मैं लखनऊ हूं : दुनिया में सबसे ज्यादा खुश रहने वाले शहरों में शुमार
हाल के सर्वे बताते हैं कि दुनिया में सबसे ज्यादा खुश रहने वाले जो शहर हैं उनमें अव्वल पर हमारा भी नाम आता है। क्यों? इसकी तफ्सील जाननी हो तो थोड़ा पीछे मुड़कर देखना लाजिमी होगा।
लखनऊ, (अजय शुक्ला)। शाम-ए-अवध दुनिया में मशहूर है, लेकिन इसका अस्ल हुस्न आज भी सर्दियों में नुमाया होता है। दौर शुरू होता है, दिवाली के अगले रोज जमघट से और यह सिलसिला होली तक चलता है। जमघट यानी जुटान। पता नहीं इस जमघट का दूसरे शहरों में क्या रूप है, लेकिन हमारे यहां यह आसमान में पतंगों के जमघट के रूप में जाना जाता है। पतंगबाजी या कनकौवेबाजी का आज जो स्वरूप देशभर में है, उसमें कई ईजादें लखनऊ की हैं। हमारे यहां कई तरह के कनकौवे ईजाद हुए। पतंग उड़ाने का शौक तो दूसरी जगहों पर भी है, लेकिन पतंग लड़ाने का शौक लखनऊ में परवान चढ़ा। दरिंदों और परिंदों की लड़ाई भी दिलचस्प रही। दरिंदों (बाघ, तेंदुआ तक) की लड़ाई शाही शौक का हिस्सा रही तो परिंदों की लड़ाई में आमजन रुचि लेता था। मुर्गबाजी, तीतर, बटेर और कबूतर की लड़ाई क्या कहिए लाल, बुलबुल और तोतों को भी लड़ाई के मैदान में उतार दिया गया। अब और लड़ाइयां तो नहीं दिखतीं लेकिन कबूतरबाजी आज भी पुराने लखनऊ में दिख जाती है।
मनोरंजन या मेंटल हीलिंग का यह दौर हर जमाने में बदलता रहा। या यूं कहें कि नई ईजादें होती रहीं। कुछ पुरानी कायम रहीं तो कुछ नई शामिल होती रहीं। मेला और महोत्सव का दौर भी इसी मेंटल हीलिंग में शामिल रहा। दिवाली त्योहार व मनोरंजन का पूरा पैकेज है। पांच दिन फुल मस्ती के बाद कार्तिक का मेला जिसे कतकी का मेला भी कहते हैं, रवायती लखनऊ का सबसे बड़ा उत्सव रहा। कतकी का मेला उतना ही पुराना है जितना लखनऊ का इतिहास। इसे नवाबी काल के लखनऊ या उसके पहले अथवा बाद के लखनऊ से जोड़ा नहीं जा सकता। यह जरूर है कि कतकी मेले की सुगंध दूर-दूर तक फैली रही।
अब मेले आयोजित किये जाते हैं, लेकिन कतकी मेला कभी आयोजित नहीं हुआ। यह मेला बस यूं ही जुट जाने वाला मेला रहा। आदि गंगा गोमती मेरे आंचल को छूकर सदियों से गुजरती रही। समझो तभी से कतकी का मेला भी लगता रहा। मेला का शाब्दिक अर्थ है मिलन की बेला। यह मिलन की बेला गोमती से सीधा ताल्लुक रखती है। आज कतकी का मेला प्रशासन के लिए एक इल्लत (समस्या) है। कहां लगने दें, लग तो यह खुद-ब-खुद जाता है। दरअसल, यह मेला स्नान पर्व से शुरू होता है। लखनऊ सिर्फ शहर का नाम नहीं। एक बड़ा ग्रामीण इलाका भी मुझमें सिमटता रहा है। तब लोग कार्तिक पूर्णिमा के रोज आदि गंगा में स्नान करने दूरदराज से जुटते और स्नान-ध्यान के