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सुरों के आंगन में सजते राग-रंग, 93 वर्षों से संजोये शास्त्रीय संगीत शिक्षण की खूबसूरत परंपरा Lucknow News

भातखंडे संगीत संस्थान का 9वां दीक्षांत समारोह।

By Divyansh RastogiEdited By: Published: Tue, 26 Nov 2019 10:50 AM (IST)Updated: Wed, 27 Nov 2019 08:52 AM (IST)
सुरों के आंगन में सजते राग-रंग, 93 वर्षों से संजोये शास्त्रीय संगीत शिक्षण की खूबसूरत परंपरा Lucknow News

लखनऊ [दुर्गा शर्मा]। नादाधीनम् जगत् (संपूर्ण विश्व नाद/ संगीत के अधीन है) इसी आदर्श वाक्य के साथ सुरों के आंगन में राग-रंग सज रहे हैं। भातखंडे संगीत संस्थान अभिमत विश्वविद्यालय करीब 93 वर्षों से शास्त्रीय संगीत शिक्षण की खूबसूरत परंपरा को संजोये है। मंगलवार को संस्थान अपना नवां दीक्षांत समारोह मनाएगा। इस मौके पर आपको संस्थान के स्वर्णिम सफर के बारे में बताते हैं। संस्थान की नींव का प्रथम पत्थर उस दिन पड़ गया था जब 1916 में बड़ौदा नरेश महाराज सयाजीराव गायकवाड़ ने विष्णु नारायण भातखंडे को उस्ताद मौला बख्श द्वारा शुरू किए संगीत विद्यालय के पुनर्गठन व पाठ्यक्रम निर्धारण हेतु अपने यहां आमंत्रित किया था।

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इस अवसर का लाभ उठाते हुए भातखंडे जी ने अपने द्वारा बनाए पाठ्यक्रम की सर्वमान्यता हेतु एक अखिल भारतीय संगीत परिषद गठित करने एवं उसकी बैठक बुलाने का प्रस्ताव महाराजा के सामने रखा। महाराजा गायकवाड़ ने उक्त परिषद गठित करके उसकी बैठक मार्च 1916 में बड़ौदा में आहूत की किंतु उसमें भातखंडे जी के प्रस्ताव पर सहमति न बन सकी।

फिर 1917 में परिषद की दूसरी बैठक दिल्ली में हुई जिसमें दरियाबाद (बाराबंकी) के राय उमानाथ बली ने नवाब रामपुर के समर्थन से लखनऊ में स्कूल ऑफ इंडियन म्यूजिक के स्थापना का प्रस्ताव रखा। इस पर राजा नवाब अली एवं भातखंडे जी लखनऊ के स्थान पर दिल्ली में ऑल इंडिया अकादमी ऑफ म्यूजिक स्थापित करवाना चाहते थे, इसलिए राय उमानाथ बली का प्रस्ताव पारित न हो सका। 

1918 में परिषद की तीसरी बैठक वाराणसी में हुई, जिसमें राय उमानाथ बली का दिल्ली में लाया गया पूर्व प्रस्ताव उपरोक्त कारणों से एक बार फिर गिर गया। उसके बाद भातखंडे जी का पटना, कोलकाता, इंदौर आदि स्थानों में परिषद की बैठक बुलाए जाने का प्रयास सफल न हो सका। अंतत: 1922 में वह राय उमानाथ बली के आमंत्रण पर दरियाबाद पहुंचे और वहां एक माह तक रहकर अपनी मूल योजना में संशोधन किया एवं लखनऊ में प्रस्तावित संगीत महाविद्यालय की रूपरेखा एवं पाठ्यक्रम तैयार किया। 

लखनऊ में संगीत महाविद्यालय के प्रस्ताव के क्रियान्वयन हेतु 1924 में लखनऊ में कैसरबाग बारादरी में परिषद की चौथी बैठक हुई, जिसमें निर्णय लिया गया कि लखनऊ में एक अखिल भारतीय संगीत विद्यालय स्थापित हो। जहां संगीत की शिक्षा भातखंडे जी द्वारा निर्मित 'ठाट पद्धति' एवं उसके साथ उनके द्वारा राग में प्रयुक्त स्वरों के मानकीकरण के आधार पर हो। उस बैठक के बाद लखनऊ में ही परिषद की पांचवीं बैठक हुई जिसमें पिछली बैठक की तकनीकी त्रुटियों का निवारण किया गया। 

उपर्युक्त दो बैठकों में लिए गए निर्णयों के अनुरूप लखनऊ में एक ऑल इंडिया म्यूजिक एसोसिएशन का गठन हुआ जिसमें भारत के विभिन्न क्षेत्रों के 36 संगीतविद् सदस्य थे। इसकी कार्यकारिणी समिति में संयुक्त प्रांत (वर्तमान उत्तर प्रदेश) के तत्कालीन शिक्षामंत्री राय राजेश्वर बली-अध्यक्ष, राजा नवाब अली खां-उपाध्यक्ष, राय उमानाथ बली-मंत्री तथा राजा महेश प्रताप नारायण, राजा जगन्नाथ बक्श, राय बहादुर चंद्रहार बली-मंत्री और राजा महेश प्रताप नारायण, राजा जगन्नाथ बक्श, राय बहादुर चंद्रहार बली, एपी सेन आदि सदस्य थे।

