Lucknow PGI News: सुनने की क्षमता आएगी या नहीं, अब कॉकलियर इंपलांट से पहले चल जाएगा पता
सेंटर के निदेशक प्रो.आलोक धावन के मुताबिक हम लोगों ने 50 से अधिक सुनाई न देने की क्षमता वाले बच्चों में शोध के साबित किया है कि दिमाग की प्लास्टीसिटी (लचीलापन) के आधार पर इंपलांट की सफलता का आंंकलन किया जा सकता है।
लखनऊ, [कुमार संजय]। अब जन्मजात या किसी अन्य कारण ने सुनाई न देने की परेशानी से राहत दिलाने के लिए होने वाले कॉकलियर इंप्लांट की सफलता का पता इंप्लांट से पहले लगाया जा सकता है। सेंटर आफ बायोमिडकल रिसर्च (सीबीएमआर) ने ऐसी तकनीक स्थापित की है जिसमें फंक्शनल एमआरआई के जरिए दिमाग की प्लास्टीसिटी देख कर बताया जा सकता है कि इंप्लांट कितना सफल होगा। इससे इंप्लांट की सफलता दर काफी बढ़ जाती है। सेंटर के निदेशक प्रो.आलोक धावन के मुताबिक हम लोगों ने 50 से अधिक सुनाई न देने की क्षमता वाले बच्चों में शोध करके साबित किया है कि दिमाग की प्लास्टीसिटी (लचीलापन) के आधार पर इंप्लांट की सफलता का आकलन किया जा सकता है। जिन बच्चों में प्लास्टीसिटी अधिक होती है उनमें इंप्लांट सफल होता है।
कॉकलियर लगने के बाद उनमें पूरी क्षमता से सुनाई देने लगता है। इस शोध के बाद हम लोगों ने रुटीन तौर पर जांच करने लगे है, जिसमें बताते है कि किसमें यह सफल होगा। संजय गांधी पीजीआइ के न्यूरो ईएनटी विभाग के प्रो.अमित केशरी के साथ मिल कर यह शोध किया गया। अब विभाग किसी भी मरीज में इंप्लांट से पहले जांच करा कर सफलता का आकलन कर लेते है। विशेषज्ञों का कहना है कि कॉकलियर इंप्लांट काफी मंहगा होता है, इसलिए लगने के बाद अपेक्षित परिणाम न मिले तो यह दुखद स्थित मरीज और चिकित्सक दोनों के लिए होती है। इस शोध के बाद दोनों लोगों को संतुष्टि मिलती है।
छह से 10 साल के बच्चों में भी संभव होगा इंप्लांट
एक से तीन साल तक के बच्चों में यह बेस्ट रिजल्ट देता है, लेकिन छह साल तक बच्चों में इसका इंप्लांट करते है, लेकिन छह से 10 साल के बाद वाले बच्चों में क्यों नहीं करना है। इसके लिए कोई मानक नहीं था जिससे जानने के लिए शोध किया गया किया तो पता चला कि फंक्शनल एमआरआइ से इस उम्र के बच्चों में कुछ हद तक इंप्लांट का फैसला ले सकते हैं।
कैसे होता है इंप्लांट
कॉकलियर इंप्लांट एक उपकरण है, जिसे सर्जरी के द्वारा कान के अंदरूनी हिस्से में लगाया जाता है और जो कान के बाहर लगे उपकरण से चालित होता है। कान के पीछे कट लगाते है और मैस्टॉइड बोन (खोपड़ी की अस्थाई हड्डी का भाग) के माध्यम से छेद किया जाता है। इस छेद के माध्यम से इलेक्ट्रॉइड को कॉक्लिया में डाला जाता है। कान के पिछले हिस्से में पॉकेट बनाई जाती है, जिसमें रिसीवर को रखा जाता है। सर्जरी के लगभग एक महीने के बाद बाहरी उपकरणों जैसे माइक्रोफोन, स्पीच प्रोफेसर और ट्रांसमीटर को कान के बाहर लगा दिया जाता है।