खास नहीं अब आम बनने की चुनौती
लखनऊ। पिछले दो दशकों में काग्रेस सूबे में लोकसभा सीटों के लिहाज से सामान्य तौर पर एक राजन
लखनऊ। पिछले दो दशकों में काग्रेस सूबे में लोकसभा सीटों के लिहाज से सामान्य तौर पर एक राजनीतिक दल के रूप में जनता की पसंद बनने के बजाय कुछ प्रभावशाली राजनीतिक परिवारों के प्रदर्शन पर टिकी रही है। लीडर के तौर पर गाधी परिवार के साथ-साथ कुछ अन्य पुराने काग्रेसी परिवार भी इसमें शामिल हैं। बीच में एक ऐसा दौर भी आया जब लीडरशिप देने वाला परिवार परिदृश्य से गायब रहा तो हालात और भी खराब हो गए। सतीश शर्मा ने दूत के तौर पर दो बाद अमेठी सीट जाती लेकिन परिवार से नजदीकी रखने वाले विक्त्रम कौल और दीपा कौल कामयाब नहीं हुए, अलबत्ता शीला कौल ने दो
बार रायबरेली सीट जाती। फर्रुखाबाद में काग्रेस से पुराने और करीबी रिश्ते वाले परिवार की विरासत को आगे बढ़ा रहे सलमान खुर्शीद के चलते पार्टी मुकाबले में होती है। यही स्थिति शाहजहापुर की है जहा पहले जितेन्द्र प्रसाद काग्रेस को मुकाबले में रखते थे
तो अब उनके बेटे जितिन प्रसाद धौरहरा से यही भूमिका निभा रहे हैं। यही स्थिति नूर महल की रामपुर में है जहा बेगम नूर बानो अपने शौहर जुल्फिकार अली खान उर्फ मिक्की मिया की सियासी विरासत को काग्रेस के झडे तले बढ़ा रही हैं। ऐसे ही हालात में
कालाकाकर की राजकुमारी रत्ना सिंह हैं जो जवाहर लाल नेहरू की सरकार में मंत्री रहे अपने पिता राजा दिनेश सिंह के सियासी रसूख के सहारे प्रतापगढ़ में काग्रेस का परचम मजबूती से उठाए हुए हैं। घोसी में कल्पनाथ राय की पत्नी सुधा राय ने भी अपने पति की विरासत संभालने की कोशिश कई बार की लेकिन कामयाबी उनसे
दूर रही। बीते चुनाव में काग्रेस चुनिंदा चेहरों और सियारी रसूख वाले परिवारों से बाहर निकल कर नए लोगों को भी लोकसभा में भेजने में कामयाब रही थी। मौजूद हालात में पिछले ट्रेंड को बरकरार रखना काग्रेस के लिए चुनौती है लेकिन चूक हुई तो फिर चुनिंदा चेहरों पर ही माजरा सिमट जाने का अंदेशा है जो बमुश्किल दहाई तक पहुंचता है।
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