दृष्टिबाधितों तक यूं खुशियां पहुंचा रहा ये शख्स, ऐसे एक वाकये ने बदली लाइफ
ब्रेल लिपि में गजलों की किताबों के साथ दृष्टिबाधित ब'चों के पास पहुंचाते हैं रोहित।
लखनऊ[दुर्गा शर्मा]। किताबें महज शब्दों और पन्नों का पुलिंदा भर नहीं हैं। इनमें लिखने वाले का तजुर्बा छिपा होता है। दूसरे के अनुभव हमें जीने का सलीका समझाते हैं। जिंदगी के सफर में किताबों को हमसफर बनाने वाला कभी अकेला नहीं होता। कुछ ऐसे लोग भी होते हैं, जो खुद तो किताबों से प्यार करते ही हैं, औरों की भी पुस्तकों से दोस्ती करवाते हैं। आइए पुस्तक दिवस पर एक ऐसे शख्स से आपको मिलवाते हैं।
दृष्टिबाधितों तक पुस्तकों के रूप में रोहित खुशियां बांट रहें है। उन्होंने वर्ष 2007 के एक वाकये का जिक्र करते हुए बताया, एक बार ट्रेन से दिल्ली से लखनऊ आ रहा था। पास में कुछ किताबें थीं। एक बच्ची ने किताब मागी। मैंने दे दिया। वह बच्ची दृष्टिबाधित पिता को किताब पढ़कर सुनाने लगी। वह किताब शेरों-शायरी की थी। पिता ने कहा, काश मैं इसे खुद पढ़ पाता। तब लगा ब्रेल में पठन-पाठन की सामग्री तो मौजूद है पर मनोरंजन के लिए ज्यादा कुछ नहीं है। तभी से इस दिशा में काम का विचार आया। अब तक का काम
रोहित बताते हैं, मीर तकी मीर, गालिब, गुलजार, जावेद अख्तर समेत तमाम शायरों की गजलों का ब्रेल लिपि में प्रकाशन। वर्ष 2012 में जगजीत सिंह की पहली पुण्यतिथि पर 'ख्वाबों का कारवा' किताब ब्रेल में प्रस्तुत की थी। तब से अब तक दो दर्जन से ज्यादा गजल संग्रह दृष्टिबाधितों तक पहुंचा चुके हैं। ब्रेल में कुछ किताबें
डॉ. बशीर बद्र की 'घर छोड़ के मत जाओ', अशोक चक्रधर की 'जरा मुस्कुरा तो दे', गोपाल दास नीरज की 'लिखे जो खत तुडो', मनीष शुक्ला की 'रोशनी जारी करो' आदि। गजल कैसे कहें पर केंद्रित किताब भी ब्रेल लिपि में आ चुकी है। विभिन्न राज्यों से भी जुड़े
जम्मू कश्मीर, गुजरात, दिल्ली, महाराष्ट्र, उप्र समेत तमाम राज्यों के दृष्टिबाधित स्कूलों तक किताबें पहुंचा चुके हैं। किताबें इसलिए जरूरी
रोहित कहते हैं, किताबें दवा का काम करती हैं। भारत भूषण पंत जी का एक शेर मुझे बहुत प्रेरित करता है. ''अभी तक जो नहीं देखा वो मंजर देख लेते हैं, चलो आपस में हम आखें बदलकर देख लेते हैं।''