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National Doctor's Day 2021: कोरोना की चुनौती को चिकित्‍सकों ने हौसलों से दी मात

कोरोना संक्रमण की दूसरी लहर में लखनऊ के चिकित्‍सकों ने चुनौतीपूर्ण सफर तय किया। अपनी जान पर खेलते हुए उन्‍होंने दिन रात अस्‍पतालों में ड्यूटी की और लोगों को मौत के मुंह से निकालने के लिए जूझते रहे।

By Rafiya NazEdited By: Published: Thu, 01 Jul 2021 03:55 PM (IST)Updated: Thu, 01 Jul 2021 06:29 PM (IST)
कोरोना के चुनौती भरे सफर में डॉक्‍टरों ने दिया हर कदम पर साथ।

लखनऊ [रूमा सिंहा]। कोरोना संक्रमण की दूसरी लहर में जब हर कोई अपने घर में संक्रमण से बचने के लिए बैठा हुआ था ऐसे कठिन समय में भी डॉक्‍टरों ने अपनी जान की परवाह किए बगैर दिन रात एक करके मरीजों की सेवा की। यही नहीं मरीजों की सेवा में लगे हुए कोई डॉक्‍टर कोविड संक्रमण के काल में भी समा गए। एक यही पेशा ऐसा है जिसका दर्जा धरती पर भगवान के बराबर का दर्जा दिया जाता है। कोविड संक्रमण काल में डॉक्‍टरों ने कोरोना से ग्रसि‍त मरीजों की दिन रात सेवा की है। इसलिए इस बार डॉक्‍टर्स डे की थीम भी थैंक्‍यू फॉर कीपिंग अस सेफ एंड स्‍माइल रखी गई है। राजधानी के डॉक्‍टरों के कोविड काल के अनुभव पर एक रिपोर्ट।

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सबके प्रयास से किया प्रबंधन-डॉ.शंखवार: कोरोना यह दूसरी लहर बेहद आक्रामक थीइ। तनी बड़ी संख्या मेंमरीज अस्पताल पहुंच रहे थे। जिसका प्रबंधन वाकई बेहद कठिन कार्य था लेकिन सबके सहयोग से केजीएमयू जो कि प्रदेश का सबसे बड़ा कोविड हॉस्पिटल है, में प्रबंधन संभव हो सका। केजीएमयू के मुख्य चिकित्सा अधीक्षक डॉक्टर एसएन शंखवार बताते हैं कि अप्रैल मई में जब संक्रमण अपनी पीक पर था बेड की व्यवस्था करना एक बड़ी चुनौती साबित हो रहा था। लिंब सेंटर कोकोपीट अस्पताल बनाया गया था लेकिन मरीजों की संख्या को देखते हुए गांधी वार्ड, सर्जरी विभाग सहित कई अन्य विभागों को भी कोविड मरीजों के लिए कर दिया गया। सबसे बड़ी जिम्मेदारी डॉक्टरों, रेजीडेंट व नर्सिंग स्टाफ पर थी। इसके लिए एक पुल बनाया गया जिसके हिसाब से टीमें बनाकर ड्यूटी लगाई गई।

दिक्कत तब आती जब किसी के परिवार में अचानक कोई परेशानी आ जाती या वह खुद संक्रमित हो जाता तो उसकी जगह किसी दूसरे को ड्यूटी पर भेजा जाता। ऐसे में उनकी देखरेख के साथ विकल्प भी तलाशना पड़ता। पूरा अस्पताल कोविड मरीजों की देखरेख के लिए एकजुट होकर काम कर रहा था। डॉ.शंखवार बताते हैं कि आईसीयू में भर्ती जो मरीज गंभीर थे उनके लिए संबंधित विभाग के डॉक्टर बुलाए जाते थे। डायलिसिस लगातार चल रही थी। केवल यही नहीं डॉक्टर और नर्सिंग स्टाफ जो ड्यूटी पर रहता था उनके रहने की व्यवस्था, दवाओं की व्यवस्था यह सारी जिम्मेदारी थी। 24 घंटे कार्य चलता रहता था।इतनी बड़ी संख्या में मरीजों की देखरेख बगैर सबके सहयोग के संभव नहीं थी।

