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सिर्फ दाउद ही नहीं नाईक को हराने में कांग्रेस ने पोप की मदद भी ली

कांग्रेस ने भारतीय जनता पार्टी के कद्दावर नेता तथा उत्तर प्रदेश के राज्यपाल का मुंबई में विजय रथ रोकने को गोविंदा के चुनाव में शीर्ष ईसाई धर्म गुरू पोप की भी मदद ली थी।

By Dharmendra PandeyEdited By: Published: Thu, 05 May 2016 01:56 PM (IST)Updated: Thu, 05 May 2016 01:59 PM (IST)

लखनऊ। कांग्रेस ने भारतीय जनता पार्टी के कद्दावर नेता तथा उत्तर प्रदेश के राज्यपाल का मुंबई में विजय रथ रोकने को गोविंदा के चुनाव में शीर्ष ईसाई धर्म गुरू पोप की भी मदद ली थी।

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राम नाईक लगातार तीन बार विधानसभा चुनाव जीतने के बाद दो बार लोकसभा चुनाव जीत चुके थे। वह 2004 के चुनाव में हैट्रिक के इरादे से मैदान में थे, लेकिन कांग्रेस ने फिल्म अभिनेता गोविंदा को मैदान में उतारा और वे चुनाव हार गये। राज्यपाल राम नाईक ने 12 साल बाद बाजार में आई उनकी पुस्तक 'चरैवेति! चरैवेति!!' में दावा किया है कि उन्हें हराने के लिए कांग्रेस ने माफिया सरगना दाऊद ही नहीं, सर्वोच्च ईसाई धर्मगुरु पोप का भी सहारा लिया। राम नाईक की मराठी भाषी संस्मरण संग्रह वाली पुस्तक का विमोचन बीते महीने मुम्बई में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडऩवीस ने किया था।

पुस्तक के अध्याय 25 में नाईक ने लिखा है उन्हें अपने कार्यों के बूते अपनी जीत का भरोसा था। पर ऐसा नहीं हुआ। 1999 में उन्हें 5,17,991 वोट मिले थे। 2004 में महज छह हजार वोट कम मिले। वह चुनाव हार गए। उन्होंने लिखा, कांग्र्रेस ने इस चुनाव को प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया था। जिस तरह उत्तर प्रदेश में हेमवती नंदन बहुगुणा का अश्वमेध रोकने को अमिताभ बच्चन को उतारा गया है, वैसे ही मेरे खिलाफ गोविंदा को उतारा गया। अपनी पराजय को पोप से जोड़ते हुए उन्होंने लिखा, 2004 में वसई में सोनिया गांधी की सभा आयोजित की गई। इसका खास कारण था। इस ईसाई बहुल क्षेत्र में मुझे ही मतदान होता था। ठाकुर कंपनी की दादागिरी से त्रस्त जनता का मुझसे लगाव था। सोनिया जी के आने के बाद छिपा प्रचार शुरू हुआ कि पोप यहां कांग्रेस के प्रत्याशी को विजयी देखना चाहते हैं। इस प्रचार को सब से ज्यादा नाटकीय मोड़ देने का प्रयास किया समाजवादी विचारधारा की मृणाल गोरे ने। राज्यपाल ने लिखा है कि मृणाल ताई ने ताउम्र कांग्रेस का विरोध किया, लेकिन वह राम नाईक को हराने के लिए कांग्रेस के मंच पर अवतरित हुईं। वह शायद उनका आखरी चुनाव प्रचार था।

मेरी पराजय का प्रमुख कारण था बिल्डर लॉबी एवं अंडर वल्र्ड की दहशत! वसई के हितेंद्र ठाकुर, कुख्यात दाऊद इब्राहीम व गोविंदा की दोस्ती सर्वविदित थी। इस चुनाव में दहशत ने दबे पांव प्रवेश किया। मतदान के दो तीन दिन पहले इस दहशत में प्रचंड वृद्धि हुई। चुनाव में मुझे सभी छह विधानसभा क्षेत्रों में बढ़त मिलती थी पर इस बार दो ही क्षेत्र में वह कायम रही। दहशत के चलते वसई व मालवणी में मैं पिछड़ गया। हार के बाद मैंने नारा लगाया, चुनाव हारा हूं हारी नहीं है हिम्मत, जनसेवा का व्रत चलता रहेगा अविरल। अटलजी जैसे महान नेता को भी पराजय का सामना करना पड़ा तो मैं क्या चीज हूं, यही सोचकर मैं पुन: काम में जुट गया।

अटल जी की एक कविता का जिक्र करते हुए नाईक लिखते हैं कि उन्होंने पराभव की कल्पना कभी नहीं की थी। चुनाव को मैंने हमेशा जनसेवा के सशक्त माध्यम के रूप में ही देखा। अत: अनपेक्षित हार को मैं 'क्या हार में क्या जीत में' की भावना से पचा ले गया।

