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पूर्णिमा बर्मन से ई-मेल संवादः फेसबुक पेज पर नवगीत की पाठशाला

साहित्य की आभासी दुनिया में पूर्णिमा बर्मन का खासा नाम है। नवगीत के उत्थान के लिए पूर्णिमा को देश की सौ सफल महिलाओं की सूची में स्थान मिला है।शारजाह में रहकर 'अनुभूति' और 'अभिव्यक्ति' ई-पत्रिकाएं निकाल रही पूर्णिमा से राजू मिश्र ने ई मेल संवाद किया। प्रस्तुत हैं खास अंश-

By Nawal MishraEdited By: Published: Sun, 10 Jan 2016 05:18 PM (IST)Updated: Sun, 10 Jan 2016 05:29 PM (IST)
पूर्णिमा बर्मन से ई-मेल संवादः फेसबुक पेज पर नवगीत की पाठशाला

लखनऊ। साहित्य की आभासी दुनिया में पूर्णिमा बर्मन का खासा नाम है। नवगीत के उत्थान की ललक ने पूर्णिमा को देश की 100 सफल महिलाओं की सूची में स्थान दिलाया है। पूर्णिमा के फेसबुक पेज 'नवगीत की पाठशाला' में नवगीत की बारीकियों पर चर्चा होती है। नियमित कार्यशालाएं अलहदा चलती हैं। चुने हुए छह से आठ सदस्यों को लखनऊ में दो दिवसीय 'नवगीत महोत्सव' में भाग लेने का मौका मिलता है। घर होने के कारण पूर्णिमा का लखनऊ आना जाना बना रहता है। यह पुरस्कार महिला एवं बाल कल्याण मंत्रालय द्वारा ऐसी 100 भारतीय महिलाओं को दिया गया है जो फेसबुक पर हैं और अपने अपने क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य कर रही हैं। शायद यह फेसबुक से जुड़ा पहला पुरस्कार है। शारजाह में रहकर प्रतिष्ठित 'अनुभूति' और 'अभिव्यक्ति' ई-पत्रिकाएं निकाल रही पूर्णिमा बर्मन से राजू मिश्र ने ई मेल संवाद किया। प्रस्तुत हैं खास अंश-
विदेश में रहते हुए हिंदी सेवा की भावना मन में कैसे आई?
जितना हम दुनिया घूमते हैं, उतना ज्यादा समझते हैं कि अपनी भाषा, संस्कृति, कला, दर्शन बहुमूल्य होने पर भी हम उनकी परवाह नहीं करते। इसके कुछ विशेष कारण हैं। हमारा जीवन दो वक्त की रोटी और एक मकान की जरूरतें पूरी करने में ही निकल जाता है। जो बच्चे पढ़-लिखकर इंजीनियर, डाक्टर, वैज्ञानिक, अध्यापक बनते हैं, वे भी दिन रात कभी बिजली-पानी नहीं, कभी इंटरनेट नहीं, कभी पुलिस साथ नहीं, कभी इलाज की सुविधा नहीं जैसी परेशानियों से जूझते रहते हैं। साहित्य, संस्कृति की ओर ध्यान देने का समय आ ही नहीं पाता। विदेश में जाते ही हम इन परेशानियों से मुक्त हो जाते हैं। यहां मैंने सुपर मार्केट के बाहर एक स्पैनिश महिला को कुछ कागज बांटते देखा। वह स्पैनिश सिखाने वाले किसी पाठ्यक्रम की बात कर रही थी। वह लगातार बता रही थी कि स्पैनिश कितने देशों में, कितने ज्यादा लोग बोलते हैं और इसे सीखना कितना ज्यादा जरूरी है...और इसे सीखकर क्या क्या लाभ पाए जा सकते हैं। लगा इतना साहस किसी भी भारतीय महिला में नहीं है कि सुपर मार्केट के बाहर खड़ी होकर हिंदी की वकालत करे और अपने लिये छात्र जुटाए। कुछ भारतीय उसे देखकर हंस भी रहे थे क्योंकि उन्होंने अंग्रेजी के सिवा किसी भाषा के प्रति ऐसी भक्ति और आदर कभी देखा ही नहीं था। दो तीन चीजें मेरे मन में बैठ गयीं। लगा कि स्पैनिश सीखने से जो फायदे हैं, उससे कहीं ज्यादा फायदे हिंदी सीखने के हैं। तो फिर जब यह अपनी भाषा के लिए काम कर सकती है तो मैं क्यों नहीं कर सकती? अंग्रेजी और फ्रेंच दूतावास जिस तरह बड़ी रकम खर्च करके अपनी भाषा का प्रचार करते हैं, उसके बिना भी आम आदमी जमीनी स्तर पर अपनी भाषा के लिए काम कर सकता है। किस तरह से काम करें, यह हम स्वयं निश्चित कर सकते हैं।