इन सभी के संयुक्त प्रयास से 73,500 रुपये जमा किए गए और 15 जुलाई, 1926 को चायना गेट के निकट नील रोड पर स्थित तोपवाली कोठी में प्रस्तावित शिक्षण संस्था की स्थापना हो गई। संस्था का गौरव बढ़ाने के उद्देश्य से राय राजेश्वर बली ने भारतीय संगीत के अनुरागी संयुक्त प्रांत के गवर्नर सर विलियम मैरिस को उनका नाम संस्था के साथ जोडऩे को राजी कर लिया।

16 सितंबर 1926 को संस्था को मैरिस कॉलेज ऑफ हिंदुस्तानी म्यूजिक नाम देकर सर विलियम मैरिस के कर कमलों से विधिवत उद्घाटन करा दिया गया। 1936 में भातखंडे जी के दिवंगत होने के बाद उनकी पावन स्मृति में 1939 में उपरोक्त मैरिस कॉलेज की परीक्षा संबंधी व्यवस्था के संचालन हेतु भातखंडे यूनिवर्सिटी ऑफ हिंदुस्तानी म्यूजिक नामक एक अन्य संस्था का सृजन हो गया। बाद में वैधानिक कारणों से उसका नाम बदलकर भातखंडे संगीत विद्यापीठ रख दिया गया जो एक निजी संस्था के नाम से कार्यरत रही। हालांकि शिक्षण कार्य के लिए मैरिस कॉलेज ऑफ हिंदुस्तानी म्यूजिक का नाम ज्यों का त्यों चलता रहा। 

26 मार्च, 1966 को उत्तर प्रदेश राज्य सरकार ने इस संस्था को अपने नियंत्रण में लेकर इसके स्थापक के नाम पर इसे भातखंडे हिंदुस्तानी संगीत विद्यालय नाम प्रदान किया। राज्य सरकार के अनुरोध पर भारत सरकार ने इस संस्थान को 24 अक्टूबर 2000 को सम विश्वविद्यालय घोषित कर इसे भारत का एक मात्र संगीत विश्वविद्यालय होने का गौरव प्रदान किया।

2005 में इसका नाम भातखंडे संगीत संस्थान सम विश्वविद्यालय हो गया। इस शिक्षण संस्थान की नींव का प्रथम पत्थर रखने वाले बड़ौदा नरेश महाराज सयाजीराव गायकवाड़ का नाम तो विस्मृत ही हो गया। किन्तु इस बात का संतोष अवश्य है कि कैसरबाग में स्थापित राय उमानाथ बली प्रेक्षालय उनकी स्मृति अक्षुण्ण बनाए है। भातखंडे संगीत संस्थान का गरिमामयी इतिहास उपलब्धियों से भरा है।

इस संस्थान से शिक्षा प्राप्त अनेक पूर्व छात्र-छात्राएं विश्व भर में संगीत शिक्षा एवं प्रदर्शन के क्षेत्र में अपना सक्रिय योगदान दे रहे हैं। श्रीलंका, नेपाल तथा मध्य पूर्वी एशियाई देशों के अनेक छात्र प्रत्येक वर्ष यहां शिक्षा प्राप्त करने आते है, इनमें से कई आइसीसीआर छात्रवृत्ति का लाभ भी प्राप्त करते है।

पंडित विष्णु नारायण भातखंडे ने संगीत को किया लिपिबद्ध

पंडित विष्णु नारायण भातखंडे ऐसे ही महान कलाकार एवं संगीत मर्मज्ञ थे, जिन्हें भारतीय शास्त्रीय संगीत का लिपिबद्ध करने का श्रेय दिया जाता है। पंडित विष्णु नारायण भातखंडे हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में थाट को लेकर। उन्होंने तमाम शास्त्रीय रागों को 10 थाटों में बांट दिया, जो बहुत ही वैज्ञानिक तरीका था। मंद्र सप्तक और मध्य सप्तक के स्वरों के साथ लगने वाले निशान भी पंडित विष्णु नारायण भातखंडे की ही देन है। कोमल और तीव्र स्वरों के साथ में लगने वाले निशान भी उन्हीं की देन हैं। पंडित विष्णु नारायण भातखंडे का जन्म 10 अगस्त 1860 को मुंबई के बालकेश्वर में हुआ था। पिता खुद भी कलाकार और संगीत के अच्छे जानकार थे। 

धु्रपद गायन के प्रतिष्ठित कलाकार राव जी बुआ बेलबागकर ने विष्णु नारायण भातखंडे को शास्त्रीय गायकी सिखायी। इसके अलावा उन्होंने अली हुसैन खान और विलायत हुसैन खान से भी सीखा। विष्णु नारायण भातखंडे के सितार गुरु थे-वल्लभ दास दामुल। वो 1885 का साल था जब विष्णु नारायण भातखंडे ने अपनी वकालत की डिग्री हासिल कर ली। इसके बाद उन्होंने कराची में वकालत भी शुरू कर दी। वकालत और संगीत उनके जीवन के दो अध्याय बन गए थे।

