भाजपा के विद्रोही सांसद तलाश रहे विपक्ष में सुरक्षित ठिकाना
सपा-बसपा गठबंधन और दलित आंदोलन से भाजपा के दलित सांसद राह बदलने को प्रेरित है। इसके बाद एक-दो और अब तीन सांसद मोर्चा खोल चुके हैं।
लखनऊ (जेएनएन)। बहराइच की भाजपा सांसद सावित्री बाई फुले अपनी ही पार्टी और सरकार के विरोध में मुखर हुईं तो सियासी गलियारों में हलचल मच गई। वह संविधान बचाओ-आरक्षण बचाओ रैली से सुर्खियों में आ गईं। इसके बाद राबर्ट्सगंज के सांसद छोटेलाल खरवार और इटावा के सांसद अशोक दोहरे ने मोर्चा खोल दिया। अब सवाल उठना स्वाभाविक है कि भाजपा के दलित सांसद ही क्यों विरोध में मुखर हो रहे हैं। विद्रोह के जरिए विपक्षी खेमे में अपने ठिकाने की तलाश है। सपा-बसपा गठबंधन और बढ़ते दलित आंदोलन से भाजपा के दलित सांसदों को राह बदलने के लिए प्रेरणा मिल रही है।
मतदाता छिटकने का डर
मोदी की प्रचंड लहर में 2014 में लोकसभा चुनाव जीतने वाले इन सांसदों को अपने मतदाताओं के छिटकने का डर सता रहा है। इसलिए वह विपक्ष के मुद्दे पर अपना सुर तेज कर एक तीर से दोहरा निशाना साध रहे हैं। अव्वल तो वह अपने समाज की और दूसरे बगावती तेवर से विपक्ष की सरपरस्ती हासिल करना चाहते हैं। गोरखपुर और फूलपुर में हुए उपचुनाव में बसपा के सहयोग से सपा को मिली जीत के बाद इन सांसदों की भाषा बदली और इनके तेवर बगावती हुए हैं। सपा-बसपा गठबंधन के बाद इन्हें वहां उम्मीद नजर आ रही है। हालांकि भाजपा के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं कि भाजपा ने दूसरे दलों से आने वालों को मौका देकर सांसद और विधायक बनाया लेकिन, दलबदलू अपनी आदत से बाज नहीं आते हैं।
सपा-बसपा पृष्ठभूमि के तीनों विद्रोही
बहराइच की सांसद साध्वी सावित्री बाई फुले की राजनीतिक शुरुआत बसपा से हुई। बसपा ने उन्हें 2000 में जिला पंचायत सदस्य चुनाव में समर्थन नहीं दिया तो वह निर्दल लड़ी और जीत गईं। फिर भाजपा में शामिल हुईं। 2012 में बलहा से विधायक और फिर 2014 में बहराइच से भाजपा के टिकट पर सांसद चुनी गईं। राबट्र्सगंज के सांसद छोटेलाल खरवार लोक गायक रहे हैं। पहले वह सपा के मंचों पर गाते और राजनीति करते थे। वह अपने गांव के प्रधान भी बने लेकिन, 2014 से पहले भाजपा में प्रवेश मिला और सांसद बन गए। इटावा के सांसद अशोक दोहरे भी बसपा में रहे। वह मायावती सरकार में मंत्री भी रहे लेकिन बसपा ने उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया था। भाजपा ने इन तीनों को संसद में पहुंचाया लेकिन, अब इनकी भूमिका अपनी ही पार्टी के खिलाफ हो गई है। भाजपा के एक सांसद कहते हैं कि ये दूसरे दलों के हाथों में खेल रहे हैं।
टिकट कटने का अंदेशा
भाजपा ने निकाय चुनाव के दौरान पार्टी के विधायक, मंत्रियों के अलावा सांसदों को भी जिम्मेदारी सौंपी थी। चुनाव में कुछ सांसदों ने तो पार्टी लाइन पर काम किया और कुछ अपने परिवारीजन और चहेतों के लिए परेशान रहे और टिकट न मिलने पर विरोध भी जताया। पर, कुछ सांसदों ने बिल्कुल निष्क्रियता दिखाई। ऐसे सांसद पहले भी भाजपा के निर्धारित कार्यक्रमों से कटे रहे। कई तो 2017 के विधानसभा चुनाव में भी कटे-कटे से रहे। भाजपा संगठन ने पार्टी स्तर पर एक आकलन कराया और कुछ क्षेत्रों में उम्मीदवार बदलने का मन बना लिया। इसकी भनक इन सांसदों को भी लगी। चूंकि संभावित उम्मीदवारों की क्षेत्र में सक्रियता बढ़ गई और संगठन से भी मदद मिलने लगी इसलिए खौफ में इन लोगों ने विद्रोही सुर अपना लिया।