बाद मनरंजन व खरीदारी के लिए गोमती किनारे दुकानों पर जुटते। डालीगंज में हाल तक एक बांसमंडी हुआ करती थी। यहीं कतकी का मेला लगता था। पूरे महीने भर या इससे भी ज्यादा। पूर्णिमा के पहले से ही दूर-दूर से आकर दुकानें सजनी शुरू हो जातीं और पूर्णिमा के रोज परवान चढ़तीं। मेले की खासियत यह थी कि यहां रोजमर्रा की गृहस्थी से लेकर हर सामान सस्ते दामों मिल जाता। आगरा के पेठे हों या फिरोजाबाद की चूड़ियां, यहां मिल जातीं। चाट-पकौड़े और मिठाई तो मेले का अभिन्न अंग माने जाते हैं। दौर बदलने के साथ इसमें कई और अक्स जुड़े और मिटते भी गए। नाच-सिनेमा आमजन के लिए महंगा मनोरंजन रहा सो यहां सस्ते में मुंबइया डांस भी दिख जाता था और जब सेल्फी का जमाना नहीं था तो बॉलीवुडिया स्टार्स के कटआउट के साथ फोटो आज की सेल्फी से ज्यादा मजा देता।
महिलाएं यहां सिल बट्टे के साथ तवा, बेलन, चिमटा तक खरीदतीं और फैशनपसंद ग्रामीण औरतें चूड़ियां, हार और जूड़े की क्लिप तक ले जातीं। यह ज्यादा पुरानी बात नहीं लेकिन जिस तेजी से शहर का विस्तार हुआ उसी तेजी से इस मेले का हुस्न फीका पड़ता गया। अब यह मेला बिखरा रहता और जहां जितना फैलता है, प्रशासन के कारिंदों द्वारा समेट दिया जाता है। रवायत के तौर पर यह अब भी कायम है, लेकिन मेले का असल हुस्न अब महोत्सव में समा गया है। लखनऊ महोत्सव में। कतकी मेले का कोई टिकट नहीं लगता था, लेकिन लखनऊ महोत्सव में टिकट लगता है। इस बार तो टिकट की दर दोगुनी हो गई है। लखनऊ महोत्सव का जितना टिकट उतने में कतकी मेले का पूरा लुत्फ आ जाता रहा है। कतकी मेले में बॉलीवुड स्टार्स के कटआउट के साथ फोटो खिंचाने की सुविधा रही तो लखनऊ महोत्सव में साक्षात बॉलीवुड स्टार नमूदार होते हैं। यूं कहिए गरीबों के मेले का हुस्न चुराकर अमीरों की तफरीह का हिस्सा बना लिया गया। कोई शिकवा न होता अगर यह मेला भी कायम रहता और वह मेला भी परवान चढ़ता।
बहरहाल, मेला यानी मिलन की बेला में खुशी है तो सब फलें फूलें। कतकी का मेला शुक्रवार से शुरू होगा तो लखनऊ महोत्सव 25 नवंबर से शुरू होगा। इधर, एक नए किस्म की रवायत शुरू हुई है। फेस्ट शुरू हो गए हैं। फेस्ट यानी फेस्टिवल। यह भी मेले का एक स्वरूप है, फर्क बस इतना है कि फेस्ट जहां मेला आमजन का है और महोत्सव उससे ऊपर के तबके का तो फेस्ट क्लासी है। एक जमात जुटती है और फेस्ट हो जाता है। खर्चा बड़ा आता है, लेकिन इस उत्सवधर्मी शहर के लोगों की आत्मा तृप्त होती जाती है। अब नवंबर खत्म होने और दिसंबर शुरू होने को है। सर्दियां चरम पर हैं तो आप भी अपनी पसंद के मेला, महोत्सव और फेस्ट चुन लीजिए। बस, संदेश यह है कि खुश रहिए, मस्त रहिए।