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विजय दिवस: कारगिल युद्ध में गोली खाकर भी देश पर न अाने दी अांच, ये हैं जीत के जांबाज

जांबाजों ने अपनी यूनिट, रेजीमेंट और देश की आन रखने के लिए वह कर दिखाया जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी।

By Edited By: Published: Thu, 26 Jul 2018 11:49 AM (IST)Updated: Fri, 27 Jul 2018 07:19 AM (IST)
विजय दिवस: कारगिल युद्ध में गोली खाकर भी देश पर न अाने दी अांच, ये हैं जीत के जांबाज
विजय दिवस: कारगिल युद्ध में गोली खाकर भी देश पर न अाने दी अांच, ये हैं जीत के जांबाज

लखनऊ (जेएनएन)। 1999 के कारगिल युद्ध पर पूरे विश्व की नजरें थीं। विश्व मान चुका था कि भारत के लिए पाकिस्तान से अपनी पोस्ट छुड़ा पाना अब नामुमकिन है। आज तक दुनिया की कोई फौज इतनी ऊंचाई पर बैठे दुश्मन को नहीं हरा सकी थी, लेकिन यह भारतीय सेना थी जिसके जांबाजों ने अपनी यूनिट, रेजीमेंट और देश की आन रखने के लिए वह कर दिखाया जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। भारतीय जाबाजों ने गोली खाकर भी मौर्चा नहीं छोड़ा। कारगिल विजय दिवस की 19वीं वर्षगाठ पर दैनिक जागरण आपको उन जाबाजों के बारे में बता रहा है।

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बीमार पत्नी को छोड़कर लिया मोर्चा: शहीद लास नायक केवलानंद द्विवेदी की पत्नी कमला की तबीयत बहुत खराब थी। पत्नी को देखने वह दो साल के बाद 26 मार्च 1999 को घर आए थे। अभी वह पत्‍‌नी का उपचार करवा ही रहे थे कि कारगिल में युद्ध छिड़ गया। केवलानंद बीमार पत्नी और दो छोटे मासूम बच्चों हेमचंद व तीरथराज को छोड़कर 30 मई को वापस कारगिल रवाना हो गए। छह जून को जमकर घमासान हुआ। ऊंचाई पर बैठे दुश्मन की एक गोली उनके सीने के पार हुई। वह अंत समय तक मोर्चा लेते हुए शहीद हो गए।

सुनील ने आठ साल की उम्र में ही तय किया था फौजी बनाना: कारगिल युद्ध में शहर का सबसे पहले शहीद होने वाला जाबाज सुनील ही था। रायफलमैन सुनील जंग महज ने आठ साल की उम्र में ही फौजी बनने का सपना देख लिया था। सुनील को 10 मई 1999 को उसकी 1/11 गोरखा राइफल्स की एक टुकड़ी के साथ कारगिल सेक्टर पहुंचने का आदेश मिला। 15 मई को भीषण गोलीबारी में कुछ गोलिया उनके सीने में जा लगी। ऊंचाई पर बैठे दुश्मन की एक गोली सुनील के चेहरे पर लगी और सिर के पिछले हिस्से से बाहर निकल गई। सुनील वहीं पर शहीद हो गए।

ध्वस्त किए दुश्मनों के बंकर: छह जून 1997 को 11 गोरखा रायफल में कमीशन प्राप्त करने वाले कैप्टन मनोज पाडेय की तैनाती सियाचिन में हुई। नंबर पाच प्लाटून का नेतृत्व कर रहे कैप्टन मनोज पाडे को दो व तीन जुलाई की मध्य रात्रि सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण खालूबार पोस्ट को मुक्त कराने का लक्ष्य दिया गया। कैप्टन मनोज दुश्मनों के चार बंकरों पर कूच कर गए। पहले बंकर में दो दुश्मनो को मारा, दूसरे बंकर पर कब्जा जमाया और फिर तीसरे बंकर को तबाह करने के लिए आगे बढ़े तब ही दुश्मनों का गोला उनके सामने आकर गिरा। कंधे व पैर बुरी तरह घायल होने पर भी कैप्टन मनोज ने तीसरे बंकर को तबाह किया। चौथे व अंतिम बंकर पर भी वह कब्जा कर रहे थे कि दुश्मनों की गोलिया उनके सीने में लग गईं। शहीद होने से पहले कैप्टन मनोज ने चौथे बंकर पर तिरंगा लहरा दिया।

जान देकर जोड़ा संपर्क: लद्दाख स्काउट के साथ ही कैप्टन आदित्य 19 जून 1999 को बटालिक सेक्टर पहुंचे। यहा दुश्मनों के कब्जे से 17 हजार फीट ऊंची प्वाइंट 5203 पोस्ट को छुड़ाने के लिए उनकी लद्दाख स्काउट ने दुश्मनों पर आक्त्रमण कर दिया। पोस्ट पर भारतीय कब्जा हो गया। उसके बाद कैप्टन आदित्य टुकड़ी के साथ नीचे की ओर आ गए। कैप्टन आदित्य संचार लाइन बिछाने दोबारा पोस्ट पर गए तो दुश्मनों ने हमला बोल दिया। कैप्टन आदित्य घायल हो गए, लेकिन वह फिर उठे और तब तक नहीं रुके जब तक संचार लाइन बिछ नहीं गई। संचार लाइन शुरू करने के बाद कैप्टन आदित्य मिश्र शहीद हो गए।

मासोक्कोह सेवियर बने रीतेश: शहर के मेजर रीतेश शर्मा को कारगिल युद्ध में मश्कोह सेवियर का खिताब मिला। हालाकि उनकी शहादत कारगिल युद्ध समाप्त होने के बाद एक आतंकी ऑपरेशन में हुई। लामार्टीनियर कॉलेज से पढ़ाई के बाद नौ दिसंबर 1995 को मेजर रीतेश शर्मा को सेना में कमीशन मिली। वह 30 मई 1999 को 15 दिनों की छुट्टी के लिए घर आए थे। इस बीच सूचना मिली कि जाट रेजीमेंट के जवानों की पेट्रोलियम टुकड़ी की कारगिल में कोई खोज खबर नहीं मिल रही।

यूनिट से कोई संदेश मिले बिना ही मेजर रीतेश अपनी 17 जाट रेजीमेंट पहुंच गए। छह व सात जुलाई की मध्य रात्रि मश्कोह घाटी फतह करते हुए मेजर शर्मा घायल हो गए। मेजर शर्मा ने अपनी कमान सेकेंड इन कमाड कैप्टन अनुज नैयर को सौंपी। कैप्टन नैयर शहीद हुए और उनकी 17 जाट रेजीमेंट ने मश्कोह घाटी में तिरंगा लहरा दिया। उनकी यूनिट को इसके लिए मश्कोह सेवियर के खिताब से नवाजा गया।


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