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कभी तस्करी के गढ़ रहे टेरा-टिकरा में वॉलीबाल की दीवानगी से बदल रही जिंदगी

यहां जिंदगी कैसे बदली, इस पर पुरानी पहचान से शर्मसार बुजुर्ग और नौजवान अब भी सीधे जबान नहीं खोलते।

By Ashish MishraEdited By: Published: Fri, 29 Dec 2017 02:15 PM (IST)Updated: Fri, 29 Dec 2017 05:53 PM (IST)
कभी तस्करी के गढ़ रहे टेरा-टिकरा में वॉलीबाल की दीवानगी से बदल रही जिंदगी

बाराबंकी [नरेंद्र मिश्र]। कभी मादक पदार्थों की तस्‍करी और मारफीन बनाने के कुटीर उद्योग के लिए कुख्‍यात रहे बाराबंकी जिले के गांव टेरा और टिकरा में जिंदगी नई अंगड़ाई ले रही है। दशक भर पहले तक जहां यहां घर-घर अफीम से मारफीन बनाने का कुटीर उद्योग चलता था, वहीं अब बरामदों और हातों में वॉलीबाल कोर्ट नजर आते हैं। युवा रोज प्रैक्टिस करते हैं। आसपास के जिलों में यहां की वॉलीबाल टीम अपनी सफलता के झंडे गाड़ चुकी है और प्रदेश व राष्‍ट्रीय स्‍तर पर छाने को तैयार है। यहां जिंदगी कैसे बदली, इस पर पुरानी पहचान से शर्मसार बुजुर्ग और नौजवान अब भी सीधे जबान नहीं खोलते लेकिन वॉलीबाल के प्रति घर-घर दीवानगी और एक गांव में मौजूद 25 नौजवानों की पूरी टीम सारे राज खुद ब खुद बयां कर देती है। वालीबॉल के खेल में हाथ आजमा रहे युवा खेती के साथ अपने खेल से शील्ड बटोर रहे हैं। युवाओं के वालीबॉल प्रेम से बुर्जगों में भी बदनाम गांव की नई पहचान की हसरत जवान होती दिखने लगी है।

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जब अंतराष्ट्रीय मंडी में था दबदबा : बात तीन दशक पुरानी है। अंतराष्ट्रीय मादक पदार्थ तस्करी का हब बनने वाले यूपी के बाराबंकी जिले के दो गांव पूरे विश्व में कुख्यात हो गए थे। मुंबई और दिल्ली कोलकाता, पश्चिम बंगाल, पंजाब से लेकर दुबई और कुवैत तक फैले तस्करी नेटवर्क का केंद्रबिंदु टेरा-टिकरा रहा। अंतरराष्ट्रीय मादक पदार्थ मंडी में बाराबंकी के टिकरा की हेरोइन और मारफीन की मुंहमांगी कीमत मिलती थी। टेरा-टिकरा अस्सी के दशक में दुनिया भर में जाना जाने लगा। यहां के रहने वालों को रसूखदार और सफेदपोशों का हमकदम माना जाने लगा। उस दौर इन गांवों के बाशिंदों को उस दौर में अपनी पहचान बताने के लिए बस गांव का नाम बता देना ही पर्याप्त था।


भाईजान ग्रुप का ऐसा था रसूख :तस्करी के जरिए बने रसूख का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है, कि तस्करी बहुल छह थानों में एसओ से लेकर पूरे पुलिसिया नेटवर्क की तैनाती बस टिकरा का भाईजान ग्रुप ही करवाता था। बगैर इस ग्रुप की संस्तुति के कोई भी तैनाती मादक पदार्थ तस्करी नेटवर्क वाले थानों में नहीं हो सकती थी, और अगर किसी अफसर की तैनाती हो भी गई तो उसे टिकरा के नियमों के मुताबिक ही चलना होता था। नियम भंग किया तो बस चंद दिन ही नौकरी कर पाता। टिकरा में माथा टेक लिया, तो फिर जल्दी हटता भी नहीं था। बेहद सुनियोजित और शासकीय प्रबंधन में दखल रखने वाले भाईजान ग्रुप के करीब दर्जनभर सदस्य उस दौर में अपनी पसंद के आला अफसरों की भी पोस्टिंग करवाने में अहम किरदार अदा करते थे।


