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Doctors Day: पत्नी की याद में इलाज तो कोई असंभव को भी बना रहा संभव Lucknow News

पांच माह की गर्भवती की डिलीवरी को असंभव से बना दिया संभव तो कोई सही राह दिखाने का काम भी कर रहा है। डॉक्टर्स डे पर शहर के चिकित्सकों ने साझा किए कुछ पल।

By Divyansh RastogiEdited By: Published: Mon, 01 Jul 2019 10:05 AM (IST)Updated: Mon, 01 Jul 2019 07:03 PM (IST)
Doctors Day: पत्नी की याद में इलाज तो कोई असंभव को भी बना रहा संभव Lucknow News
Doctors Day: पत्नी की याद में इलाज तो कोई असंभव को भी बना रहा संभव Lucknow News

लखनऊ[दुर्गा शर्मा/ दीप चक्रवर्ती]। सफेद एप्रन और आला। यह पोशाक है धरती के भगवान की। भगवान इन्हें इसलिए कहा जाता है क्योंकि ये जान बचाने का ईश्वरीय काम करते हैं। मरीज को दूसरा जन्म देकर उम्मीद खो चुके उनके परिवार वालों को एक नया सवेरा देते हैं। इनका यही सेवाभाव इन्हें लोगों की श्रद्धा का पात्र बना देता है। हममें से ही एक, हम जैसे ही, किंतु जीवन देने का काम इन्हें दैवीय बना जाता है। शायद इसीलिए इनकी पोशाक भी धवल है। डॉक्टर्स डे पर शहर के चिकित्सकों ने उन पलों को साझा किया, जिन्हें याद कर ये खुद भी डॉक्टरी के पेशे पर गर्व कर उठते हैं। 

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संतोष देता है सेवा भाव: डॉ. अशोक कुमार अग्रवाल, पूर्व विभागाध्यक्ष डिपार्टमेंट ऑफ फिजिकल मेडिसिन एंड रिहैबिलिटेशन (डीपीएमआर), केजीएमयू।

विवेकानंद हॉस्पिटल में कंसल्टेंट डॉ. एके अग्रवाल विगत चालीस वर्ष से चिकित्सकीय सेवा के जरिए दिव्यांगजन को समानता का तोहफा दे रहे हैं। इस तोहफे के जरिए पोलियो ग्रस्त और कुष्ठ रोगी सामान्यजन की तरह जीवन जी रहे हैं। डॉ. अग्रवाल बताते हैं, 15 साल पहले की बात है। रायबरेली में एक चिकित्सकीय शिविर करके अपने टीम मेंबर के साथ लौट रहा था। स्टेशन पर एक ‘अनोखी ट्रेन’ खड़ी देखी। हम पास गए और अपना परिचय दिया। पता चला कि अंतरराष्ट्रीय संस्था इंपैक्ट इंडिया के ‘लाइफ लाइन प्रोजेक्ट’ के अंतर्गत इस ट्रेन का संचालन किया जा रहा है। ट्रेन में चार पोस्ट ऑपरेटिव वार्ड थे। देश के रिमोट एरिया में जाकर लोगों का इलाज करते थे। कान्सेप्ट रोचक लगा और मैं भी इससे जुड़ गया। उसके बाद शुरू हुआ लोगों की सेवा का सिलसिला आज भी जारी है। वह बताते हैं, दस साल पहले की बात है। भारत सरकार का प्रोजेक्ट था। प्लास्टिक सर्जरी डिपार्टमेंट और पीएमआर, केजीएमयू के संयुक्त तत्वावधान में कैंप आयोजित किए जाते थे। सीतापुर, बाराबंकी और हरदोई आदि जगहों पर जाकर कैंप किए। प्लास्टिक सर्जरी के बाद पोस्ट ओपरेटिव ट्रीटमेंट के लिए लिंब सेंटर में भर्ती करते थे। सारा उपचार नि:शुल्क किया जाता था। करीब 300 कुष्ठ रोगियों का जीवन संवरा है।