अत्यधिक गंभीर मरीज को ठीक कर घर भेजने का सुख अलग: अस्पताल के आईसीयू में दो-तीन महीने गुजारने के बाद जब मरीज ठीक होकर जाता है तो यह क्षण डॉक्टरों के लिए बेहद सुकून देने वाला होता है। राजाजीपुरम निवासी 35 वर्षीय विपुल को केजीएमयू में भर्ती किया गया था। ऑक्सीजन लेवल कम था और सांस लेने में भी परेशानी थी। शरीर में सोडियम की कमी थी और ऑक्सीजन लेवल भी नॉन इनवेसिव वेंटीलेशन (एनआईवी) के साथ 90-92 था। स्टेरॉयड के कारण शुगर भी बढ़ी थी। केजीएमयू के डॉ.डी. हिमांशु और डॉ.अमित कुमार बताते हैं कि मरीज की हालत बहुत ज्यादा खराब थी। फेफड़े की झिल्ली फट जाने के कारण हवा सीने में भर गई थी। फेफड़े में खून का थक्का जमा था जिसे इंजेक्शन देकर ठीक किया गया। सीने में भरी हवा निकालने के लिए चेस्ट ट्यूब डाली गई। मरीज का बीपी और ऑक्सीजन स्तर भी कम था। जिससे सांस की नली डालकर मरीज को वेंटीलेटर पर शिफ्ट करना पड़ा। करीब एक महीने तक चेस्ट ट्यूब पड़ी रही फिर धीरे-धीरे सीने में भरी हवा कम हुई। इस बीच उन्हें दो-तीन बार इंफेक्शन भी हुआ। कुल मिलाकर मरीज की हालत ऊपर नीचे होती रही। डॉक्टरों ने कोशिश जारी रखी। सीने से ट्यूब निकाल दी गई है और मरीज अब रिकवर कर रहा है एक-दो दिन में उन्हें डिस्चार्ज भी कर दिया जाएगा डॉ.अमित बताते हैं कि ऐसे कई सारे मरीजों को ठीक करके घर भेजा जा चुका है। वैसे तो हर मरीज महत्वपूर्ण होता है लेकिन जब यंग मरीज क्रिटिकल होते हैं तो यह चुनौती और ज्यादा बड़ी हो जाती है क्योंकि उनके पीछे पूरा परिवार निर्भर होता है। खुशी तब होती है जब इलाज कामयाब होता है और मरीज स्वस्थ होकर घर जाता है।

मरीजों के बीच रहने के कारण उनको ज्यादा वक्त दे पाया: मेरा पॉजिटिव होना मरीजों के हित में रहा। अस्पताल में ही एडमिट होने के कारण मैं मरीजों को ज्यादा समय दे पा रहा था। हर दिन 400 से 500 मरीजों को देख लेता था।किंग जॉर्ज मेडिकल यूनिवर्सिटी (केजीएमयू) को सरकार द्वारा कोविड अस्पताल बनाया गया था। अस्पताल में कोविड के 600-700 मरीज भर्ती थे। मरीजों की देखभाल की कमान संक्रामक रोग अस्पताल के प्रभारी डॉ.डी. हिमांशु के पास थी। डॉ. हिमांशु बताते हैं कि महामारी के दौर में सुबह 10 बजे से रात के 10 बजे तक मरीजों की बीच ही समय निकल जाता था। बताते हैं कि तीन अप्रैल को मैं और मेरे पिता भी पॉजिटिव हो गए। तब मैंने अस्पताल में ही एडमिट होकर मरीजों को देखना शुरू कर दिया। अस्पताल में रहने के कारण मेरे लिए मरीज देखना और भी आसान हो गया। आईसीयू में भर्ती मरीजों को मैं दिन भर में दो-तीन बार चक्कर लगाकर देख लेता था। पिता के बाद ससुर भी संक्रमित हो गए। पूरा परिवार ही संक्रमण की चपेट में आ गया। यहां तक कि बच्चे को भी इंफेक्शन हो गया। वह बताते हैं कि पत्नी एसजीपीजीआई में कार्डियोलॉजिस्ट हैं लेकिन तमाम एहतियात के बाद भी मुझे लगता है कि परिवार में इंफेक्शन मुझसे ही पहुंचा। अप्रैल के महीने में लगभग पूरे महीने मैं हॉस्पिटल में ही रह रहा था। अस्पताल में पूरे टाइम रहना मुश्किल काम है लेकिन समय कहां निकल जाता इसका पता ही नहीं लगता था। हर रोज सुबह करीब 10 बजे से राउंड शुरू होता था। पहले कोविड के मरीज देखता फिर पोस्ट कोविड और उसके बाद जब म्यूकार्माइकोसिस के मरीज आने लगे तो उन्हें देखता था। रात एक बजे तक यह सिलसिला चलता रहता था। सुबह उठकर फिर राउंड शुरू हो जाते थे। इस बीच जो मरीज गंभीर होते थे उनका हालचाल टीम से लगातार मिलता रहता था। जरूरत पड़ने पर उन्हें निर्देशित करता रहता था।

डॉ.हिमांशु बताते हैं कि पहले तो पीपीई किट पहनकर राउंड लेता था लेकिन जब मुझे कोरोना हुआ तो मैं मास्क और फेस शील्ड पहनकर ही मरीजों के बीच जाता था। डिस्चार्ज होने के बाद मैंने मास्क और फेस शील्ड के साथ गाउन पहनकर मरीजों को देखना शुरू किया। परिवार में सभी लोग पॉजिटिव होकर ठीक हो चुके थे इसलिए अब संक्रमण का डर भी नहीं रह गया था। एक तरह से देखा जाए तो मेरे कोरोना पॉजिटिव होने का लाभ मरीजों को मिला। मैं अस्पताल में एडमिट होने के कारण उनको ज्यादा वक्त दे पाया।


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