्म निदेशक जफर नकवी ने मदद की। 500 गीतों का संग्रह तैयार हुआ। बन्ना और बन्नी एल्बम बनाए।
नैना देवी को किया याद
नैना जी से भैरवी के दादरे से तालीम की शुरुआत हुई। 'जिया मा लागी आन-आन' सिखा रही थीं । बार-बार मुझे टोकतीं पर मैं समझ नहीं पाती। तब उनकी ठुमरी में सम की अहमियत और भाव को लेकर दी सीख हमेशा याद रही। उन्होंने महज शिष्या नहीं परिवार का सदस्य समझकर रखा।
चुनौतीपूर्ण है पाश्र्व गायिकी
फिल्मों के लिए गाने में अलग-अलग किरदारों की आवाज बनना चुनौतीपूर्ण है। राग संगीत के नियम और तालीम अलग होती है। बंदिश द्वारा राग को विस्तार से प्रस्तुत करते हैं। फिल्मी संगीत बंधा हुआ है। म्यूजिक डायरेक्टर रचना देता है, उसे आवाज देनी होती है। म्यूजिक डायरेक्टर जिस तरह चाह रहा उसे वैसे ही समझना, सीखना और गाना अलग चुनौती है।
तकनीक ने छिना काम
कई कलाकारों के पास वाद्य यंत्रों का अनूठा संग्रह है। आज उन यंत्रों को बजवाने वाला कोई नहीं है। तकनीक ने कलाकारों का काम छिन लिया है। कुछ सॉफ्टवेयर बेसुरों को सुर में ले आते हैं। यह दु:खद परिवर्तन है।
इंडी पॉप के पीछे की कहानी
1999 में दिल्ली के स्टूडियो में जवाहर जी शास्त्रीय संगीत रिकॉर्ड कर रहे थे। उन्होंने प्रस्ताव रखा कि कुछ गीत बनाना चाहते हूं, जिसमें तबले, हारमोनियम के साथ की-बोर्ड भी रखा। 'अली मोरे अंगना' पहला गीत रिकॉर्ड किया। ब्रेक थ्रू संस्था के साथ 'मन के मंजीरे' रिकॉर्ड किया।
अमृतलाल नागर का जिक्र
अमृत लाल नागर की ये कोठेवालियां किताब में उस समय महफिल में गाने वाले क्रांति गीतों का जिक्र है। चुन-चुन के फूल ले लो अरमान न रह जाए... सुनाया।