हेलीकाप्टर के लिए किया था आवेदन : देश के फलक पर टिकरा गांव का नाम तब आया जब वर्ष 1980 में यहां के जाशिम मियां ने हेलीकाप्टर के लिए आवेदन कर दिया। जाशिम मियां का हेलीकाप्टर के लिए आवेदन करते ही देश-दुनिया की निगाहें इस छोटे से गांव पर टिक गईं।

 

यहां से बदलने लगा टिकरा का मिजाज : यह कहना अतिश्योक्ति न होगी कि नारी शक्ति ने टिकरा की आबोहवा बदल दी। बात वर्ष 2002 की है जब तत्कालीन डीएम अनीता सिंह ने शहर के नाका सतरिख से टेरा-टिकरा गांव तक पद यात्रा निकालकर वहां के निवासियों को नशे के कारोबार से मुक्त होने के लिए प्रेरित किया। इस पदयात्रा में वकील, पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता, स्वयं सेवी संस्थाओं के लोग व जनप्रतिनिधि भी शामिल हुए थे।

अब खेल का नशा है तस्करी के गढ़ टिकरा में : अब तो बस खेल का नशा है तस्करी के गढ़ टेरा-टिकरा में। यहां के बयोवृद्ध मोहम्मद हमजा उर्फ डैडी ने गांव की नई पीढ़ी को तस्करी की छाप से अलग करने के लिए वॉलीबाल में दीवानगी पैदा कर दी। अब वॉलीबाल टीम के कैप्टन धीरज शर्मा हैं। सन 1987 में डैडी ने मुस्लिम स्पोर्ट्स क्लब बनाया था। उसके बाद से अब तो यहां 25 युवाओं की वॉलीबाल टीम तैयार है। यह टीम जिले में ही नहीं बल्कि प्रदेश स्तरीय वालीबॉल प्रतियोगिताओं में भी अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा रही है। टीम के कोच मोहम्मद मुसैब वॉलीबाल कोर्ट में अपनी टीम से रोज प्रैक्टिस करवाना नहीं भूलते।

टीम ने यहां किया धमाल : सिद्धार्थनगर, बहराइच, सीतापुर, रायबरेली, लखनऊ में पीएसी व आर्मी टीमों से यहां की टीम ने मुकाबला किया। मौजूदा समय में टिकरा टीम अंतरजनपदीय वालीबॉल टीमों में अव्वल हो चुकी है। टीम के धुरंधर खिलाड़ी अबू हुरेरा, अंबुज शर्मा, अब्दुल कवि, मोहम्मद सफी, मोहम्मद फरहान में अब स्टेट व राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिताओं में जल्द ही मुकाम पाने का जज्बा दिख रहा है।

सत्तर के दशक में अफीम का सबसे बड़ा हब : करीब सत्तर के दशक से ही बाराबंकी जिला अफीक की खेती का देश में सबसे बड़ा हब बनकर उभरा था। जानकारों के मुताबिक बाराबंकी जिले की जलवायु अफीम की खेती के लिए सबसे ज्यादा उपयोगी साबित हुई थी। यही वजह थी कि यहां तहसील सदर के छह ब्लॉकों के अधिसंख्य गांवों में किसान अफीम की खेती करते थे। तहसील सदर के ब्लॉक हरख क्षेत्र में सर्वाधिक खेती होती थी। टिकरा गांव के किसानों के पास भी अफीम की खेती का रकबा करीब दो दशक तक रहा।

मारफीन से बढ़ी बदनामी : टिकरा की वजह से जिले में अफीम की खेती कम होने लगी, जबकि मांग अधिक रही। कारण यह रहा कि तब अफीम से मारफीन बनाने में नशे के सौदागर घातक केमिकल का प्रयोग करने लगे। घातक केमिकल के साथ कई तस्कर कैरियर पकड़े गए। इसके बाद शिकंजा और कसा जाने लगा। इसका असर अफीम की काश्‍तकारी पर भी पड़ा।