नहीं देखी गोविंदा की फिल्म

राज्यपाल ने दावा किया कि चुनाव से पहले और बाद में भी आज तक उन्होंने गोविंदा की एक भी फिल्म नहीं देखी है। गोविंदा की प्रत्याशिता का एलान होते ही इस मुकाबले को बड़े मियां बनाम छोटे मियां नाम दिया गया। उन्होने लिखा है, अमिताभ बच्चन एवं गोविंदा की फिल्म में अमिताभ बड़े मियां और गोविंदा छोटे मियां थे, अत: एक अखबार के कार्टून में बड़े की जगह मेरा और छोटे की जगह गोविंदा का चित्र छपा। मैं जान गया कि इस बार मुझे ऐसे शख्स से मुकाबला करना है जिसने उस क्षेत्र में नाम कमाया है जिसके बारे में मैं अनभिज्ञ हूं। उसके क्षेत्र के बारे में जानने की न मुझे फुर्सत थी, न इच्छा थी।

मनमोहन ने की थी सिफारिश

मेरे पेट्रोलियम मंत्री बनने से पहले पेट्रोल पंप एवं गैस एजेंसियों का वितरण मंत्री व उच्च अधिकारियों की मर्जी से होता था। मुझ पर भी ऐसा दबाव डालने के लिए सैकड़ों पत्र भेजे गए। औरों की क्या बात करें, पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने भी एक प्राध्यापिका को पेट्रोल पंप देने के लिए मुझे पत्र लिखा था। मैंने निर्णय किया कि मैं अपने अधिकार में एक भी पंप आवंटित नहीं करूंगा। व्यवहार पारदर्शी बनाने के लिए हर राज्य के अनुसार अलग-अलग तेल कंपनियों के उच्च अधिकारियों व अवकाश प्राप्त न्यायाधीशों की आवंटन समिति गठित की।

गिरिजा व्यास को भी आवंटन

आवंटन समिति की संस्तुति प्रक्रिया से जिन्हें पंप मिले, उनमें 7-8 प्रतिशत राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से संबंधित लोग भी थे। इसी आधार पर कुछ अखबारों ने मुझ पर आवंटन में भ्रष्टाचार करने का आरोप लगाया। आवंटन सूची में कांग्रेस की नेता गिरिजा व्यास का भी नाम था पर इस बारे में कोई टिप्पणी नहीं की गई कि उन्हें पंप कैसे मिला। मैंने इस्तीफा देने की पेशकश की पर अटलजी इस बारे में अडिग थे कि जब मैंने कुछ गलत किया ही नहीं है तो इस्तीफा देने का प्रश्न कहां उठता है। अटलजी को मुझ पर, मेरी प्रामाणिकता पर पूरा भरोसा था।

2009 में बंटे मराठी वोट

राज्यपाल ने पुस्तक में 2009 के चुनाव में पुन: पराजय का कारण भी रेखांकित किया है। उन्होंने लिखा, गोविंदा की लगातार निष्क्रियता के कारण लोग उनके साथ थे। लोकसभा क्षेत्र का नया परिसीमन भी उनके अनुकूल था। कांग्र्रेस ने शिवसेना से दो बार सांसद रहे ङ्क्षहदी पत्रकार संजय निरुपम को मैदान में उतारा। वे टीवी शो बिग बॉस के जरिया हाई प्रोफाइल दर्जा पा चुके थे। इस बीच शिव सेना तोड़कर महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) बनाने वाले राज ठाकरे ने मराठी मत तोडऩे की अलग रणनीति रची। इधर, यह कुप्रचार भी होने लगा कि राम नाईक मराठी हैं, पर वे केवल मराठी लोगों का हित देखने के पक्षधर नहीं। चुनाव से पहले रेलवे भर्ती के लिए आये बिहार व उत्तर प्रदेश के युवकों की कल्याण में मनसे द्वारा पिटाई के कारण स्थानीय बिहारी लोगों को निरुपम में तारणहार नजर आने लगा। दोबारा पराजय पर नाईक लिखते हैं कि 2009 के चुनाव ने यह उजागर कर दिया था कि मराठी प्रेम का चोंगा पहनकर मनसे ने गैर मराठी को ही जिताने में मदद की। मनसे का उम्मीदवार सामने होने के कारण मराठी वोट बंट गए। मैं महज 5,779 मतों (0.84 प्रतिशत) से हारा। मनसे को 1,47,502 वोट मिले। वह यदि चुनाव मैदान में न होती तो वे मत किसे मिलते, यह बताने की जरूरत नहीं। मराठी मानुस के हितों का ढिंढोरा पीटने वाले ने ही गैर मराठी के गले में विजय माला पहनायी।


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