'अनुभूति' और 'अभिव्यक्ति' की शुरुआत कैसे हुई?
पति ने अपने बड़े भाई के व्यापार की मिडिलईस्ट मार्केटिंग के लिए नया आफिस खोला था। वह 1995-96 का समय था। सभी बिजनेस वालों के लिए विजिटिंग कार्ड में वेबसाइट का पता देना गर्व की बात समझी जाती लेकिन उन दिनों वेब साइट बनवाना बहुत महंगा (लगभग 1 लाख भारतीय रुपये) था। एक तरफ अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिता का दबाव और दूसरी तरफ पीछे न रह जाने की जिद... हमने खोजबीन शुरू की। पता लगा कि वेब पर कुछ कंपनियां हैं जो मुफ्त होस्टिंग की सुविधा देती हैं। फिर यहां के अखबारों में कुछ विज्ञापन देखे जिनमें लिखा होता था कि 1000 दिरहम (लगभग 10,000 रुपये) मे वेबसाइट बनाना सीखो। मैं ऐसे ही एक संस्थान में चली गई। पाठ्यक्रम पूरा करने के बाद हिंदी वेबसाइट बनायी। इसे आप 'अनुभूति' और 'अभिव्यक्ति' का प्रारंभ मान सकते हैं। उस समय एक चैट प्रोग्राम नया नया आया था जिसका नाम आई सी क्यू (जिसे आइ सीक यू) कहा करते थे। उसमें अपनी रुचि, स्थान भाषा आदि के द्वारा मित्रों को छांटने की सुविधा थी। उसमें मुझे दो बहुत अच्छे साहित्य प्रेमी मित्र मिले। कनाडा से कंप्यूटर साइंस के प्रोफेसर अश्विन गाँधी और कुवैत से दीपिका जोशी। सबने मिलकर एक वेब पत्रिका की योजना बनाई। यह जियोसिटी की मुफ्त होस्टिंग पर चलने लगी। तब कोई हिंदी वेब फांट नहीं था। हम टेक्स्ट का चित्र बनाकर अपलोड किया करते। 1998 के आसपास जब हर्ष कुमार ने शुशा फांट बनाया तब कुछ हिस्से शुशा में प्रकाशित होने लगे। मुफ्त होस्टिंग में काफी तकलीफें भी थीं। धीरे-धीरे नेट की गति बढऩे लगी, कंप्यूटर भी दमदार हुए और तब हमने एक वेब होस्टिंग कंपनी को पैसे देकर पत्रिकाओं की स्थापना की। वह 15 अगस्त 2000 था जब विधिवत रूप से एक पूरी हिंदी वेब पत्रिका प्रकाशित हुई थी।
नवगीत को लेकर आप अभियान चला रही हैं। क्या भविष्य है नवगीत का?
किसी भी अभियान के प्रारंभ में उसका क्या भविष्य होगा, यह नहीं कहा जा सकता। नवगीत को मैं हिंदी भाषा और साहित्य के विकास के लिए साधन के रूप में देखती हूं। इसका प्रयोग मैंने मीडिया के विभिन्न माध्यमों के साथ किया है। जिस प्रकार दोनों पत्रिकाएं और वेब पर स्थापित दूसरे काम सराहे गए हैं, जन-जन को उसका लाभ हुआ है, विश्वास है कि नवगीत अभियान भी उसी प्रकार सफल होना चाहिए।
क्या देश में हिंदी का प्रचलन बढ़ाने के लिए हो रहे प्रयासों से आप संतुष्ट हैं?
प्रयासों से संतुष्टि का सवाल ही नहीं होता जबकि लोग हिंदी बोलने में हेठी समझते हों। लेकिन, सिर्फ इसीलिए कोई अच्छा और सही काम बंद नहीं किया जा सकता। सब काम सरकार और कारपोरेट करेंगे और हम सिर्फ रोना रोएंगे, यह ठीक नहीं है। कुछ बातें कह सकती हूं-हिंदी भाषा, साहित्य, पत्रकारिता और संस्कृति से जुड़े हुए लोगों को गर्व से हिंदी बोलनी चाहिए। बात-बात में अंग्रेजी मुंह से निकलना बहुत ही शर्म की बात है। जब आपको अंग्रेजी बोलनी है बेशक बोलें लेकिन जब हिंदी बोलें तो ठीक से बोलें।

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