सही राह दिखाना भी है काम

डॉ. अग्रवाल बताते हैं, माता-पिता अपने एक साल के बच्चे को लेकर आए थे। उसके पंजे सुन्न थे, पर उसका कुष्ठ रोग का उपचार चल रहा था। हमने उसकी एमआरआइ कराई तो रीढ़ की हड्डी में दिक्कत का पता चला। अभिभावकों को सही रास्ता दिखाने के साथ ही उस बच्चे का उपचार आज भी चल रहा है और बेहतर परिणाम मिले हैं।

पत्नी की याद में करते सेवा

15 साल पहले कैंसर के कारण पत्‍नी स्नेहलता अग्रवाल का साथ छूट गया। उनकी याद में फैमिली मेंबर हर साल धनराशि जमा करते हैं। उस धनराशि से जरूरतमंदों को बैसाखी का वितरण किया जाता है। लिंब सेंटर में सोशल वर्कर के पास फंड भी जमा करवाते हैं, जिसका प्रयोग गरीब मरीजों के इलाज में किया जाता है।

मस्तिष्क ज्वर के मरीजों के लिए भी काम

गोरखपुर जाकर मस्तिष्क ज्वर पर सर्वे का मौका मिला। फिर उन मरीजों के पुनर्वास का काम शुरू किया। लिंब सेंटर में इन मरीजों के लिए जेई वार्ड शुरू किया।


चिकित्सा संग नेकी का सफर: डॉ. अभिषेक अग्रवाल, असिस्टेंट प्रोफेसर, डिपार्टमेंट ऑफ आर्थोपेडिक्‍स , केजीएमयू।

केजीएमयू से एमएस आर्थोपेडिक्‍स  में गोल्ड मेडलिस्ट रहे डॉ. अभिषेक अग्रवाल का चिकित्सा संग नेकी का सफर खास है। 2013 में केदारनाथ-बद्रीनाथ में बाढ़ से आई त्रसदी में बचाव कार्य के लिए बनाई रेस्क्यू टीम का हिस्सा रहे। 2015 में नेपाल में आए भूकंप के समय भी वहां जाकर लोगों की चिकित्सकीय मदद की। साथ ही समय-समय पर स्वास्थ्य और दिव्यांगता राहत शिविरों का भी हिस्सा होते हैं।

वह बताते हैं, एक रोड एक्सीडेंट का केस था। हेड इंजरी के साथ लेफ्ट पैर डैमेज था। न्यूरो की प्रॉब्लम की वजह से ऑपरेशन के बाद रेगुलर एक्सरसाइज न होने से पैर करीब 90 डिग्री मुड़ गया। जवान ऊर्जावान लड़के को वॉकर से चलते देख कष्ट होता था। रिस्क लिया और ऑपरेट किया। आज वह बिना वॉकर के अपने पैरों पर खड़ा है, चलता-फिरता है। वह और उसका परिवार जब मिलता है, आंखों में खुशी के आंसू होते हैं। एक और केस छत्तीसगढ़ की बच्ची का है। एक महीने की बच्ची का एक पैर छोटा था। हर जगह से थक हारकर बच्ची की मां मेरे पास आई। उसकी हड्डी बढ़ाने के लिए मशीन लगाई।

 

असंभव को संभव किया : डॉ. रेखा सचान, प्रोफेसर, क्वीनमेरी अस्पताल। 

लगभग दो साल पहले एक पांच माह की गर्भवती अस्पताल में भर्ती की गई थी। उसे इक्लेम्शिया (प्रेग्नेंसी में ब्लड प्रेशर बढ़ना) की दिक्कत थी। महिला की हालत इतनी ज्यादा खराब थी कि ब्लड प्रेशर बढ़ने की वजह से उसे ब्रेन हेमरेज तक हो गया था। यही नहीं भर्ती के समय उसे कार्डियक अरेस्ट भी हो गया था। महिला की बचने की उम्मीद न के बराबर थी। इसके बाद भी हमने उसे ऑपरेट करने का सोचा। महिला को वेंटिलेटर पर रखकर दो बार सीपीआर दी गई। लगभग पांच घंटे तक वेंटिलेटर पर रखने के बाद उसका सिजेरियन कराकर बच्चे की डिलीवरी कराई गई। लगातार दवा देने के बावजूद भी डिलीवरी के बाद महिला का ब्लड प्रेशर फिर से बढ़ गया। जिसके बाद उसे ट्रॉमा वेंटिलेटर यूनिट में भर्ती कराया गया। वहां ऑन ड्यूटी डॉक्टर ने बताया कि ब्रेन हेमरेज में इंटरनल ब्ली¨डग भी हुई है। मरीज के होश में आने की उम्मीद नहीं है। इसके बाद हमने सारी चीजें भगवान पर छोड़ दी। उसी दिन शाम तक महिला को होश आ गया और वो जिंदगी की जंग जीत गई।

