फैलते शहर, सिकुड़ते नाले और पटते जलाशयों से निकला ड्रेनेज का दम, यूपी के 707 शहरों में से सभी बेहाल
यदि आप अपने शहर की जलभराव की समस्या से आजिज आ चुके हैं तो इसे अपनी आदत में डाल लीजिए क्योंकि उत्तर प्रदेश के छोटे-बड़े 707 में से कोई भी शहर ऐसा नहीं है जहां ऐसे हालात न हों।
लखनऊ [अजय जायसवाल]। यदि आप अपने शहर की जलभराव की समस्या से आजिज आ चुके हैं तो इसे अपनी आदत में डाल लीजिए, क्योंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का संसदीय क्षेत्र वाराणसी हो या मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का गोरखपुर या उत्तर प्रदेश के छोटे-बड़े 707 में से कोई भी शहर, सभी जगह यही हालात हैं। वाराणसी और गोरखपुर के जिक्र के मायने यह नहीं कि संकट मौजूदा सरकार की ही देन है, बल्कि हैरत की बात ये है कि इस ओर आज तक किसी भी सरकार ने ध्यान नहीं दिया।
अंग्रेज तत्कालीन आबादी के हिसाब से ड्रेनेज की जो व्यवस्था बना गए, उसमें विस्तार तो दूर, सरकारी तंत्र की अनदेखी से नाले सिकुड़ते गए, जलाशय पटते गए और ड्रेनेज का दम निकल गया। विडंबना यह है कि इस समस्या से निपटने के लिए राज्यस्तर पर अभी भी न कोई योजना है और न ही फंड, इसलिए झेलते रहिए जलभराव।
दरअसल, बेहतर बुनियादी जनसुविधाओं और रोजगार की तलाश में गांवों से शहरों की ओर पलायन बढ़ता ही जा रहा है। बढ़ती शहरी आबादी की तुलना में 707 निकायों (17 नगर निगम, 200 नगर पालिका परिषद व 490 नगर पंचायत) द्वारा बुनियादी जन सुविधाओं को लेकर अपने कर्तव्य को न निभाने से वे चरमराती जा रही हैं। थोड़ी देर की बारिश में ही ज्यादातर शहरों को जलभराव से जूझते देखा जा सकता है।
इस मुसीबत के पीछे कुछ लोगों के निजी स्वार्थ और उस पर सरकार व नगरीय निकायों की उदासीनता ही ज्यादा जिम्मेदार है, क्योंकि 48 फीसद शहरी क्षेत्र में आज भी स्टॉर्म वाटर ड्रेनेज नहीं है। इसके उलट, जमीन की बढ़ती मांग से भू-माफिया जहां चौड़े नालों, झील-जलाशयों और खाली सरकारी भूमि पर तेजी से कब्जा जमाते जा रहे हैं, वहीं सरकारी महकमे भी पक्के नाले बनाने में उनके दायरे को घटा दे रहे हैं। यातायात के दबाव में सड़कें तो चौड़ी हो रही हैं, लेकिन नाले-नालियां सिकुड़ते भी चले जा रहे हैं। जो बचे हैं, वे भी पॉलीथिन आदि से पटे पड़े हैं।
ड्रेनेज सिस्टम के बारे में सोचा ही नहीं : लखनऊ के नगर निगम, विकास प्राधिकरण और आवास विकास परिषद में मुख्य नगर नियोजक रहे जीएस गोयल का स्पष्ट तौर पर मानना है कि समग्रता में ड्रेनेज सिस्टम के बारे में गंभीरता से सोचा ही नहीं गया। जो प्राकृतिक सिस्टम अंग्रेजों के जमाने से थे, उनसे भी छेड़छाड़ हो रही है। मसलन, चिरैया झील पर फ्लैट तो गोमतीनगर के कैचमेंट एरिया में भी आबादी बसा दी गई। अवैध कब्जों से मोती झील पटती जा रही है और हैदर कैनाल सहित शहर के तमाम अहम नाले सिकुड़ते जा रहे हैं। हमें सिर्फ निकायों के भरोसे नहीं, बल्कि राज्य स्तर से भी ड्रेनेज प्लान बनाने व उनके क्रियान्वयन पर फोकस करना होगा।
