सुशिक्षित समाज : रंग ला रहा दिवंगत बेटी की याद में गरीब बच्चों को शिक्षा देने का संकल्प
इकलौती बेटी के असमय निधन के बाद उसकी याद में प्रोफेसर दंपती ने शिक्षा के लिए जो अलख जगाई उसके चलते आज सैकड़ों गरीब बच्चों को शिक्षा का उजियारा मिल रहा है।
लखनऊ, राजीव दीक्षित। इकलौती बेटी के असमय निधन के बाद उसकी याद में प्रोफेसर दंपती ने शिक्षा के लिए जो अलख जगाई उसके चलते आज सैकड़ों गरीब बच्चों को शिक्षा का उजियारा मिल रहा है। साथ ही सैकड़ों बच्चे इसके सहारे विकास की नई इबारत लिख रहे हैं। उल्लेखनीय है कि जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के भारतीय भाषा केंद्र में प्रोफेसर रहे एसएम अब्बास शारिब रुदौलवी और उनकी पत्नी दिल्ली विश्वविद्यालय की उर्दू विभाग की अध्यक्ष रहीं प्रो.शमीम निकहत को सदमे से तोड़ दिया था। दर्द का हद से गुजरना ही है दवा हो जाना के अंदाज में दंपती इस सदमे से उबरे और उन्होंने गरीबी के चलते शिक्षा से वंचित बच्चों की तालीम के लिए एक स्कूल खोलने का संकल्प लिया।
शोआ फातिमा पब्लिक स्कूल की स्थापना
इसके बाद दंपती ने 1996 में लखनऊ के अलीगंज इलाके में प्रो.शमीम के घर में शोआ फातिमा पब्लिक स्कूल की स्थापना की। दिल्ली में दंपती की नौकरी की मसरूफियत के कारण शुरुआती चार वर्षों तक यह स्कूल दो शिक्षकों के हवाले रहा जिसमें गिनती के बच्चे ही पढऩे आते थे लेकिन वर्ष 2000 में नौकरी से रिटायर होने पर मिले सेवानिवृत्ति लाभों और दिल्ली में फ्लैट बेचने से मिली रकम से दंपती ने लखनऊ के फैजुल्लागंज, केशव नगर इलाके में जमीन खरीदकर 30 जून 2000 को शोआ फातिमा पब्लिक स्कूल की स्थापना की। पहले यह प्राइमरी स्कूल था, 2004 में इसे यूपी बोर्ड ने हाईस्कूल की मान्यता दी और अब यह इंटर कॉलेज है।
उद्देश्य की पवित्रता के साथ ख्याति बढ़ी
आर्ट्स और कॉमर्स की पढ़ाई तो यहां होती ही है, विज्ञान की पढ़ाई के लिए साइंस ब्लॉक बनाया जा रहा है। स्कूल की स्थापना के बाद शुरआती दिनों में प्रो.शमीम दूरदराज की झुग्गी-झोपडिय़ों में जाकर गरीब लोगों से अपने बच्चों को स्कूल भेजने के लिए गुहार लगातीं। आर्थिक तंगी के कारण जो लोग बच्चों को स्कूल भेजने में असमर्थता जताते, उनके बच्चों की फीस प्रो.शारिब और प्रो.शमीम द्वारा स्थापित शोआ फातिमा एजुकेशनल एंड चैरिटेबल ट्रस्ट वहन करता। संस्थापकों के उद्देश्य की पवित्रता के साथ स्कूल की ख्याति बढ़ी और इल्म का कारवां भी। आज इस कॉलेज में लगभग 1100 बच्चे ज्ञान अर्जित कर रहे हैं जिनमें से ज्यादातर गरीब तबके के हैं। हाईस्कूल और इंटरमीडिएट में यहां का रिजल्ट शत-प्रतिशत है और 95 फीसद बच्चे प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए हैं। इस स्कूल में कविता दिवस, क्विज प्रतियोगिताएं जैसी गतिविधियां भी होती हैं। यहां आयोजित होने वाली आर्ट्स एंड क्राफ्ट प्रदर्शनी में बच्चों की ओर से बनायी जाने वाली पेंटिग्स की नुमाइश जर्मनी में भी हो चुकी है।
अभिभावक की मृत्यु पर फीस माफ
कड़कड़ाती ठंड में भी अपने रुटीन के तहत स्कूल परिसर का राउंड लगाते हुए 84 वर्षीय प्रो.शारिब कहते हैं कि हमारे कुछ उसूल हैं। पहला यह कि यदि स्कूल में पढ़ाई के दौरान किसी बच्चे के पिता की मृत्यु हो जाती है तो उस बच्चे की फीस माफ। यदि दाखिले के समय किसी बच्चे के अभिभावक ने फीस अदा करने में असमर्थता जतायी तो उस बच्चे की पढ़ाई का जिम्मा भी हम उठाते हैं। यदि किसी अभिभावक के चार बच्चे हमारे स्कूल में पढ़ रहे हैं तो एक की पूरी फीस लेते हैैं, बाकी की आधी, वे बताते हैं कि फीस माफी का मतलब यह नहीं कि शुल्क जमा नहीं किया जाता है। या तो उन बच्चों की फीस हमारे ट्रस्ट की ओर से भरी जाती है या फिर उन तमाम लोगों और संस्थाओं द्वारा जो स्कालरशिप के जरिये यह नेक काम करते हैं। उन्हें बखूबी याद है कि लखनऊ के तत्कालीन जिला विद्यालय निरीक्षक गणेश कुमार आये तो थे स्कूल के मुआयने के इरादे से लेकिन हकीकत जानकर उन्होंने मौके पर ही अपनी मां की स्मृति में स्कॉलरशिप देने का एलान कर दिया।
तनकर खड़ा साढ़े आठ दशक देख चुका बुजुर्ग
दो साल पहले पत्नी के देहांत की पीड़ा ने भी प्रो.शारिब को उनके मिशन से डिगाया नहीं। बेटी की याद में हमसफर के साथ शुरू की गई मुहिम को आगे बढ़ाने के लिए रोज सुबह आठ से दोपहर तीन बजे तक उनका दिन कॉलेज में ही गुजरता है। उम्र के तकाजे से उन्होंने छड़ी का सहारा भले ले लिया हो लेकिन साढ़े आठ दशक देख चुका यह बुजुर्ग आज भी अपने इरादों की तरह तनकर खड़ा है। उनकी दौड़ जारी हैै और अब एक डिग्री कॉलेज खोलने का इरादा है। पढ़ाई पूरी कर स्कूल से विदा लेने वाले बच्चों को वह मीर का शेर सुनाते हैंं-
बार-ए-दुनिया में रहो, गमजदा या शाद रहो
ऐसा कुछ करके चलो यां कि बहुत याद रहो