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उत्तर प्रदेश डायरीः 'महागठबंधन' ने बहुत कठिन बना दी UP की चुनावी डगर

ऐसा पहली बार हो रहा है कि मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के चुनाव की तपिश यूपी में इन्हीं राज्यों की तरह महसूस की जा रही है।

By Ashish MishraEdited By: Published: Mon, 08 Oct 2018 10:55 AM (IST)Updated: Tue, 09 Oct 2018 08:04 AM (IST)
उत्तर प्रदेश डायरीः 'महागठबंधन' ने बहुत कठिन बना दी UP की चुनावी डगर
उत्तर प्रदेश डायरीः 'महागठबंधन' ने बहुत कठिन बना दी UP की चुनावी डगर

लखनऊ [सद्गुरु शरण]। मिशन-2019 अभी करीब छह महीने दूर है, लेकिन पांच राज्यों, खासकर मध्यप्रदेश के अगले महीने विधानसभा चुनाव के बहाने हांडी के चावल वाला माहौल बन रहा है। ऐसा पहली बार हो रहा है कि मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के चुनाव की तपिश यूपी में इन्हीं राज्यों की तरह महसूस की जा रही है। इसकी वजह शायद यह है कि यूपी की दो बड़ी पार्टियां सपा और बसपा मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के चुनाव में अहम भूमिका निभाने जा रही हैं। मतदाताओं के मूड की झलक वैसे तो 11 दिसंबर को इन राज्यों के विधानसभा चुनाव नतीजे आने पर मिलेगी, पर इससे पहले उस महागठबंधन की भी परीक्षा हो रही है जिसके बूते कांग्रेस मिशन फतेह करने का ख्वाब संजोए हुए है।

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पुरानी धारणा है कि दिल्ली की सत्ता का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर गुजरता है यद्यपि यह रास्ता उतना ही जटिल भी है। इस वक्त यह बात राहुल गांधी से बेहतर कौन समझ सकता है जिनके हाथ से यूपी के दोनों तोते उड़ चुके हैं। पहले बसपा और अब सपा ने मध्य प्रदेश चुनाव में कांग्रेस से किनारा किया तो राजनीतिक विश्लेषकों के बुद्धिविलास से हटकर आम आदमी की यह धारणा दमदार साबित होने लगी कि लोकसभा चुनाव में कांग्रेस, सपा और बसपा का गठबंधन आसान नहीं है। वैसे मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान विधानसभा चुनाव के नतीजे इन दलों को एक बार फिर महागठबंधन के बारे में सोचने को बाध्य करेंगे। इसके बावजूद महागठबंधन के नेतृत्व और सीट शेयरिंग के मुद्दे राहुल गांधी की नेतृत्व क्षमता और राजनीतिक दूरदर्शिता का कड़ा इम्तिहान लेंगे।

सपा और बसपा की सारी संभावनाएं यूपी में ही केंद्रित हैं लिहाजा कांग्रेस को इन पार्टियों से किसी भी रहमदिली की उम्मीद नहीं रखनी चाहिए। त्याग कांग्रेस को ही करना है, सीटों का और सपनों का भी। वैसे भी यूपी में सपा और बसपा की ताकत कांग्रेस से बहुत अधिक है तो फिर सपा और बसपा अपना दावा क्यों छोड़ें? आखिर कांग्रेस ने पिछले साढ़े चार साल में विपक्षी एकजुटता के लिए ऐसा क्या किया जिसके चलते अन्य पार्टियां उसके सामने कुर्बान हो जाएं? यह तय है कि मिशन-2019 का झंडा यूपी के हाथ में रहेगा।

जो यहां जीता, वही सिकंदर बनेगा। कांग्रेस यूपी के बूते अपना वजूद बचाने के लिए हर चुनाव में ऐसे ही गठबंधन करती आ रही है। उसने कभी अपने कार्यकर्ताओं से नहीं पूछा कि वे क्या चाहते हैं। इस बार भी यही हुआ। कार्यकर्ताओं की राय जाने बगैर सपा, बसपा और रालोद के साथ गठबंधन की तैयारी चल रही है। कार्यकर्ता मायूस हैं। अभी समय है। राहुल जी यूपी के कार्यकर्ताओं का मन टटोल सकते हैं कि वे क्या चाहते हैं।

कब होगी सिंह गर्जना : ओपी सिंह को इस संदेश के साथ यूपी का पुलिस महानिदेशक बनाया गया था कि उनके पास जादू की छड़ी है जिसे घुमाकर वह अपराध और कानून व्यवस्था पटरी पर ला देंगे। फिलहाल ऐसा कुछ नहीं दिखा। सच बात तो यह है कि उनके कार्यकाल में स्थिति बदतर ही हुई। लखनऊ में एक सिपाही ने जिस तरह एक निर्दोष युवक का कत्ल कर दिया, उसके लिए डीजीपी साहब को माफी मांगनी पड़ी। इसके बावजूद पुलिस महकमे को अपने मुखिया के हालात पर तरस नहीं आया।

हत्यारोपी सिपाहियों पर कार्रवाई के खिलाफ तमाम पुलिसकर्मी डीजीपी की अपील नजरअंदाज करके बांह पर काली पट्टी बांधकर सोशल मीडिया पर वायरल हुए। यूपी पुलिस में ऐसी घटनाएं इससे पहले कब हुईं, याद नहीं आता। डीजीपी साहब समझ नहीं पा रहे कि हालात को काबू में कैसे करें। मौजूदा घटनाओं पर उनकी जगहंसाई हो रही है। डर है कि ज्यादा सख्ती करने पर हालात और बिगड़ गए तो मुंह दिखाने लायक नहीं रहेंगे। उन्हें इस कुर्सी पर प्रतिष्ठित करने वाला तंत्र भी सकते में है कि सिंह साहब का क्या किया जाए। उनसे उम्मीद थी कि सिंह गर्जना करेंगे, पर फिलहाल उनकी बोलती ही बंद है।

विहिप को काम मिला : चुनाव आता है तो तमाम गैर-राजनीतिक व्यक्तियों और संस्थाओं को भी काम मिल जाता है। ऐसा एक संगठन विश्व हिंदू परिषद भी है। आम दिनों में विहिप क्या करती है, लोगों को पता नहीं चलता, पर चुनाव नजदीक आते ही उसके सर पर अयोध्या में राम मंदिर बनाने का भूत सवार हो जाता है। इस बार भी यह भूत प्रकट हो चुका है यद्यपि अशोक सिंहल और परमहंस रामचंद्र दास की नामौजूदगी में कोई विहिप के नारों को तवज्जो नहीं दे रहा।

विहिप के नेता अयोध्या से लेकर दिल्ली तक उछलकूद मचाए हुए हैं, पर संविधान की शपथ लेकर सत्तासीन हुए राजनेताओं की अपनी दुश्वारियां हैं। प्रवीन भाई तोगड़िया भी अलग-थलग हैं। विनय कटियार को चुनाव लड़ना है, इसलिए फूंक-फूंककर बोल रहे। ले-देकर नृत्यगोपाल दास हैं। उनके जितना बन पड़ रहा, कर रहे हैं। असली संकट विश्वसनीयता का है। हर बार की तरह इस बार भी विहिप को चुनाव से छह महीने पहले ही रामलला की याद आई। पब्लिक सब समझती है और रामलला भी।


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