फीडबैक सही मिले तो हो नियोजन : उत्तर प्रदेश के मुख्य नगर एवं ग्राम नियोजक अनूप कुमार श्रीवास्तव का कहना है कि शहरों के बढ़ते दायरे के मद्देनजर मास्टर प्लान बनाते वक्त हम नगरीय निकायों व अन्य से फीडबैक मांगते हैं। अच्छे ड्रेनेज सिस्टम के लिए स्लोप ग्रेडिएंट (ढाल) की अहमियत होती है। ऐसे में आंकड़ों के सही फीडबैक से हम जल निकासी जैसी जनसुविधा को भी बेहतर ढंग से नियोजित कर सकते हैं।
नीतियों की नए सिरे से करेंगे समीक्षा : उत्तर प्रदेश के नगर विकास मंत्री आशुतोष टण्डन का कहना है कि निश्चित तौर पर ड्रेनेज सिस्टम पर और ध्यान देने की आवश्यकता है। जलभराव की समस्या के तमाम कारण हैं, जिनसे निपटने के लिए नगरीय निकायों को कड़े निर्देश दिए गए हैं। जलभराव से निदान को शहरों में ड्रेनेज की सु²ढ़ व्यवस्था के लिए राज्य सरकार, निकायों का पूरा सहयोग भी करेगी। संबंधित नीतियों आदि की नए सिरे से समीक्षा की जाएगी। नवोन्मेषी विचारों को ध्यान में रखते हुए निजी व सरकारी सहभागिता (पीपीपी) पर भी विचार किया जाएगा।
चाहिए 25 हजार करोड़ से ज्यादा : शहरों में ड्रेनेज के मुकम्मल सिस्टम के लिए अगले पांच वर्षों के दौरान 25,390.51 करोड़ रुपये के खर्च का अनुमान है, यानी प्रति व्यक्ति औसतन 7767.07 रुपये की आवश्यकता है। सिर्फ नगर निगम वाले बड़े शहरों के लिए ही 9330 करोड़, नगर पालिका परिषद वाले नगरों के लिए 10,911 करोड़ और नगर पंचायतों वालों के लिए 5149 करोड़ रुपये चाहिए। गौरतलब है कि ज्यादातर निकायों की वित्तीय सेहत खराब ही है। हालांकि, एसडीजी (सतत विकास लक्ष्य)-11 के तहत सन् 2030 तक शत-प्रतिशत ड्रेनेज सिस्टम का लक्ष्य है।
शहरों पर यूं बढ़ता आबादी का दबाव : उत्तर प्रदेश में ड्रेनेज सहित चरमराती अन्य बुनियादी जनसुविधाओं के पीछे शहरों की बढ़ती आबादी प्रमुख कारण है। अंदाजा इससे लगा सकते है कि 2001 में 3.45 करोड़ लोग शहर में रहते थे जो 2011 में बढ़कर 4.95 करोड़ हो गए और 2025 तक 7.32 करोड़ होने का अनुमान है। इनमें से 23 फीसद से अधिक आबादी तो मलिन बस्तियों की है।
शहरी क्षेत्र का दायरा 6840 वर्ग किमी : शहरों की आबादी ही नहीं तकरीबन 29 फीसद की दशकीय वृद्धि दर से बढ़ रही है बल्कि नगरों का दायरा भी 6840 वर्ग किलोमीटर से कहीं अधिक हो चुका है। इसमें नगर निगमों का क्षेत्रफल जहां लगभग 2043 वर्ग किलोमीटर है वहीं नगर पालिका परिषदों का 2175 और नगर पंचायतों का 2622 वर्ग किलोमीटर पहुंच चुका है।
मेरठ में आज तक नहीं बना ठोस प्लान : ड्रेनेज की बात करें तो मेरठ शहर को बानगी के रूप में लेते हैं क्योंकि उत्तर प्रदेश के लगभग हर शहर की व्यवस्था एक जैसी है। जरा सा पानी बरसा और सड़कें लबालब। 26 साल पहले मेरठ को नगर निगम का दर्जा मिला, लेकिन जल निकासी का ठोस प्लान आज तक नहीं बन सका। 24 घंटे के भीतर 100 मिमी पानी यदि बरसा तो लगता है जैसे कई इलाकों में बाढ़ का पानी घुस आया हो। प्रदेश में दस लाख से अधिक आबादी वाले हर शहर की स्थिति ऐसी ही है, वह चाहे राजधानी लखनऊ हो, आगरा हो, प्रयागराज हो या फिर गोरखपुर और वाराणसी। गोरखपुर जैसे शहर में अभी मास्टर प्लान तैयार हो रहा है। वाराणसी में योजना बनी तो 253 करोड़ रुपये गटर में चले गए। राजधानी लखनऊ में ही नालों की सफाई पर सालाना दस करोड़ रुपये खर्च हो जाते हैं, लेकिन सिर्फ एक घंटे की बारिश में शहर के हर क्षेत्र में जलजमाव हो जाता है।
