खाने योग्य नहीं रह गईं गंगा की मछलियां, जानिए क्या है कारण
गंगा जल में मौजूद भारी धातुएं व कीटनाशक बना रहे जहरीला। फूडचेन के जरिए मानव शरीर में पैबस्त हो रहा है जहर।
लखनऊ, (रूमा सिन्हा)। गंगा की जल धारा में विषाक्त भारी धातुएं जैसे कैडमियम, आर्सेनिक, क्रोमियम, लेड, मरकरी, आयरन, निकिल, जिंक तथा घातक कीटनाशकों से मछलियां भी नहीं बच सकी हैं। वैज्ञानिक अध्ययनों में साबित हो गया है कि गंगा नदी की मछलियों में भारी धातुओं व कीटनाशकों की मौजूदगी के कारण यह खाने लायक नहीं रह गई हैं। ऐसी जहरीली मछलियां फूड चेन में शामिल होकर लोगों को खतरनाक रोगों की खाई में धकेल रही हैं। वहीं प्रदूषित नदी जल से मछलियों की संख्या में भी लगातार कमी होती जा रही है। इन विषाक्त मछलियों की तादाद गंगा के मुख्य प्रदूषित हिस्सों कानपुर, वाराणसी, इलाहाबाद, कोलकाता में सबसे ज्यादा पाई गई है।
अंतरराष्ट्रीय जर्नल एनवायरनमेंट इंटरनेशनल में प्रकाशित एनबीआरआइ के वैज्ञानिक डॉ. संजय द्विवेदी, डॉ. सीमा मिश्रा और डॉ. आरडी त्रिपाठी के गंगा जल प्रदूषण पर प्रकाशित शोध पत्र में गंगा की मछलियों से जुड़ी विषाक्तता के तमाम वैज्ञानिक पहलुओं और उनसे मानव स्वास्थ्य पर पडऩे वाले खतरों की पड़ताल की गई है। शोध के अनुसार भारी धातुओं और कीटनाशकों से मछलियों की जैव विविधता के साथ सेहत भी प्रभावित हो रही है। डॉ. द्विवेदी बताते हैं कि बीते 10-15 वर्षों में किए गए विभिन्न अध्ययनों से पुष्टि हुई है कि जहरीली भारी धातु और कीटनाशक मछलियों के यकृत, गुर्दे, मांसपेशियां, त्वचा सहित विभिन्न अंगों को विषाक्त कर रहे हैं जिससे मछलियों का जीवन खतरे में होने के साथ उसके सेवन से इंसानी सेहत भी दांव पर है। वह कहते हैं कि प्रदूषण से मछलियों के फिन पर स्पॉट आने के साथ वह गलने लगते हैं। इससे मछलियां तैर नहीं पाती, अंतत : मर जाती हैं।
ऐसी मछलियों के सेवन से मनुष्यों में कैंसर व अन्य घातक बीमारियों के बढऩे का खतरा रहता है। एनबीआरआइ के निदेशक प्रो. एसके बारिक ने गंगा पर और गहन अध्ययन की योजना बनाई है। अध्ययनों में गंगा में मछलियों की लगभग 135 प्रजातियां जैसे रोहू, कतला, मृगल, हिलसा, थिलेपिया, टेंगन, पड़हन सहित तमाम विदेशी किस्मों को सीधे फूड चेन में शामिल होने से बड़ी मात्रा में व्यवसायिक प्रयोग में लाया जाता है। वहीं स्थानीय स्तर पर यह मछलियां लोगों की कमाई का जरिया बनी हुई है।
भारी धातुओं और कीटनाशकों की अनदेखी
नब्बे के दशक में ही गंगा, गोमती जैसी नदियों में कीटनाशकों की भारी मात्रा में मौजूदगी की पुष्टि की गई थी। वैज्ञानिकों ने बीते डेढ़ दशकों में किए गए अध्ययनों में पाया है कि गंगा में बड़ी मात्रा में कीटनाशक और विषाक्त भारी धातु मौजूद हैं। हैरानी यह है कि 1986 से आरंभ गंगा एक्शन प्लान से लेकर राष्ट्रीय क्लीन गंगा मिशन में कीटनाशकों व भारी धातुओं की विषाक्तता की पड़ताल को शामिल नहीं किया गया है।
मानक से अधिक लेड, कॉपर, जिंक, निकिल और कीटनाशक
- वाराणसी से एकत्र मछलियों में मरकरी की मौजूदगी खतरनाक स्तर में मिली। कई प्रजातियों में घातक मिथाइल मरकरी अधिक मात्रा में पाया गया।
- कोलकाता में 19 प्रजातियों में मरकरी भारी मात्रा में मिला।
- मध्य गंगा, निचली गंगा की जलधारा में रोहू सहित विभिन्न प्रजातियों में कैडमियम, लेड, कॉपर, जिंक, क्रोमियम, निकिल मानक सीमा से बहुत 'यादा पाए गए हैं। -कीटनाशकों में डीडीटी, एचसीएच, एलडीएन, इंडोसल्फान, मेलाथिऑन की भारी मात्रा की पुष्टि हुई है।
- गंगा डॉल्फिन भी कीटनाशकों और भारी धातुओं के कारण खतरे में है। अध्ययनों में पाया गया कि डॉल्फिन में ये प्रदूषक भारी मात्रा में मौजूद है।
सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ फ्रेश वॉटर एक्वाकल्चर, आइसीएआर के पूर्व प्रधान वैज्ञानिक डॉ.कुलदीप कुमार ने बताया कि कीटनाशक व भारी धातुओं का गंगा की मछलियों में मिलना कतई अप्रत्याशित नहीं है। मछलियां जैसे पानी में रहेंगी उन पर असर भी वैसा ही होगा। चूंकि बड़ी आबादी भोजन के लिए इस पर निर्भर है जाहिर है कि उनकी सेहत भी दांव पर है। भारी धातुओं का स्रोत उद्योगों से उत्सर्जित होने वाला उत्प्रवाह व सीवेज है। इसे रोका जाना जरूरी है।