प्रासंगिक : पुलिस वाले भी होते हैं राज्य कर्मचारी, बहुत दूर तक चलती है चढ़ावे की ट्रेन
गरज यह कि रोजमर्रा के कामों में जिस पुलिस से हमारा वास्ता पड़ता है और जिसकी छवि नकारात्मक है, वह यही अराजपत्रित संवर्ग है। वसूली करती है तो यह मान लिया जाता है कि इसने अपने लिए की।
लखनऊ [आशुतोष शुक्ल]। कुछ दिन पहले बाराबंकी में एक सिपाही आत्महत्या कर लेती है। कारण निकल रहा है ड्यूटी लगाने में उसके साथ किया गया भेदभाव। भीषण तनाव के कारण पुलिस कर्मियों के अपनी जान देने के और भी उदाहरण हैं।
इसके पहले एक दारोगा छुट्टी न मिलने पर नौकरी ही छोड़ देता है। किसी सरकारी नौकरी में भाषा, भाव वेतन और सम्मान का वर्गीय विभाजन देखना हो तो पुलिस से बेहतर उदाहरण नहीं। इसका एक वर्ग अखिल भारतीय और राज्य सेवाओं का है और दूसरा सिपाही और दारोगा वाला। पहला वर्ग संभ्रांत, विशिष्ट और काम्य है जबकि दूसरा इस सम्मान से वंचित। कठिनाई यह कि आम लोगों का काम केवल दूसरे वर्ग से पड़ता है। चौराहे पर वाहन चेकिंग करता सिपाही मिलता है, छात्रों को डपटने दारोगा जाता है, अवैध कब्जे हटाने यही दोनों जाते हैं और बाजारों से लेकर सिनेमा हॉल के बाहर भी यही पुलिस दिखती है।
गरज यह कि रोजमर्रा के कामों में जिस पुलिस से हमारा वास्ता पड़ता है और जिसकी छवि नकारात्मक है, वह यही अराजपत्रित संवर्ग है। यह वसूली करती है तो यह मान लिया जाता है कि इसने अपने लिए की। यह सोचना कोई नहीं चाहता कि थाना यदि नीलाम हो रहा है, चौकियां अगर बिक रही हैं तो यह तिजारत करा कौन रहा? बाजारों में सब्जी का ठेला खड़ा करने के भी अगर रेट तय हैं तो यह कमाई जा कहां तक रही।
चढ़ावे की ट्रेन बहुत दूर तक चलती है लेकिन, खलनायक वह पुलिसवाला है जिसे हफ्ते में एक छुट्टी भी नहीं मिलती। साप्ताहिक अवकाश का यह प्रश्न भी जाने कब से निरुत्तर चल रहा है। पानी हमेशा ऊपर से ही बहता है। हर नागरिक का सबसे अधिक साबका नगर निगमों से पड़ता है लेकिन, जब वे ही अतिक्रमण कराने लगे तो कोर्ट ने इसे हटाने का काम भी पुलिस को सौंप दिया। क्या नगर निगम अधिकारियों को अतिक्रमण के लिए जवाबदेह नहीं बनाया जा सकता? नागरिक सुविधाएं देने की पहली जिम्मेदारी नगर निकायों की होती है।
लखनऊ का विवेक तिवारी हत्याकांड जघन्य व लोमहर्षक है। इसकी आड़ में धरना-प्रदर्शन की कोशिश करने वाले चंद लोगों पर कड़ी कार्रवाई न्यायोचित है। सभी सुरक्षा बलों को अनुशासन और मर्यादा के दायरे में ही रहना होगा। वर्दी की धमक इसी अनुशासन का फलित है। फिर भी यह अवसर है आत्मनिरीक्षण का। इस घटना को एक बड़े अवसर की तरह लिया जाना चाहिए। पुलिस सुधारों की बातें सब करते हैं लेकिन, उन्हें लागू करने की इच्छाशक्ति कभी कोई सरकार नहीं दिखा सकी। केंद्र का विषय, पैसों की कमी, संसाधनों का अभाव जैसे कितने ही तर्क हमेशा तलाश लिए गए।
इस समय भी दारोगा, सिपाही और इंस्पेक्टर के एक लाख तीस हजार पद खाली हैं। 50 हजार की आबादी पर शहर में और 75 हजार की आबादी पर देहात में एक थाना होना चाहिए जबकि 20 करोड़ वाले यूपी में थाने केवल 1463 हैं। कुछ समझे ! यानी जितने थाने अभी हैं, उसके दोगुने भी बना दिए जाएं तो भी मानक पुरा नहीं होगा। राज्य सरकार यदि पुलिस की छवि बदलना चाहती है, उसे उसके अधिकार देना चाहती है, यदि राज्य की कानून व्यवस्था की स्थिति में दीर्घकालीन और स्थायी सुधार चाहती है, उसे जनोन्मुख बनाना चाहती है तो उसे अंग्रेजों के जमाने की पुलिस का पूरा चरित्र बदलना होगा, नीचे से ऊपर तक पुलिस की मानसिकता बदलनी होगी और इसके लिए 1861 के पुलिस एक्ट को शत्रुभाव से देखना होगा। खामी की जड़ वहीं है, इसलिए शुरू से शुरू करना होगा।
काम कठिन है लेकिन फिर हल्के कामों में काहे का पुरुषार्थ...!