ड्रेनेज सिस्टम बढ़ती आबादी व मोहल्लों के नीचे दफन : बरेली नगर का 30 फीसद हिस्सा ड्रेनेज सिस्टम से अछूता है तो मुरादाबाद में 112 नालों के जरिये जल निकासी होती है जिनमें करीब दो दर्जन चोक पड़े हैं। मेरठ की तरह अलीगढ़ को भी नगर निगम का तमगा मिले 26 साल बीत चुके हैं। शहर की सीमा में 12.976 किमी पर फैला अलीगढ़ ड्रेन निकासी का प्रमुख स्रोत है। सहायक नगर आयुक्त राजबहादुर सिंह स्वीकार करते हैं कि लोगों ने नालों पर अतिक्रमण कर सीवर लाइन इसी में जोड़ दी, जिससे ड्रेनेज व्यवस्था बैठ गई। प्रयागराज में 1860 में अंग्रेजों ने बेहतर ड्रेनेज सिस्टम का निर्माण कराया था। लेकिन, बढ़ती आबादी और मोहल्लों के नीचे वह दफन होकर रह गई। शहर में करीब 2,18,000 मकान हैं और शहरी क्षेत्र का विस्तार करीब 164 वर्ग किलोमीटर में है। यही हाल वाराणसी का था जहां कभी दुनिया की सबसे बढिय़ा ड्रेनेज व्यवस्था थी।
जरा जेम्स प्रिंसेप को भी याद कर लें : प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी का जिक्र किए बिना यह चर्चा बेमानी होगी। 1827 में यहां ईस्ट इंडिया कंपनी के अंग्रेज अधिकारी जेम्स प्रिंसेप ने 24 किमी का शाही नाला बनवाया था। यह नाला ड्रेनेज सिस्टम की नजीर बना। ड्रेनेज सिस्टम के लिए उन्होंने शाही सुरंगों को उपयोग में लिया। दो सौ साल बाद भी बनारस की ड्रेनेज व सीवेज व्यवस्था उसी जेम्स प्रिंसेप के शाही नाले के भरोसे है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसकी सुधि ली और इसकी जीर्णोद्धार शुरू हुआ। जब यह नाला बनाया गया तब बनारस की आबादी महज एक लाख 80 हजार थी, आज 20 लाख के पार है इसलिए समस्या जलभराव की समस्या विकराल है।
ये है 10 लाख से अधिक आबादी के प्रमुख शहरों का हाल
- लखनऊ : आबादी लगभग 40 लाख। 1709 नाले, जिनमें बड़े नाले 534। फिर भी कई मोहल्ले बदहाल
- वाराणसी : आबादी 20 लाख। वर्ष 2015 में नया बना स्टार्म वॉटर सिस्टम पूर्व की सपा सरकार में जल निगम की धांधली की भेंट चढ़ गया। 253 करोड़ की थी यह योजना।
- गोरखपुर : आबादी करीब 13 लाख। 11 बड़े, 123 मझौले और 96 छोटे नाले। 80 पंपिंग सेट की व्यवस्था।
- बरेली : आबादी करीब 15 लाख। 137 नाले लेकिन बढ़ते मोहल्लों के लिए अपर्याप्त।
- अलीगढ़ : आबादी लगभग 13 लाख। 29 संपर्क नालों का पानी पहुंचता है अलीगढ़ ड्रेन तक।
- मेरठ : 10 लाख से अधिक आबादी वाले 10 गंदे शहरों में सातवां स्थान। तीन बड़े नाले और 300 छोटी-बड़ी नालियां।
- प्रयागराज: आबादी करीब 15.36 लाख। जल निकासी के लिए कुल 482 नाले, लेकिन शहर के विस्तार के हिसाब से अपर्याप्त।
- आगरा : नगर निगम के सौ वार्ड में 446 नाले। सबसे बड़ी समस्या-हर दिन 50 टन से अधिक कूड़ा नालों में डाला जाना।