शहरनामा : शहर में लगी होर्डिंग उतरी...आपकी मंशा क्या थी
लखनऊ में एक चौराहे पर बड़ी बड़ी होर्डिंग लगाई गई जिसमें शाकाहारी बनने की अपील की गई दैनिक जागरण का कॉलम शहरनामा।
लखनऊ [अम्बिका वाजपेयी]। बगल में छपी तस्वीर को देखिए। यह होर्डिंग शहर में एक चौराहे पर लगाई गई। आप सोचेंगे इसमें क्या खास है, किसी संस्था द्वारा शाकाहारी बनने की साधारण सी अपील ही तो है। जीवों पर दया करने की शिक्षा तो सभी धर्म देते हैं, इसीलिए किसी ने लगवा दी होगी। यही साधारण सी शिक्षा कुछ लोगों को अखर गई। शिकायत की गई, संस्था को चेतावनी दी गई और पोस्टर उतरवा दिया। विरोध के लिए तर्क था कि पोस्टर लगाने के पीछे मंशा ठीक नहीं थी। मान लेते हैं कि मंशा ठीक नहीं थी, तो महात्मा गांधी ने भी तो कहा था कि जानवरों के प्रति व्यवहार से ही समाज की संवेदनशीलता का आकलन होता है। बचपन में हर कोई पढ़ता है कि जीवों पर दया करो...इसके बावजूद तमाम बेजुबान जुबान का स्वाद बनते हैं। पोस्टर पर लिखी बात भी तो अभिव्यक्ति की आजादी थी तो उतरवाने वालों की मंशा क्या थी?
ऐसे ही बनते हैं विकास
गोमतीनगर विस्तार थाने के लॉकअप में एक युवक की मौत हो जाती है। युवक को एक पूर्व पुलिस अधिकारी के घर चोरी के आरोप में पकड़ा गया था। पुलिस बोली कि आत्मग्लानि में उसने फांसी लगा ली। खैर, पांच पुलिसकर्मी निलंबित हो चुके हैं और मृतक पंचतत्व में विलीन। पता चलता है कि चोरी के आरोप में पकड़े गए युवक की बर्बरता से पिटाई की गई और पूर्व पुलिस अधिकारी के घर पर खून के छींटे भी मिले। आरोप लगता है कि पुलिस अधिकारी के नौकर ने साथी के साथ मिलकर युवक की बर्बरता से पिटाई की। सवाल यह है कि पूर्व पुलिस अफसर के नौकर की बर्बरता को आखिर संरक्षण किस रसूख से मिला? उसके अत्याचार की ताकत का स्रोत क्या था? शायद उसे आभास था कि किसी की जान लेकर भी वो साफ बच जाएगा। शायद इसी संरक्षण और आभास के चलते विकास दुबे जैसे लोग पैदा होते हैं।
भाई साहब, गेंदा नहीं चलेगा
पिछले सप्ताह पूरे प्रदेश में अभियान के तहत पौधारोपण किया गया। सीएम और डीएम से लेकर तमाम संस्थाओं और व्यक्तियों ने धरा का वृक्षाभूषण करने के लिए पौधे रोपे। यह तो खैर पर्यावरण संरक्षण के लिए महत्वपूर्ण कदम था सो अखबारों में भी भरपूर जगह मिली, लेकिन कर्मचारियों के एक नेताजी मायूस ही रहे। ये उनमें से हैं जो फोटो छपवाने और खिंचाने का कोई मौका नहीं छोड़ते। यह मौका भी नहीं छोड़ा और गमले में गेंदे का पौधा लगाते हुए फोटो भेज दिया। स्वाभाविक था फोटो नहीं छपनी थी, लेकिन इससे नेताजी को कोई असर नहीं पडऩा था। सुबह सात बजे ही फोन मिला दिया और उलाहना देते हुए बोले- मेरा ही फोटो नहीं छपा, बाकी तमाम लोगों के छपे हैं। तीन-चार दिन टालने के बाद आखिर उनको मैसेज कर दिया भाई साहब, गमले में गेंदा नहीं चलेगा। जवाब आया- कोई नहीं मैं अगली बार पार्क में बरगद और पीपल लगाऊंगा।
चाय पिएंगे या काढ़ा बनवाऊं
कोरोना के चलते अगर किसी को सबसे ज्यादा उपेक्षित होना पड़ा है तो वह है कोल्डड्रिंक। शादी-ब्याह में भी इसके काउंटर नदारद नजर आ रहे हैं। प्याले में तूफान लाने और डर के आगे जीत दिलवाने वाले घूंट आजकल काढ़े के तूफान में खो गए हैं। एनर्जी देकर दुनिया जीत लेने वाले विज्ञापन भी ठंडे पड़े हैं। भीषण गर्मी बीतकर मानसून आ गया, लेकिन इनका फ्लेवर बोतलों में ही इंतजार करता रहा। अव्वल तो लॉकडाउन में दुकानें ही बंद नहीं, अनलॉक में भी पूछी जा रही है तो सिर्फ अदरक की चाय। घर पर भी गाहे-बगाहे परिचित या मेहमान पहुंच रहा है तो यही सवाल पूछा जा रहा है कि चाय पिएंगे या काढ़ा। मेहमान भी संकोच त्यागकर बोलते हैं- बाहर से होकर आया हूं, काढ़ा ही पिला दीजिए। आजकल मैं भी दोनों समय काढ़ा पी रहा हूं। देखिए न, आजकल लखनऊ में भी केस बहुत बढ़ गए हैं।