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अयोध्या विवाद को कोर्ट तक पहुंचने में लग गया 430 साल का समय, अब फिर सुनवाई

सुप्रीम कोर्ट चार जनवरी को जिस मामले की सुनवाई करने जा रहा है उसकी जड़ें 490 वर्ष पुरानी हैं। विवाद की नींव 1528 में पड़ी। हालांकि इसको कोर्ट तक पहुंचने में 430 साल का समय लग गया।

By Nawal MishraEdited By: Published: Tue, 01 Jan 2019 07:24 PM (IST)Updated: Wed, 02 Jan 2019 11:09 PM (IST)
अयोध्या विवाद को कोर्ट तक पहुंचने में लग गया 430 साल का समय, अब फिर सुनवाई
अयोध्या विवाद को कोर्ट तक पहुंचने में लग गया 430 साल का समय, अब फिर सुनवाई

लखनऊ, जेएनएन। राम जन्म भूमि-बाबरी मस्जिद मसले पर शिया वक्फ बोर्ड सुप्रीम कोर्ट में अपना पक्ष रखेगा। इसके लिए बोर्ड ने अधिवक्ताओं की टीम तैयार कर ली है। चार जनवरी से होने वाली सुनवाई में शिया वक्फ बोर्ड की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता एमसी धींगरा व एसपी सिंह मौजूद रहेंगे। जरूरत पड़ी और अधिवक्ताओं को भी लगाया जाएगा। उल्लेखनीय है कि सुप्रीम कोर्ट जिस मामले की सुनवाई करने जा रहा है उसकी जड़ें 490 वर्ष पुरानी हैं। विवाद की नींव 1528 में पड़ी। हालांकि इस विवाद को कोर्ट तक पहुंचने में 430 साल का समय लग गया। 

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शिया वक्फ बोर्ड सुप्रीम कोर्ट में मजबूती से रखेगा पक्ष 

शिया वक्फ बोर्ड के चेयरमैन वसीम रिजवी ने आज अधिवक्ताओं के साथ बैठक कर यह निर्णय लिया कि अयोध्या मसले पर सुप्रीम कोर्ट में बोर्ड अपना पक्ष मजबूती से रखेगा। उन्होंने कहा कि अयोध्या की विवादित मस्जिद को बाबर के सेनापति मीर बाकी ने बनवाया था। वह शिया मुस्लिम थे। इसलिए यह जमीन शिया वक्फ की हुई। इसके लिए सुप्रीम कोर्ट में शिया वक्फ बोर्ड पहले ही हलफनामा व पर्याप्त साक्ष्य दे चुका है। उन्होंने कहा कि शिया वक्फ बोर्ड पहले ही विवादित भूमि पर राम मंदिर बनने के पक्ष में है। यहां का एक भी टुकड़ा मस्जिद बनाने के लिए नहीं लेना चाहिए। सुन्नी वक्फ बोर्ड व ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड इस मसले पर देश का माहौल खराब कर रहे हैं। जबकि, यह मामला बातचीत से हल हो सकता है। लेकिन जानबूझ कर ऐसा माहौल तैयार किया जा रहा है ताकि यह मामला उलझा रहे। 

त्रेतायुगीन मंदिर के लिए संघर्ष

हिंदू पक्षकारों के अनुसार अयोध्या में रामजन्मभूमि पर त्रेतायुगीन मंदिर था जिसका समय-समय पर जीर्णोद्धार होता रहा और 1528 में मुगल आक्रांता बाबर के आदेश पर मंदिर तोड़ कर बाबरी का निर्माण कराया गया। वहां बाबरी तो बन गई पर यह कभी निरापद नहीं रह पाई। रामजन्मभूमि मुक्त कराने का संघर्ष तब से जारी है। संघर्ष के शुरुआती दिनों में हिंदू पक्ष को विवादित स्थल के सामने चबूतरा बनाने का अधिकार मिला और इसी चबूतरे पर मंदिर निर्माण कराने की इजाजत लेने के लिए निर्मोही अखाड़ा के तत्कालीन महंत रघुवरदास ने 1885 में सिविल कोर्ट का आश्रय लिया। विवाद को लेकर 1934 में स्थानीय स्तर पर दंगा हुआ और एक पक्ष ने विवादित इमारत को काफी हद तक क्षति पहुंचाई। ब्रिटिश हुक्मरानों ने स्थानीय हिंदुओं पर कर लगाकर विवादित इमारत की मरम्मत कराई।

रामलला के प्राकट्य का दावा यानी नए सिरे से विवाद

1949 में विवादित इमारत में रामलला के प्राकट्य का दावा किया गया। यह दौर विवाद को नए सिरे से अदालत में ले जाने वाला साबित हुआ। विवादित स्थल के स्वामित्व का दावा लेकर निर्मोही अखाड़ा 1959 में एवं सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड 1961 में अदालत पहुंचा। लोअर कोर्ट सुनवाई के बाद हाईकोर्ट ने विवाद का निर्णय तो किया पर वह किसी पक्ष को मान्य नहीं हुआ। हाईकोर्ट के निर्णय में विवादित स्थल को तीन हिस्सों में विभाजित किया गया, जिस स्थल पर रामलला विराजमान हैं, उसे रामलला को, रामलला के दक्षिण का हिस्सा सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड को तथा सीता रसोई एवं रामचबूतरा का हिस्सा निर्मोही अखाड़ा को दिए जाने का एलान किया गया।


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