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प्रासंगिक : सरकारें बदलती हैं, शहर नहीं-नगर निकायों और विकास प्राधिकरणों की विफलता

उत्तर प्रदेश के शहर यहां के नगर निकायों और विकास प्राधिकरणों की विफलता और भ्रष्टाचार की वह बदरंग तस्वीर हैं जिसे साफ करने की इच्छाशक्ति और हिम्मत कोई सरकार नहीं दिखा सकी।

By Dharmendra PandeyEdited By: Published: Sun, 19 Aug 2018 10:32 AM (IST)Updated: Sun, 19 Aug 2018 11:41 AM (IST)
प्रासंगिक : सरकारें बदलती हैं, शहर नहीं-नगर निकायों और विकास प्राधिकरणों की विफलता
प्रासंगिक : सरकारें बदलती हैं, शहर नहीं-नगर निकायों और विकास प्राधिकरणों की विफलता
  • पाठक महोदय ! एक प्रश्न खुद से पूछें। नागरिक सुविधाओं की दृष्टि से डेढ़, दो या दस-पांच बरसों में आपके जीवन में क्या कोई बदलाव आया? गली की गंदगी कम हुई क्या? मुहल्ले की सड़कों और बाजारों के बेतहाशा अवैध कब्जे हटे क्या? अपनी इमारत में पार्किंग आप कर पाते हैं या फिर बेसमेंट में भी दुकानें बनवाकर बिल्डर ने वह जगह खुद को उपहार दे दी है? सरकारी अस्पतालों में संवेदना और सुविधा और दवाएं कुछ बढ़ीं क्या?

लखनऊ राजधानी है और बनारस प्रधानमंत्री का संसदीय क्षेत्र, लिहाजा कुछ हद तक ये भाग्यशाली हैं वरना तो उत्तर प्रदेश के शहर यहां के नगर निकायों और विकास प्राधिकरणों की विफलता और भ्रष्टाचार की वह बदरंग तस्वीर हैं जिसे साफ करने की इच्छाशक्ति और हिम्मत कोई सरकार नहीं दिखा सकी।

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अफसर हर विचारधारा की सरकार में सेट हो जाते हैं और नेताओं के स्वार्थ कभी बदलते नहीं तो नगर भी नरक बने रहते हैं। शहरों की धनाढ्य बस्तियों, छावनी और अधिकारियों की रिहाइश वाले इलाकों में तो फिर भी गनीमत है वरना तो सब तरफ सरकारी उपेक्षा के दस्तखत हैं। संभल, बिजनौर, आजमगढ़, बहराइच, रायबरेली, जालौन और फतेहपुर जैसे शहरों में स्ट्रीट लाइट, सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट, सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट और पार्किंग विदेशी भाषा के वे शब्द हैं जिनके अर्थ बेचारी जनता कभी नहीं बूझ सकी।

लखनऊ को हम हांडी का चावल मान लें तो सार्वजनिक परिवहन में देश के 111 शहरों की सूची में उसका नंबर 73वां है। यहां तो फिर भी नगर बसें दिख जाती हैं, बाकी हर शहर इनके लिए तरसता है। डब्ल्यूएचओ के मानकों पर लखनऊ में करीब तीन हजार सफाई कर्मी कम हैं और करीब साढ़े पांच लाख मकानों में केवल डेढ़ लाख में डोर टू डोर कूड़ा उठान योजना चल पा रही है। सीवर लाइन यहां अंग्रेजों के समय की है। 2007 में 1200 करोड़ रुपये की लागत से नई लाइन डाली तो गई लेकिन, वह पूरे तौर पर काम नहीं कर रही क्योंकि घरों की सीवर लाइन से उसे अब भी नहीं जोड़ा जा सका है।

उत्तर प्रदेश में ईमानदार घंटों लाइन में लगकर बिल अदा करते हैं जबकि यहां पर बेईमानों के लिए सरकार एकमुश्त समाधान योजना ले आती है। जाति-धर्म की पैरोकार सभी राज्य सरकारों के कामकाज पर इससे शर्मनाक टिप्पणी नहीं हो सकती कि केंद्रीय शहरी विकास मंत्रालय ने पिछले दिनों ईज ऑफ लिविंग इंडेक्स की जो सूची जारी की, उसमें उत्तर प्रदेश का कोई भी शहर टॉप टेन में जगह नहीं बना सका।

शहरों में भारतीय जनता पार्टी के मेयर और पार्षदों का बहुमत बरसों से हैं लिहाजा उनकी प्रशासनिक विफलता का जिम्मा भी भाजपा को ही लेना पड़ेगा। पिछले चार सालों के विस्तार को छोड़ दें तो भाजपा शहरों की ही पार्टी थी। उत्तर प्रदेश के लोग यदि मूलभूत शहरी सुविधाओं को तरसते हैं, यदि पूर्वांचल का लोक आज भी अपने पुरुषों को तीज त्यौहार में घर बुलाने के लिए अभिशप्त है तो यह उनकी विडम्बना है और राजनीति घोर विफलता।

उत्तर प्रदेश के एक मौजूदा मंत्री से पूछा गया कि आप अवैध कब्जे क्यों नहीं हटाते? जवाब था-लखनऊ के दो मंत्री हटने नहीं देते। 


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