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प्रासंगिक : भूख ! ले, तेरी भी जाति तय

मथुरा में हुई जहां एक ब्राह्मण परिवार के कुछ लोगों को को एक झूठे केस में फंसाकर जेल भिजवा दिया गया और कतई गलत आरोप लगाने वाली इस महिला ने सरकार से मुआवजा भी ले लिया।

By Dharmendra PandeyEdited By: Published: Mon, 17 Sep 2018 10:49 AM (IST)Updated: Mon, 17 Sep 2018 01:20 PM (IST)
प्रासंगिक : भूख ! ले, तेरी भी जाति तय
प्रासंगिक : भूख ! ले, तेरी भी जाति तय

लखनऊ [आशुतोष शुक्ल]।एक लोमहर्षक घटना मथुरा में हुई जहां एक ब्राह्मण परिवार के कुछ लोगों को को एक झूठे केस में फंसाकर जेल भिजवा दिया गया और कतई गलत आरोप लगाने वाली इस महिला ने सरकार से मुआवजा भी ले लिया। तीन दिन पहले शुक्रवार को सच सामने आया तो अनुसूचित जाति जनजाति आयोग ने मुआवजे की रकम वापस लेने का आदेश दिया।

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रकम वापस हो जाएगी लेकिन, ब्राह्मण परिवार को मिली मानसिक यातना का मुआवजा कौन और कितना तय करेगा? दहेज विरोधी अधिनियिम और एससी एसटी एक्ट के दुरुपयोग को लेकर पहले भी लगातार शिकायतें आती रही हैं। यह भी कोई छिपी बात नहीं कि अगड़ी जातियां भी एससी एसटी एक्ट का सहारा लेकर अपने विरोधियों को जेल पहुंचाती रही हैं लेकिन, प्रश्न यह है कि उस ब्राह्मण परिवार को जो सामाजिक दंश मिला, उसका मुआवजा कौन देगा? उस परिवार के डरे सहमे बच्चे कई दिन खाना भी नहीं खा सके थे। उनकी भूख का भी कोई मुआवजा हो सकता है क्या? यह तय कौन करेगा और देगा कौन? सवर्णों को नव वंचित विभूषित कर चुकी राजनीति में तो यह साहस नहीं।

जो राजनीति तटस्थ, निरपेक्ष और समभाव न रह सकी, वह भला कल्याणकारी कैसे होगी? जाति जिसके लिए सामाजिक बुराई और कलंक न होकर वोट बैंक हो चुकी हो, वह निर्मम राजनीति जाति का कलुष भला कैसे धो सकेगी? जातीय अहंकार जिसके लिए वोट पोषण की अनिवार्यता बन चुकी हो, वह राजनीति जाति को खांचों और खेमों से अलग करके भला कैसे देखेगी।

...और कहां हैं मानवाधिकार संगठन? कहां हैं प्रगतिशील साहित्य के लंबरदार? कहां हैं खुद को धर्म और जाति निरपेक्ष बताने वाले क्रांतिकारी रचनाधर्मी? कहां हैं वर्गीय विमर्श के वे पैरोकार जो मनुष्यधर्मी न हो सके? जाति विहीन समाज के निर्माण में सबसे बड़ी बाधा जातीय संगठन हैं जो अपनी बिरादरी के आगे सोच नहीं पा रहे और इसीलिए राजनीति निरंकुश है।

नहीं तो क्या यह संभव है कि बड़ी संख्या में सरकार से नाराज लोग सड़क पर उतरे हुए हों लेकिन, विपक्ष उन्हें हाथ भी लगाने को तैयार न हो। यही हुआ केंद्र सरकार द्वारा एससी एसटी एक्ट में किए गए संशोधन के खिलाफ भारत बंद के दौरान। हजारों लाखों प्रदर्शनकारी अपना रोष प्रकट कर रहे थे परंतु छोटी-छोटी बातों पर सत्ताधारी दल को घेरने वाला विपक्ष खामोश था। सवर्ण और पिछड़े सवाल पूछ रहे थे और विपक्ष चुप था। पक्ष विपक्ष दोनों मौन ! राजनीति की यह वह विडंबना थी जिसने तर्कों और विवेक को परास्त कर दिया था। खोने के डर ने दलों की आग ठंडी कर दी थी।

इन दिनों वैसे भी यूपी में जाति जलवा दिखा रही है। भाजपा जमकर जातीय सम्मेलन कर रही है और विपक्ष को यह सुहा नहीं रहा। पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव तो कह ही चुके हैं कि चुनाव सामने देख भाजपा जाति में जाति निकाल रही है। उधर भाजपा है कि अखिलेश के बयान के दो ही दिन बाद उसने यादव सम्मेलन कर डाला। यहां तक फिर गनीमत थी लेकिन सम्मेलन में तो भाजपा को यादवों का मूल दल बता दिया गया।

राजनीति यह नहीं समझ पाती कि राज्य की ब्रांडिंग उसकी दैनिक सामाजिक गतिविधियों से होती है और यह बड़े बड़े शामियानों और ब्रांडिंग फर्मों के बूते की बात नहीं...! 


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