पश्चिम बंगाल तक कारीगरों की मांग : जिले के पुराने तस्करों के हाथों में मारफीन व क्रूड में घातक जहरीले केमिकल मिलाकर मारफीन बनाने का ऐसा हुनर है, जिससे न केवल जिले में बल्कि पश्चिम बंगाल और झारखंड में इन कारीगरों की भारी मांग रही है। सूत्रों के अनुसार यह कारीगर अपने काम की कीमत लाखों में लेते हैं, बल्कि तैयार माल में भी हिस्सेदारी करते थे।


नौ जिले में अफीम के लाइसेंस : प्रदेश के नौ जिलों बदायूं, बरेली, रायबरेली, शाहजहांपुर, लखनऊ, फैजाबाद, मऊ, गाजीपुर और बाराबंकी में अफीम की खेती होती है। इन सभी जिलों के काश्तकारों को बाराबंकी डिवीजन कार्यालय से लाइसेंस जारी होता है। वर्ष 2016-17 के आकड़ों के अनुसार इन नौ जिलों में कुल 1763 काश्तकारों ने 243.630 हेक्टेयर रकबे में अफीम की खेती की थी। नई नीति के तहत 2017-18 के लिए बाराबंकी जिले में 240 गांवों के 991 किसानों को इस बार लाइसेंस जारी हुआ है।

अफीम का मिलता लाइसेंस, बनती जीवन रक्षक दवाएं :
अफीम की खेती का लाइसेंस भारत सरकार केंद्रीय नारकोटिक्स ब्यूरो (सीबीएन) की देखरेख में चुनिंदा किसानों को ही जारी किए जाते हैं। पोस्ता की फसल के फल से अफीम निकलती है। किसानों को उत्पादित कुल अफीम विभाग को देनी होती है। पूरी खेती सीबीएन की देखरेख में होती है। साथ ही लाइसेंसी किसानों को खेती रकबा पर निर्धारित मानक के अनुसार अफीम देना अनिवार्य होता है। अगर फसल खराब होने लगती है तो किसान के खेत में बची फसल को सीबीएन की टीम नष्ट करवा देती है। इस प्रकार अफीक को कतई किसी बाजार में बेचने की अनुमति नहीं है। उत्पादित अफीम की खेप जिला गाजीपुर स्थित सीबीएन की रिफाइनरी यूनिट में भेजी जाती है। जहां अफीम को रिफाइन कर जीवन रक्षक दवाओं के उपयोग व निर्यात किया जाता है।

10 वर्षों में 13 सौ मुकदमें : पुलिस विभाग के आंकड़े बताते हैं कि पिछले 10 वर्षों में एक हजार 304 एनडीपीएस के मुकदमें दर्ज हुए हैं। 2007 में 129, 2008 में 181, 2009 में 177, 2010 में 155, 2011 में 134, 2012 में 124, 2013 में 130, 2014 में 92, 2015 में 62, 2016 में 58 और 2017 में 62 मुकदमें दर्ज हुए हैं।

खत्म हो रहा तस्करी का नेटवर्क : ‘अफीम की खेती का मुख्य हब रहे बाराबंकी जिले में अब तस्करी और कैरियर तस्करों में कमी आई है। जो भी मुकदमे दर्ज हो रहे हैं वे नशे के लती और तस्कर कैरियर प्रमुख हैं। तस्कर बहुल माने जाने वाले थाना क्षेत्र में अलग से टीम बनाकर पुलिस मुस्तैदी से तस्करी की हर गतिविधियों पर नजर रखती है। अब अफीम की उपलब्धता काफी कम हो गई है, जिससे इस गोरखधंधे से जुड़े लोग भी कम होते जा रहे हैं। इसके बाद भी पुलिस का प्रयास है कि तस्करी से जुड़ी हर सूचना पर तत्परता से काम किया जाता है’।
-अनिल कुमार सिंह, पुलिस अधीक्षक, बाराबंकी  


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