उस आत्मिक सुख का जवाब नहीं : प्रो. अभिजीत चंद्रा, विभागाध्यक्ष, सर्जिकल गैस्ट्रोइंट्रोलॉजी, केजीएमयू। 

प्रो. अभिजीत चंद्रा कहते हैं, जब केजीएमयू में पढ़ता था तब सोचा नहीं था कि एक दिन यहीं के किसी विभाग का अध्यक्ष बनूंगा। 2003 में अमेरिका की यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्सस में गया था। मौके तो कई आए कि विदेश में ही बस जाऊं, पर अपने देश की मिट्टी के खिंचाव ने मुङो वहां रुकने नहीं दिया। सुखद संयोग देखिए कि आज लखनऊ में ही काम कर रहा हूं। एम. सीएच. प्रोग्राम की शुरुआत कराने का क्षण भी जीवन के यादगार पलों में से एक है।

गर्व के क्षण : प्रो. चंद्रा बताते हैं, कई साल पहले एक मरीज आई थी, जिसकी आंतें फट गई थीं। स्थिति इतनी गंभीर थी कि कुछ भी हो सकता था। दृश्य इतना वीभत्स था कि उसके ससुराल वाले उसे अस्पताल में ही छोड़कर चले गए। वह हमारे लिए पेशेंट थी और हम उसे नहीं छोड़ सकते थे। हमने उसका इलाज जारी रखा। एक साल से ज्यादा समय तक वह अस्पताल में ही रही। हम लोगों की मेहनत रंग आई और वह पूरी तरह स्वस्थ हो गई। उसके परिवार वालों ने भी उसे अपना लिया। कई साल बाद वे हमसे मिलने आए। जब उन्होंने कहा कि आपने मेरा जीवन ही नहीं बचाया, बल्कि हमारा परिवार भी बचाया है तो सुनकर तसल्ली हुई। यह आत्मिक सुख ही हमारी पूंजी है।

उपलब्धि : हाल ही में केजीएमयू का पहला कैडेवरिक लिवर ट्रांसप्लांट करने वाली टीम को डॉ. अभिजीत चंद्रा ने लीड किया था। इससे पहले ऑर्गन रिट्रीव कर उन्हें ट्रांसप्लांट के लिए दिल्ली भेजा जाता था।

 

वह केस आज भी याद है..

डॉ. यूसी घोषाल, प्रोफेसर, गैस्ट्रोइंट्रोलॉजी, एसजीपीजीआइ।

डॉ. यूसी घोषाल बताते हैं, वैसे तो कई गंभीर मरीजों की जान हमारी टीम ने बचाई है, लेकिन एक केस हमेशा याद रहेगा।

गोरखपुर से आगे निपट ग्रामीण इलाके से मुङो एक फोन आया। उन्हें किसी से मेरा नंबर मिला था। बताया कि मरीज जीआइ ब्लीडिंग का शिकार है। इस केस में यदि मुंह से खून आने लगे तो मरीज की मौत भी हो सकती है। वे लोग ट्रेन से लखनऊ आ रहे थे। करीब 12 घंटे का सफर था। मैं उनको फोन पर ही निर्देश देता रहा। वे वैसा ही करते रहे। उनके लखनऊ पहुंचने से पहले ही मैंने टीम से कह दिया था कि एक गंभीर मरीज आ रहा है, सारी तैयारियां पूरी रखो। जैसे ही मरीज पीजीआइ पहुंचा, हमने तत्काल उसका इलाज शुरू कर दिया। मरीज की जान बच गई। ऐसे ही लोगों की जरूरत को ध्यान में रखकर मैं अपना नंबर दे देता हूं, ताकि गंभीर स्थिति में मरीजों की जान बच सके।


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