सबकुछ अच्छा चल रहा था जब किस्मत ने विष्णु नारायण भातखंडे को बड़ी चोट पहुंचायी। कम उम्र में ही उनकी पत्नी और बेटी का निधन हो गया। पत्नी और बेटी का साथ छूटने के बाद विष्णु नारायण भातखंडे भावनात्मक तौर पर कमजोर हो गए। वकालत में उनका मन नहीं लगता था। उन्होंने वकालत छोड़ दी, कराची भी। विष्णु नारायण भातखंडे मुंबई आ गए। अब उन्हें किसी चीज में सुकून मिलता था वो बस संगीत में। असल मायने में यहीं से उनके जीवन का दूसरा अध्याय शुरू हुआ।

मुंबई आने के बाद विष्णु नारायण भातखंडे गायन उत्तेजक मंडली से जुड़े। इसके साथ ही साथ उन्होंने संगीत के तमाम पहलुओं पर विचार के लिए पूरे देश में घूमना शुरू कर दिया। अपनी यात्राओं के दौरान विष्णु नारायण भातखंडे अलग-अलग कलाकारों से मिले। उन्होंने अलग-अलग घरानों के नुमाइंदों से बातचीत की। 15 सालों में विष्णु नारायण भातखंडे ने बड़ौदा, ग्वालियर और मुंबई में ज्यादा वक्त बिताया। इस दौरान उनका खुद का सीखने का सिलसिला भी चलता रहा. वो विष्णु नारायण भातखंडे ही थे जिन्होंने सबसे पहले कॉम्पोजीन को नोट किया। उन्होंने बहुत ही दुर्लभ बंदिशों को इकट्ठा किया, वो भी कोई एक दो नहीं बल्कि 300 से ज्यादा बंदिशें। इन्हीं बंदिशों को उन्होंने बाद में प्रकाशित भी किया। इसमें उनकी खुद की कंपोज की हुई बंदिशें भी थीं, जो उन्होंने चतुर पंडित और विष्णु शर्मा के नाम से तैयार की थीं।

इसी दौरान विष्णु नारायण भातखंडे ने महसूस किया कि संगीत की जानकारी को लेकर बहुत सी विचारधाराएं थीं। उन्हें समझ आ गया कि इस पूरी व्यवस्था को फिर से बनाना होगा। विष्णु नारायण भातखंडे जानते थे कि उन्हें इसके लिए कुछ नियम बनाने होंगे, ऐसे नियम जो सभी को स्वीकार्य हों। उन्हें संगीत कॉन्फ्रेंस का जनक माना जाता है। उन्होंने 1916 में बड़ौदा, 1918 में दिल्ली, 1919 में बनारस और 1924-1925 को लखनऊ में कॉन्फ्रेंस का आयोजन किया था, जो एक तरह से शास्त्रीय संगीत से जुड़े सभी पक्षों के लिए बातचीत करने और सलाह मशविरे का मंच था। उन्होंने करीब 200 राग तैयार किए। उनकी पुस्तकों को राग का खजाना भी कहा जाने लगा। अपने इसी लेखन से उन्होंने हिंदुस्तानी संगीत पद्धति को एक नई पहचान दिलाई।

भातखंडे संगीत संस्थान अभिमत विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. श्रुति सडोलीकर काटकर बताते हैं कि हम चाहते हैं कि संस्थान को पूर्ण विश्वविद्यालय का दर्जा मिले। सारे पद भरे जाएं ताकि शिक्षक-छात्र अनुपात ठीक हो। छात्र-छात्राओं को उनके गुण प्रदर्शन के लिए पर्याप्त अवसर मिले। कला प्रदर्शन के साथ ही व्यक्तित्व विकास और रोजगार परक योजनाओं पर भी ध्यान देंगे। किसी भी कलाकार को रोजगार के लिए अपने प्रदेश से बाहर न जाना पड़े, यहीं प्रयास और उम्मीद है। 

ये भी जानें 

  • 15 जुलाई, 1926 : तोपवाली कोठी में प्रस्तावित शिक्षण संस्था की स्थापना।
  • 16 सितंबर 1926 : मैरिस कॉलेज ऑफ हिंदुस्तानी म्यूजिक नाम पड़ा। 
  • 1936 : भातखंडे यूनिवर्सिटी ऑफ हिंदुस्तानी म्यूजिक संस्था का सृजन।  
  • 26 मार्च, 1966 : उप्र सरकार ने भातखंडे हिंदुस्तानी संगीत विद्यालय नाम दिया। 
  • 24 अक्टूबर 2000 : भारत सरकार ने संस्थान को सम विश्वविद्यालय घोषित किया। 
  • 2005 : भातखंडे संगीत संस्थान सम विश्वविद्यालय नाम हो गया। (अब भातखंडे संगीत संस्थान अभिमत विश्वविद्यालय) 

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